Tuesday 7 May 2019

सागौन  का पौधा  ( Teak Tree )
सागौन का वानस्पतिक नाम टेक्टोना ग्रैंडिस (Tectona grandis)
वैज्ञानिक नाम टैक्टोना ग्रांडिस
उत्पति :- मध्य एशिया 
जलबायु :- उष्ण कटिबंधीय अर्थात नीम , आम तथा महुआ जहाँ भी आसानी से पैदा होती है वहाँ सागौन के पौधा को आसानी से उगाया जाता है | 
भूमि :- इसकी उत्पति के लिए दोमट , बलुई दोमट सर्बोतम होती है | इसकी जड़ बहुत लम्बा होती है | जिस कारण यह चटानों पर भी आसानी से उग जाती है |  
उत्पति देश :- पाकिस्तान , चीन ,बर्मा, श्रीलंका ,भारत ,इंडोनेशिया , इजराइल , थाईलैंड इत्यादि 
उपयोग :- ट्रक बोडिंग , रेलवे स्लीपर , मकान की बुशिंग एबं उच्च कोटि के फर्नीचर भी सागौन से ही बनाये जाते है| 

सागौन पौधा की बिशेषता ( Benefit of  Teak  Tree )
आँवला
आँवला युफ़ोरबिएसी परिवार का पौधा है। यह भारतीय मूल का एक महत्वपूर्ण फल है।
आंवला एक फल देने वाला वृक्ष है। यह लगभग 20 से 25 फुट लंबा झारीय पौधा होता है। यह एशिया के अलावा यूरोप और अफ़्रीका में भी पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र और प्रायद्वीपीय भारत में आंवला के पौधे बहुतायत मिलते हैं। इसके फूल घंटे की तरह होते हैं। इसके फल सामान्यरूप से छोटे होते हैं, लेकिन प्रसंस्कृत पौधे में थोड़े बड़े फल लगते हैं। इसके फल हरे, चिकने और गुदेदार होते हैं। आंवले को मनुष्य के लिए प्रकृति का वरदान कहा जाता है। आंवला या इंडियन गूसबेरी एक देशज फल है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। इसकी उत्पत्ति और विकास मुख्य रूप से भारत में मानी जाती है। आंवले का पेड़ भारत के प्राय: सभी प्रांतों में पैदा होता है। तुलसी की तरह आंवले का पेड़ भी धार्मिक दृष्टिकोण से पवित्र माना जाता है। स्त्रियां इसकी पूजा भी करती हैं। कार्तिक के महीने में आंवले का सेवन बहुत शुभ और गुणकारी माना जाता है। इसके पेड़ की छाया तक में एंटीवायरस गुण हैं और अद्भुत जीवन शक्ति है। कार्तिक के महीने में इस पेड़ के ये दोनों गुण चरम पर होते हैं।
जलवायु
आँवला एक शुष्क उपोष्ण (जहाँ जाड़ा एवं गर्मी स्पष्ट रूप से पड़ती है) क्षेत्र का पौधा है परन्तु इसकी खेती उष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। भारत में इसकी खेती समुद्र तटीय क्षेत्रों से 1800 मीटर ऊँचाई वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। जाड़े में आँवले के नये बगीचों में पाले का हानिकारक प्रभाव पड़ता है परन्तु एक पूर्ण विकसित आँवले का वृक्ष 0-460 सेंटीग्रेट तापमान तक सहन करने की क्षमता रखता है। गर्म वातावरण, पुष्प कलिकाओं के निकलने हेतु सहायक होता है जबकि जुलाई-अगस्त माह में अधिक आर्द्रता का वातावरण सुसुप्त छोटे फलों की वृद्धि हेतु सहायक होता है। वर्षा ऋतु में शुष्क काल में छोटे फल अधिकता में गिरते हैं तथा नए छोटे फलों के निकलने में देरी होती है।
भूमि
आँवला एक सहिष्णु फल है और बलुई भूमि से लेकर चिकनी मिट्टी तक में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। गहरी उर्वर बलुई दोमट मिट्टी इसकी खेती हेतु सर्वोत्तम पायी जाती है। बंजर, कम अम्लीय एवं ऊसर भूमि (पी.एच. मान 6.5-9.5, विनियम शील सोडियम 30-35 प्रतिशत एवं विद्युत् चालकता 9.0 म्होज प्रति सें.मी. तक) में भी इसकी खेती सम्भव है। भारी मृदायें तथा ऐसी मृदायें जिनमें पानी का स्तर काफी ऊँचा हो, इसकी खेती हेतु अनुपयुक्त पायी गई हैं।
किस्में
पूर्व में आँवला की तीन प्रमुख किस्में यथा बनारसी, फ्रांसिस (हाथी झूल) एवं चकैइया हुआ करती थी। इन किस्मों की अपनी खूबियाँ एवं कमियाँ रही हैं। बनारसी किस्म में फलों का गिरना एवं फलों का कम भंडारण क्षमता, फ्रान्सिस किस्म में यद्यपि बड़े आकार के फल लगते हैं परन्तु उत्तक क्षय रोग अधिक होता है। चकैइया के फलों में अधिक रेशा एवं एकान्तर फलन की समस्या के कारण इन किस्मों के रोपण को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। पारम्परिक किस्मों की इन सब समस्याओं के निदान हेतु नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, फैजाबाद ने कुछ नयी किस्मों का चयन किया है जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न है:
कंचन (एन ए-4)
यह चकइया किस्म से चयनित किस्म है। इस किस्म में मादा फूलों की संख्या अधिक (4-7 मादा फूल प्रति शाखा) होने के कारण यह अधिक फलत नियमित रूप से देती है। फल मध्यम आकार के गोल एवं हल्के पीले रंग के व अधिक गुदायुक्त होते है। रेशेयुक्त होने के कारण यह किस्म गूदा निकालने हेतु एवं अन्य परिरक्षित पदार्थ बनने हेतु औद्योगिक इकाईयों द्वारा पसंद की जाती है। यह मध्यम समय में परिपक्व होने वाले किस्म हैं (मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर) तथा महाराष्ट्र एवं गुजरात के शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगायी जा रही है।
कृष्णा (एन.ए.-5)
यह बनारसी किस्म से चयनित एक अगेती किस्म है जो अक्टूबर से मध्य नवम्बर में पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म के फल बड़े ऊपर से तिकोने, फल की सतह चिकनी, सफेद हरी पीली तथा लाल धब्बेदार होती है। फल का गूदा गुलाबी हरे रंग का, कम रेशायुक्त तथा अत्यधिक कसैला होता है। फल मध्यम भंडारण क्षमता वाले होते हैं। अपेक्षाकृत अधिक मादा फूल आने के कारण, इस किस्म की उत्पादन क्षमता बनारसी किस्म की अपेक्षा अधिक होती है। यह किस्म मुरब्बा, कैन्डी एवं जूस बनाने हेतु अत्यंत उपयुक्त पायी गयी है।
नरेन्द्र आँवला-6
यह चकैइया किस्म से चयनित किस्म है जो मध्यम समय (मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर) में पक कर तैयार हो जाती है। पेड़ फैलाव लिए अधिक उत्पादन देने वाले होते हैं। (फलों का आकार मध्यम से बड़ा गोल, सतह चिकनी, हरी पीली, चमकदार, आकर्षक) गूदा रेशाहीन एवं मुलायम होता है। यह किस्म मुरब्बा, जैम एवं कैन्डी बनाने हेतु उपयुक्त पायी जाती है।
नरेन्द्र आँवला-7
यह फ्रांसिस (हाथी झूल) किस्म के बीजू पौधों से चयनित किस्म है। यह शीघ्र फलने वाली, नियमित एवं अत्यधिक फलन देने वाली किस्म है। इस किस्म में प्रति शाखा में औसत मादा फूलों की संख्या 9.7 तक पायी जाती है। यह मध्यम समय (मध्य नवम्बर से मध्य दिसम्बर) तक पक कर तैयार हो जाती है। यह किस्म उत्तक क्षय रोग से मुक्त है। फल मध्यम से बड़े आकार, के ऊपर तिकोने, चिकनी सतह तथा हल्के पीले रंग वाले होते हैं। गूदे में रेशे की मात्रा एन ए-6 किस्म से थोड़ी अधिक होती है। इस किस्म की प्रमुख समस्या अधिक फलत के कारण इसकी शाखाओं को टूटना है। अत: फल वृद्धि के समय शाखाओं में सहारा देना उचित होता है यह किस्म च्यवनप्राश, चटनी, अचार, जैम एवं स्क्वैश बनाने हेतु अच्छी पायी गयी है। इस किस्म को राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल तथा तमिलनाडु के क्षेत्रों में अच्छी तरह अपनाया गया है।
नरेन्द्र आँवला-10
यह किस्म बनारसी किस्म के बीजू पौधों से चयनित अधिक फलन देने वाली किस्म है। फल देखने में आकर्षक, मध्यम से बड़े आकार वाले, चपटे गोल होते हैं। सतह कम चिकनी, हल्के पीले रंग वाली गुलाबी रंग लिए होती है। फलों का गूदा सफेद हरा, रेशे की मात्रा अधिक एवं फिनाल की मात्रा कम होती है। अधिक उत्पादन क्षमता, शीघ्र पकने के कारण एवं सुखाने एवं अचार बनाने हेतु उपयुक्तता के कारण यह व्यवसायिक खेती हेतु उपयुक्त किस्म हैं, परन्तु इस किस्म में एकान्तर फलन की समस्या पायी जाती है।
इन सब किस्मों के अलावा लक्ष्मी-52, किसान चकला, हार्प-5, भवनी सागर आनंद-1, आनंद-2, एवं आनंद-3 किस्में विभिन्न शोध संस्थाओं से विकसित की गयी हैं परन्तु इनकी श्रेष्ठता देश के अन्य भागों में अभी सिद्ध नहीं हो पाई है।
प्रवर्धन एवं मूलवृंत
आँवले के बाग़ स्थापना में सबसे बड़ी समस्या सही किस्मों के पौधों का न मिलना है। हाल के वर्षो में आँवले के पौधों की मांग में कई गुना वृद्धि हुई है। अत: कायिक प्रवर्धन की व्यवसायिक विधि का मानकीकरण आवश्यक हो गया है।
पारम्परिक रूप से आँवले के पौधों के बीज द्वारा भेंट कलम बंधन द्वारा तैयार किये जाते थे। बीज द्वारा प्रवर्धन आसान एवं सस्ता होता है, परन्तु परपरागित होने के कारण बीज द्वारा तैयार पौधे अधिक समय में फलत देते हैं एवं गुण, आकार में भी मातृ पौधों के समान नहीं पाये जाते हैं। आँवले के पौधे ऊपर की तरफ बढ़ने वाले होते हैं। अत: निचली सतह से बहुत कम शाख निकलती हैं, जिससे भेंट कलम बंधन अधिक सफल नहीं हैं। हाल के वर्षो में आँवले के प्रवर्धन हेतु कई कायिक विधियों का मानकीकरण किया गया है। अब इसका सफल प्रवर्धन पैबंदी चश्मा, विरूपित छल्ला विधि, विनियर कलम एवं कोमल शाखा बंधन द्वारा सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
प्रवर्धन एवं मूलवृंत
आँवले के बाग़ स्थापना में सबसे बड़ी समस्या सही किस्मों के पौधों का न मिलना है। हाल के वर्षो में आँवले के पौधों की मांग में कई गुना वृद्धि हुई है। अत: कायिक प्रवर्धन की व्यवसायिक विधि का मानकीकरण आवश्यक हो गया है।
पारम्परिक रूप से आँवले के पौधों के बीज द्वारा भेंट कलम बंधन द्वारा तैयार किये जाते थे। बीज द्वारा प्रवर्धन आसान एवं सस्ता होता है, परन्तु परपरागित होने के कारण बीज द्वारा तैयार पौधे अधिक समय में फलत देते हैं एवं गुण, आकार में भी मातृ पौधों के समान नहीं पाये जाते हैं। आँवले के पौधे ऊपर की तरफ बढ़ने वाले होते हैं। अत: निचली सतह से बहुत कम शाख निकलती हैं, जिससे भेंट कलम बंधन अधिक सफल नहीं हैं। हाल के वर्षो में आँवले के प्रवर्धन हेतु कई कायिक विधियों का मानकीकरण किया गया है। अब इसका सफल प्रवर्धन पैबंदी चश्मा, विरूपित छल्ला विधि, विनियर कलम एवं कोमल शाखा बंधन द्वारा सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
बीज निकालना
उत्तर भारत में बीज निकालने हेतु चकैइया या देशी किस्मों के फलों को जनवरी या फरवरी माह में एकत्र कर लेते हैं। फलों को धूप में सूखा लिया जाता है। पूरी तरह से सूखने के बाद फल अपने आप फट जाते हैं और उनके अंतर से बीज बाहर आ जाते हैं। यदि बीज अपे आप फल से नहीं निकल रहें हों तो हल्का सा दबाव दिया जा सकता है। एक फल से प्राय: छह बीज प्राप्त होते हैं। लगभग एक क्विंटल फल से एक किलोग्राम बीज प्राप्त होता है।
बीज का जमना
बीज को बोने से 12 घंटे पहले पानी में भिगो देना चाहिए। जो बीज पानी में तैरने लगे उन बीजों को फेंक देना चाहिए। मार्च-अप्रैल के महीने में बीजों को जमीन की सतह से थोड़ी उठी हुई क्यारियों में बोना चाहिए। पाली हाउस में बीजों को जल्दी (फरवरी माह में) भी बोया जा सकता है। देर (मई एवं जून माह में) से बोये गये बीजों से उत्पन्न पौधे कलिकायन हेतु उपयुक्त होते हैं। मार्च-अप्रैल में बोये गये बीजों का जमाव करीब दो सप्ताह में हो जाता है तथा बुवाई के बाद 10 से.मी. ऊँची पौध करीब 35-40 दिनों में तैयार हो जाती है। इस प्रकार की पौध को खोद कर तीन दिनों तक छाया में रख कर पुन: लगाने से अधिकांश पौधे स्थापित हो जाते हैं।
कलिकायन
छह मास से एक वर्ष तक की पौध (मूलवृंत) कलिकायन के लिए उपयुक्त होती हैं। शाँकुर शाखा का चुनाव ऐसे मातृवृक्ष से करना चाहिए जो अधिक फलत देने वाला हो तथा कीड़ों एवं व्याधियों के प्रकोप से मुक्त हो। उत्तर भारतीय दशाओं में पैबंदी चश्मा तथा विरूपित छल्ला विधि से मई से सितम्बर माह तक चश्मा करने से 60 से 90 प्रतिशत तक सफलता प्राप्त होती है, जबकि दक्षिण भारतीय दशाओं में ग्रीन हाउस एवं नेट हाउस की सहायता से आँवले का प्रवर्धन साल के आठ से दस माह तक किया जा रहा है। कलिकायन के अतिरिक्त आँवला का प्रवर्धन विनियर कलम, कोमल शाखा बंधन के द्वारा 70 प्रतिशत सफलता के साथ किया जा सकता है, लेकिन कलिकायन की सफलता एवं क्षमता को देखते हुए आँवला प्रवर्धन हेतु यह विधि सर्वोत्तम पायी गयी है।
आँवले के प्रवर्धन के लिए पालीथीन के थैले, पाली ट्यूब्स, रूट ट्रेनर या स्व-स्थाने बाग स्थापन (मूल रूप से सूखा ग्रस्त क्षेत्र हेतु) आदि विधियों का भी मानकीकरण किया गया है, परन्तु उनके व्यापक प्रसार की आवश्यकता है। आँवले की शाँकुल शाखों को भीगी हुई मॉस घास या अखदार के टुकड़ों में लपेट कर 5-7 दिनों तक परिवहन/भंडारण किया जा सकता है।
पौध रोपण
कलम बंधन या कलिकायन के द्वारा तैयार पौधों को जुलाई-अगस्त या फरवरी के महीने में 8-10 मीटर की दूरी पर रोपाई करते हैं। पौधों की रोपाई वर्गाकार विधि से करते हैं, जिसमें पौधों से पौधों एवं पंक्ति से पंक्ति की दूरी बराबर रखी जाती है। प्रत्येक पौधों के वर्ग के बीच में एक अन्य पौधा भी लगाया जा सकता है। इस विधि को पूरक विधि या क्विनकन्स भी कहते है। इससे बागवान अधिक लाभ के अलावा खाली पड़े क्षेत्र का भी सही उपयोग कर सकते है। इस विधि हेतु अन्य फलों में बेर, अमरुद, नींबू, करौंदा एवं सहजन को पूरक पौधों के रूप में लगाना काफी अच्छा साबित हुआ है। कई स्थानों का पौधा रोपण झाड़ीनुमा पंक्ति में भी किया गया है। इस विधि में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 8 मीटर एवं पौधों से पौधों की दूरी घटा कर 4-5 मीटर तक रखते हैं। परती (खाली) भूमि में पौध रोपण से दो मास पूर्व एक घन मीटर का गड्ढा खोद लेते हैं। गड्ढे से निकली मिट्टी को दो भागों में बाँट देते हैं। ऊपरी आधे भाग को एक जगह तथा निचली आधी मिट्टी को दूसरी जगह रख देते हैं। ऊपरी आधी मिट्टी में तीन से चार टोकरी (25-40 किलोग्राम) सड़ी गोबर की खाद एवं एक किलोग्राम नीम की खली या 500 ग्राम हड्डी का चूरा मिला मिश्रण कर लेते हैं। इस प्रकार से तैयार मिश्रण को गड्ढे में इस प्रकार भरते हैं कि भरा हुआ गड्ढा 6 से 10 सें.मी. सतह से उठा रहे। क्षारीय मृदाओं में यदि पौध रोपण करना है तो उपरोक्त मिश्रण में जिप्सम आवश्यकतानुसार 5 से 8 किलोग्राम या पाइराइट या ऊसर तोड़ खाद एवं 20 किलोग्राम बालू मिला कर गड्ढे की भराई करनी चाहिए। यदि वर्षा न हो तो इस प्रकार से भरे गड्ढों के मध्य में कलमी पौधों को पिण्डी के साथ रोपित कर देना चाहिए एवं चारों तरफ की मिट्टी को अच्छी तरह से दबा देना चाहिए। तत्पश्चात, हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। ऊसर भूमि का रेखांकन करके बीजू पौधों को सीधा लगाना चाहिए तथा उपयुक्त आयु आने पर एक निश्चित ऊँचाई पर इन पर चश्मा चढ़ा देना चाहिए। इस विधि को स्व-स्थाने कलिकायन भी कहते हैं। आँवले की विभिन्न किस्मों में स्व-बन्ध्यता पायी जाती है। अत: अधिक उत्पादन हेतु एकान्तर पंक्ति में दो किस्मों को लगाना चाहिए। इसके लिए सबसे उत्तम संयोग एन ए-6 एवं ए-7 एवं एन ए-10 या कंचन एवं कृष्णा को पाया गया है।
संधायी एवं छंटाई
आँवले के पौधों को मध्यम ऊँचाई तक विकसित करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। नये पौधों को जमीन की सतह से लगभग 75 सें.मी. से एक मीटर तक अकेले बढ़ने देना चाहिए। तदुपरान्त शाखाओं को निकलने देना चाहिए जिससे पौधों के ढाँचे का भली प्रकार से विकास हो सके। पौधों को रूपांतरित प्ररोह प्रणाली के अनुसार साधना चाहिए। शुरू में अधिक कोण वाली दो से चार शाखाएं विपरीत दिशाओं में निकलने देना चाहिए। अनावश्यक शाखाओं को शुरू में निरंतर हटाते रहना चाहिए। इसके बाद चार से छह शाखाओं को चारों दिशाओं में बढ़ने देना चाहिए।आँवले के फलत वाले वृक्षों में नियमित काट-छांट की आवश्यकता नहीं होती है। आँवला अपने वृद्धि के अनुसार सारे सीमित प्ररोहों को गिरा देता है जो अगले साल की वृद्धि को प्रोत्साहित करते हैं। कमजोर, सूखी, रोग ग्रस्त, टूटी हुई, आपस में मिली हुई शाखाओं एवं मृलवृत्त से निकली हुई कलिकाओं को समय-समय पर निकालते रहना चाहिये।
शिखा रोपण
पुराने, बड़े, कम अच्छी किस्मों के पौधों (जैसे पुरानी किस्में बनारसी, फ्रांसिस एवं देशी) का शिखा रोपण द्वारा जीर्णोद्वार या नयी किस्मों में परिवर्तन किया जा सकता है। इस प्रकार के पौधों को जमीन की सतह से 3-4 मीटर की ऊँचाई पर (दिसम्बर-जनवरी माह में) इस प्रकार से काटते हैं कि चारों दिशाओं में 4-6 मुख्य शाखाएं कटी हुई रहें। इन कटे भागों पर वृक्ष लेप (गाय का गोबर + मिट्टी+पानी) या काली गाय के गोबर का लेप लगा देते हैं, जिससे इन भागों में फफूंदी का प्रकोप न होने पाये। इस प्रकार से कटी हुई मुख्य शाखाओं से 4 से 6 प्ररोह जो कि बाहर की तरु निकल रहे हों, को बढ़ने दिया जाता है। जून-जुलाई माह में इन्हीं प्ररोहों पर उन्नत किस्म की शांकुर शाखा से कलिकायन कर दिया जाता है। इसके उपरांत जब कलिका फुटाव ले लेती है तब प्ररोह को शीर्ष भाग को फुटाव वाली कलिका के ऊपर से काट दिया जाता है। इस प्रकार के पौधों में कीड़े, व्याधियों एवं तेज हवा से नुकसान की अधिक सम्भावनाएँ पायी जाती हैं। अत: पूर्ण सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
गोबर की खाद की सम्पूर्ण मात्रा, नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा जनवरी-फरवरी माह में फूल आने से पहले डाल देनी चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा जुलाई-अगस्त के महीने में डालनी चाहिए। गोबर की खाद एवं अन्य खादों के मिश्रण को पेड़ की छाया के बराबर बने थालों में फैला कर हल्की गुड़ाई एवं सिंचाई कर देनी चाहिए। क्षारीय मृदाओं में उपरोक्त खाद के मिश्रण के अतिरिक्त 100 ग्राम बोरेक्स (सुहागा), जिंक सल्फेट एवं कॉपर सल्फेट (100 ग्राम प्रत्येक का) प्रति पेड़ पौधों की आयु एवं ओज का ध्यान में रखते हुए डालना चाहिए। इसके अलावा सूक्ष्म तत्वों, जैसे बोरान, जिंक, कॉपर (0.4 प्रतिशत) का पर्णीय छिड़काव बुझे हुए चुने के साथ मिला कर करने से फलों का गिरना कम हो जाता है तथा फलों की गुणवत्ता में सुधार होता है।
आँवले का जैविक उत्पादन
ज्यादातर आँवले के फलों का उपयोग स्वास्थ्य सुधार एवं औषधीय गुणों के लिए किया जाता है। अत: इसका जैविक उत्पादन बड़ा महत्वपूर्ण है। इस प्रकार से उत्पादित आँवले से तैयार उत्पाद अधिक गुणवत्तायुक्त होने के कारण घरेलू एवं विदेशी बाजार में अधिक सराहे जाते हैं। आँवले के जैविक उत्पादन की दिशा में किये गये प्रारम्भिक कार्य में काफी अच्छी सफलता प्राप्त हुई है। कई प्रयोग करने के पश्चात ऐसा पाया गया है कि एक छिड़काव बी.डी.-500 का तथा 1.0 कि.ग्रा. केंचुएँ की खाद एवं 100 ग्रा. काऊ पैट पिट प्रति पौधों के थालों में एवं केले की पत्ती एवं धान के पुवाल से पलवार करने से काफी अच्छी सफलता प्राप्त हुई है। बी.डी. पेस्टीसाइड (बी.डी. 501) के द्वारा कीड़ों एवं बीमारियों को भी सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है।
सिंचाई
आँवले का पौधा काफी सहिष्णु होता है। अत: इसको सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है। एक पूर्ण विकसित आँवले के बाग़ में ज्यादातर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। प्राय: वर्षा आधारित जल से ही सिंचाई की आवश्यकता पूरी हो जाती है, यदि बाग़ सही किस्म की भूमि में स्थापित हो। वर्षा एवं शरद ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है, परन्तु ग्रीष्म ऋतु में नये स्थापित बागों में 10-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। सिंचाई के लिए खारे पानी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। फल देने वाले बागानों में पहली सिंचाई खाद देने के तुरन्त बाद जनवरी-फरवरी में देनी चाहिए। फूल आने के समय (मध्य मार्च से मध्य अप्रैल तक) सिंचाई नहीं करनी चाहिए।
अवरोध परत
आँवले के बाग़ स्थापन में जैविक पदार्थो द्वारा अवरोध पर्त् करने से अच्छे परिणाम मिले हैं। विभिन्न प्रकार के पदार्थो, जैसे पुवाल, केले के पत्ते, ईख की पत्ती एवं गोबर की खाद से मल्विंग करने पर अच्छी सफलता प्राप्त हुई है। जैविक पदार्थ से कई वर्षो तक मल्चिंग करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है, जड़ों का तापमान नियंत्रित रहता है, जैविक पदार्थ सड़ कर भूमि की उर्वराशक्ति तथा जल धारण करने की क्षमता को बढ़ाते हैं। इसके अतिरिक्त ये हानिकारक लवणों को जमीन की सतह पर आने से भी रोकता है। इस प्रकार, यह ऊसर भूमि में हानिकारक लवणों के प्रभाव को कम करते हैं, साथ ही मल्चिंग करने से पौधों की जड़ों के पास केंचुओं एवं लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या में वृद्धि भी होती है।
सहफसलें या आँवला आधारित खेती की विधियाँ
फलदार वृक्षों का, काफी समय उपरांत, फलत में आना एक प्रमुख समस्या है। इसकी वजह से किसान अधिक क्षेत्र में फलों का रोपण नहीं कर पाते हैं। आँवला गहरी जड़ों वाला एवं छितरी पत्तियों वाला एक पर्णपाती वृक्ष है। साल के तीन-चार माह में पेड़ पर पत्तियाँ नहीं रहती हैं तथा शेष माह में छितरी पत्तियाँ होने के कारण भूमि पर पर्याप्त मात्र में सूर्य का प्रकाश उपलब्ध रहता है। परिणामत: इसके साथ सहफसली खेती को अनेक सम्भावनायें हैं। फलों में अमरुद रहता है। परिणामत: इसके साथ सहफसली खेती की अनेक सम्भावनायें हैं। फलों में अमरुद, करौंदा, सहजन एवं बेर, सब्जियों में लौकी, भिण्डी, फूलगोभी, धनिया, फूलों में ग्लैडियोलस एवं गेंदा एवं अन्य औषधि एवं सुगंधित पौधों, आँवले के साथ सहफसली खेती के रूप में काफी उपयुक्त पाये गये हैं। कुछ सह फसली खेती के नमूना निम्नवत हैं:
आँवला + बेर + मोठ या मूंग
आँवला + अमरुद + उरद या वर्षाश्रित धान्य फसलें
आँवला + बेर + फालसा (तीन पंक्ति खेती)
आँवला + ढ़ैचा + गेहूँ या जौ
आँवला + ढ़ैचा + प्याज/लहसुन + मेथी या बैंगन
आँवला + ढ़ैचा + जर्मन चमोमिल
इसके अलावा तुलसी, कालमेघ, सतावर, सर्पगंधा एवं अश्वगंधा की सह फसली खेती के भी अच्छे नतीजे प्राप्त हुए हैं। कुछ फसलें, जैसे धान एवं बरसीम, जिनको अत्याधिक पानी की आवश्यकता होती है, आँवला के साथ सह फसली खेती के रूप में बढ़ावा नहीं देना चाहिए। ऊसर या कम उपजाऊ जमीन में कुछ सालों तक ढ़ैचा की सह फसली खेती करना काफी लाभप्रद साबित हुआ है। इससे भूमि की भौतिक एवं रसायनिक गुणवत्ता में काफी सुधार होता है।
पुष्पन एवं फल वृद्धि
आँवले में फूल सीमित शाखाओं पर जो कि असीमित शाखाओं की गाँठ से निकलती हैं, बसंत ऋतु में आते हैं। फूलों का खिलना मार्च के अंतिम सप्ताह से शुरू होता है तथा तीन सप्ताह तक चलता है। बीजू किस्मों में पुष्पन की क्रिया पहले प्रारम्भ होती है, जबकि व्यवसायिक किस्मों में पुष्पन बाद में होता हैं। दक्षिण भारत में पुष्पन साल में दो बार होता है। पहली बार फरवरी-मार्च में और दूसरी बार जून-जुलाई में। पहली बार वाले पुष्प अच्छी फलत देते हैं परन्तु दूसरी बार के पुष्प कम फलत देते हैं। सीमित शाखाओं के निचले भाग पर पत्तियों के अक्ष से नर पुष्प गुच्छों में निकलते हैं और बाद में मादा पुष्प इन्हीं शाखाओं पर निकलते है। सीमित शाखाओं के अर्थ दूरस्थ भाग पर साधारणत: पत्तियाँ निकलती हैं। पुष्पक्रम असीमाक्षी प्रकार के होते हैं। फूल छोटे एक लिंगाश्रयी एवं छोटे वृत्तक से जुड़े होते हैं। नर पुष्प गुच्छों में पहले प्रकट होते हैं। परिदलपुंज 6, पीले हरे रंग से लेकर गहरे गुलाबी रंग के होते है एवं फलों की पंखुड़िया कार्स्पशी रूप में जुड़ी होती हैं। पुमंग में तीन पुंकेसर होते हैं। तंतु का जुड़ाव नीचे से होता है एवं परागकोष युक्त कोशी होते हैं। उनमें 5-7 भाग होते हैं, लेकिन सामान्यत: 6 भाग पाये जाते हैं। अंडाशय जायांगधार मणिबंधिका 3-4 तीन कक्षीय, बीजांडन्यस कक्षीय एवं दो बीजांड प्रतिकोष्ठक में पाये जाते हैं। आँवला एक पर-परागित में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आँवले की किस्मों में स्व-अनिशेच्यता पायी जाती है। अत: एक से अधिक किस्मों को साथ-साथ रोपित करना चाहिए। निषेचन के तुरन्त बाद जो परागण के 36 घंटे बाद होता है, युग्मनज 120 से 130 दिनों तक एवं भ्रूणपोष नाभि में विभाजन के साथ फलों की सुसुप्तावस्था समाप्त हो जाती है। फलों में सर्वाधिक वृद्धि सितम्बर माह में होती है तथा उत्तर भारतीय दशाओं में फल नवम्बर तक परिपक्व हो जाते हैं।
आँवले का फल कैप्सूल अंडाकार गोल से लेकर चपटे गोल आकृति के, रंग सफेद हरा छिलका चिकना से खुरदुरा, अर्धपारदर्शी, 6-8 खण्डों में विभाजित एवं फलों की सतह चिकनी या हल्की उठी हुई होती है। फल की गुठली कड़ी, गोल से लेकर त्रिकोणीय आकार की होती है। बीज की बाहरी भित्ति कड़ी, बीज 6-8 हल्के भूरे रंग से लेकर गहरे भूरे रंग के होते है।
पौध संरक्षणआँवले के रोग
आँवले की खेती सम्पूर्ण भारतवर्ष में की जाती है। यह एक ऐसी फसल है। जिसमें रोगों का प्रकोप कम होता है किन्तु आँवले के कुछ रोग महत्वपूर्ण है तथा आँवले की फसल के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। आँवले का रस्ट रोग राजस्थान में ख़ासतौर पर अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे फल तथा पत्तियाँ ग्रसित होती है तथा अत्यंत हानि होती है। अन्य प्रमुख रोग हैं आँवले की विभिन्न प्रकार की फलों की सड़न। चूँकि आँवले के फल शीध्र खराब हो जाते हैं अत: फलों पर साधारण सी भी चोट भंडारण तथा परिवहन के दौरान फलों को नुकसान पहुंचाती है। आँवले के कुछ रोगों का विवरण निम्नवत है:
रस्ट (रेवेलिया इम्बलिकी)
आँवले का रस्ट रोग आँवले की एक महत्वपूर्ण समस्या है। खासतौर से राजस्थान के उदयपुर जिले में यह अत्यंत गंभीर है। हाल में लखनऊ तथा प्रतापगढ़ क्षेत्र में आँवले की देसी किस्मों में फलों तथा पत्तियों पर इस रोग को पाया गया।
फलों पर आरंभ में काले छोटे उभार दिखाई देते हैं जो बाद में एक दूसरे से मिल कर घेरे के रूप में विकसित हो जाते हैं। धब्बे एक दूसरे से जुड़ कर फल का काफी क्षेत्र घेर लेते हैं। इन धब्बों के ऊपर कागजनुमा चमकीली झिल्ली दिखाई देती है। यह बाद में फट जाती हैं। जिससे काले बीजाणु बाहर बिखर जाते हैं। फल खराब दिखते हैं तथा बाजार में इनकी कीमत नहीं मिलता है। पत्तियों पर आरम्भ में गुलाबी भूरे छोटे-छोटे उभार नजर आते हैं जो अलग-अलग या समूह में विकसित होते हैं। बाद में इसका रंग गहरा भूरा हो जाता है। ऐसा समझा जाता है कि रोग फल से पत्तियों पर तथा पत्तियों से फल पर नहीं जाता है। फफूंदी रेवेनेलिया इम्बलिकी के टीलियोस्पोर फल तथा पत्तियों पर रोग पैदा करते हैं। घुलनशील गंधक (0.4:) या क्लोरथैलोनिल (0.2:) का तीन छिड़काव एक माह के अंतराल पर जुलाई से करने पर रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
उकठा (विल्ट)
हाल में आँवले के पौधों के सूखने की समस्या राजस्थान में देखी गई। राजस्थान में काफी संख्या में आँवले के पौधों में छालों का फटना, पत्तियों का झड़ा तथा पौधों के सूखने की समस्या देखी गई है। पेड़ के सूखने की समस्या ऐसे तो मुख्य रूप से पाले के कारण समझी जा रही है किन्तु ऐसे पौधों में “युजेरियम जाति की फफूंद भी संबंधित पाई गई है। नियंत्रण के लिए –
पाले के समय छोटे पौधों को ढकना चाहिए तथा सिंचाई की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे पाले का असर न हो।
थालों में घास-फूस या काली पालीथीन बिछाने तथा तने पर गाय के गोबर का लेप लगाने से रोग में कमी पाई गई। चूँकि पाले से रोग बढ़ता है, अत: पौधों को पाले से बचाने की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए।
काली फफूंद
ऐसे आँवले के पौधों जिनमें स्केल कीट का प्रकोप होता है उनमें काली फफूंद का भी प्रकोप होता है। आँवले की काली फफूंदी रोग में कई प्रकार की फफूंदी देखी गई है। काली फफूंद रोग (सूटी मोल्ड) में पत्तियों टहनियों तथा फूलों पर मखमली काली फफूंदी विकसित होती है। जो कीट द्वारा चिपचिपे पदार्थ के ऊपर विकसित होती है। यह फफूंदी सतह तक ही सीमित रहती है तथा पत्तियों टहनियों, फूल आदि में अंदर इसका प्रकोप नहीं होता है। काली फफूंद के प्रकोप को 2 प्रतिशत स्टार्च के छिड़काव के द्वारा रोका जा सकता है। यदि प्रकोप अधिक हो तो स्टार्च में 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफ़ॉस तथा 0.2 प्रतिशत घुलनशील गंधक मिला कर छिड़काव करना चाहिए।
नीली फफूंद (पेनीसीलीयम सिट्रिनम)
सर्वप्रथम आँवले की नीली फफूंदी को वाराणसी में देखा गया किन्तु यह रोग आँवले का एक ऐसा रोग है जो सभी आँवला उगाने वाले क्षेत्रों में आम है। आरम्भ में फलों पर भूरे जलसिक्त धब्बे बनते हैं। रोग के बढ़ने फलों पर फफूंद के तीन प्रकार के रंग एक के बाद एक दिखाई देते हैं। पहले चमकीला पीला रंग फिर भूरा रंग तथा अंत में हरा नीला रंग विकसित होता है जो सतह पर उभरती फफूंद के कारण होता है। फल की सतह पर पीली बूंदें भी दिखाई देती है। फलों से बुरी बदबू निकलती है। पूरा फल बाद में दानेदार नीली हरी फफूंद से ढका नजर आता है। प्रबंधन के लिए
फलों की तुड़ाई अत्यंत सावधानीपूर्वक करनी चाहिए जिससे उसमें किसी प्रकार की चोट न लगे। चोट लगने से फलों पर नीली फफूंद का प्रकोप होने की संभावना रहती है।
भंडारण में साफ़-सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिए तथा भण्डारण स्थल को ओजोन गैस से शोधित करना चाहिए।
फलों को बोरेक्स या नमक से उपचारित करने से रोग का रोका जा सकता है।
फलों को कोर्बोन्डाजिम या थायोफनेट मिथाइल 0.1 प्रतिशत से उपचारित करके भी रोग नियंत्रित किया जा सकता है।
फलों के ऊपर मेंथा के तेल के हल्के लेप से भी रोग को रोका जा सकता है।
एन्थ्रेकनोज (कालिटोट्राइकम ग्लीयोस्पोराइडिस या ग्लोमेरेला सिंगूलाटा)
एन्थ्रेकनोज, आँवले की पत्तियों व फलों पर अगस्त-सितम्बर माह में दिखाई देता है। सर्वप्रथम इसे उदयपुर में देखा गया। पत्तियों पर पहले छोटे, गोल, भूरे, पीले किनारों वाली धब्बे नजर आते हैं। धब्बों का मध्य भाग हल्का भूरा तथा काले पिन के सिरे से उभार सहित दिखाई देता है। फलों पर धंसे हुए भूरे धब्बे बनते हैं, जिनके मध्य में पिन के सिरे से गोलाई में गहरे काले उभार दिखाई देते हैं। धब्बे विभिन्न आकार एवं साइज़ के बनते हैं। अधिक नमी होने पर धब्बे से बीजाणु अधिक मात्रा में निकलते हैं, साथ ही फल सिकुड़े से नजर आते हैं और फिर सड़ जाते हैं।
मृदु सड़न (फोमोप्सिस फाइलेन्थाई)
आँवले की मृदु सड़न दिसम्बर से फरवरी के मध्य अधिक देखी जा सकती है। धुएं से भूरे काले, गोल धब्बे फलों पर 2-3 दिनों में विकसित होते हैं। संक्रमित भाग पर जलसिक्त भूरे रंग का धब्बा बनाता है, जो पूरे फल को करीब 8 दिनों में आच्छादित कर फल के आकार को विकृत कर देता है। ऐसे तो रोग छोटे तथा परिपक्व फल, दोनों को प्रभावित करता है, किन्तु परिपक्व फलों में इसका प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के बढ़ने के लिए फलों में इसका प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के बढ़ने के लिए फलों में चोट आवश्यक होती है। तुड़ाई उपरांत फलों को डाइफोलेटान (0.15 प्रतिशत), डाइथेन एम-45 या बैवेस्टीन (0.1 प्रतिशत) से उपचारित करके भंडारित करने से रोग की रोक थाम की जा सकती है।
फल सड़न (पेस्टेलोशिया क्रुएंटा)
यह रोग नवम्बर माह में आमतौर पर देखा जाता है। इस रोग में धब्बे अधिकतर अनियमिताकार तथा भूरे रंग के होते हैं। आरम्भ में भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जो धीरे-धीरे बढ़ते हैं। बाद में ये धब्बे सूखे भूरे हो जाते है जिनके किनारे हल्के भूरे होते हैं तथा ग्रसित भाग पर रुई की तरह सफेद फफूंद दिखाई देती है। संक्रामित फल का अंदर का हिस्सा सूखा, गहरा भूरा नजर आता है।
फल सड़न (अल्टरनेरिया अल्टरनेटा)
गिरे हुए फलों में अल्टरनेरिया अल्टरनेटा द्वारा सड़न पैदा होती है। फल सड़न को रोकने के सामान्य तरीकों में
फल तोड़ने के 15 दिनों पूर्व 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम का छिड़काव करना चाहिए।
फल तुड़ाई पूरी सावधानी से करनी चाहिए, जिससे फलों में किसी प्रकार का चोट न लगे।
फलों को स्वच्छ पात्रों में भंडारित करना चाहिए।
फलों के भंडारण तथा परिवहन के समय पूर्ण स्वच्छता बरतनी चाहिए।
भंडारण स्थान स्वच्छ होना चाहिए तथा उसे ओजोन से उपचारित किया जाना चाहिए।
फलों का उपचार बोरेक्स या नमक से करना चाहिए जिससे रोग का प्रकोप न हो।
आँवले के विकार
आंतरिक सड़न
आंतरिक सड़न आँवले के फलों में देखी गयी है। आँवले की प्रजाति फ्रांसिस में यह रोग सबसे अधिक होता है। बनारसी प्रजाति में भी इसका प्रकोप पाया गया है। जब अंत: उतक कड़ी लगती है तब यह सबसे पहले अंदर की ओर से भूरा होना आरम्भ करती है। बाद में मध्य उत्तक तथा अंत में बाहरी भूरी काली नजर आती है। आमतौर पर सितम्बर के दूसरे तथा तीसरे सप्ताह में यह दिखाई देती है। रोग के बढ़ने पर ये भाग कार्कनुमा कड़ा हो जाता है तथा रिक्त स्थान बनते हैं, जो गोंद से भरे होते हैं। चकइया, एन.ए.-6 तथा एन.ए.-7 में यह रोग नहीं देखा गया है। अत: इन प्रजातियों को लगाने हेतु बढ़ावा देना चाहिए। प्रबंधन के लिए जिंक सल्फेट (0.4%) कॉपर सल्फेट (0.4%) तथा बोरेक्स (0.4%) का छिड़काव सितम्बर-अक्टूबर माह में करना लाभप्रद होता है।
आँवले के नाशीकीट
छालभक्षी कीट (इन्डरबेला टेट्राओनिस)
यह कीट पूरे देश में पाया जाता है और बहुत से फल, फूलों वाले एवं वन वृक्षों को क्षति पहुँचाता है। आँवले के बागों में यह सामान्यत: पाया जाता है। साधारणत: जिन बागों की ठीक से देख-भाल नहीं होती, उनमें इस कीट का प्रकोप अधिक होता है। कीट का प्रकोप अप्रैल महीने से माथ निकलने के साथ प्रारम्भ होता है। इसके लार्वे प्ररोहों, शाखाओं एवं मुख्य तने की छाल को खाते एवं उनमें छेद करते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पेड़ों की वृद्धि रुक जाती है एवं पुष्पन और फलत प्रभावित होती है।
इसके प्रकोप की पहचान लार्वे द्वारा प्ररोहों, शाखाओं एवं तनों पर बनायी गयी अनियमित सुरंगों से होता है, जो रेशमी जालों, जिसमें चबायी हुई छाल के टुकड़े और इनके मल सम्मिलित होते हैं, से ढकी होती है। इनके आवासीय छिद्र विशेष कर प्ररोहों एवं शाखाओं के जोड़ पर देखे जा सकते हैं। प्ररोह सूख कर मर जाते हैं, जिससे पेड़ बीमार सा दिखता है। प्रबंधन के लिए
बाग़ को साफ़-सुथरा और स्वस्थ रखना चाहिए।
समय-समय पर बागों में जाकर नये सूखे प्ररोहों की जाँच करनी चाहिए ताकि समय रहते ही इस कीट का पता लग जाए।
प्रकोप के शुरुआत में ही, आवासीय छिद्रों को साफ़ कर, उनमें तार डाल कर लार्वे को नष्ट कर देना चाहिए।
अधिक प्रकोप होने पर सुरंगों एवं आवासीय छिद्रों को साफ़ कर रुई के फाये को 0.025 प्रतिशत डाइक्लोरवाँल के घोल में भिगो कर छिद्रों में रख कर, गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए।
इसके लार्वे बेवेरिया बैसिआना नामक फफूंद से प्राकृतिक रूप से ग्रासित होते हैं। इसका प्रयोग जैविक नियंत्रण के लिए किया जा सकता है।
प्ररोह पिटिका या शूट गाल बनाने वाला कीट (बेटूसा स्टाइलोफोरा)
इस कीट का प्रकोप नर्सरी के पौधों एवं पुराने फलदार वृक्षों में अधिक होता है। यह कीट जून से दिसम्बर माह तक क्रियाशील रहता है। इस कीट के लार्वे बढ़ते हुए तनों, प्ररोहों के आगे भाग में सुरंग बनाते है और यह भाग फूल का गॉल (पिटिका) आकार ले लेता है। जब लार्वा इसके अंदर क्रियाशील रहता है तो इसके एक सिरे से लाल रंग का बुरादा सा निकलता दिखाई पड़ता है। नयी पिटिका जून से अगस्त के दौरान बनती हैं। पूर्ण विकसित पिटिका या गॉल 2.3 से 2.5 से.मी. लम्बी एवं 1 से 1.5 सें.मी. चौड़ी होती है। गर्मी के मौसम के शुरुआत में यह लार्वा बाहर आ जाता है और पर्णकों (लीफलेट) के बीच प्यूपा में परिवर्तित हो जाता है। यह कीड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका गम्भीर प्रकोप होने पर पेड़ की वृद्धि रुक जाती है, जिससे पुष्पन और फलत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बचाव के दृष्टि से पेड़ बहुत घने नहीं होने चाहिए। गॉल वाले प्ररोहों काट कर कीड़ों सहित नष्ट कर देना चाहिए। जिन बागों में इसका प्रकोप लगातार होता रहा है उसमें 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफ़ॉस कीटनाशी का छिड़काव मौसम के शुरुआत में करें। यदि आवश्यकता हो तो दूसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद करें।
अनार तितली (ड्यूडोरिक्स (वाइरेकोला) आइसोक्रेट्स)
यह अनार का प्रमुख कीट है, किन्तु आँवले और अन्य दूसरे फलों को भी हानि पहुँचाता है। इस कीट का प्रकोप सितम्बर-अक्टूबर माह में फलों के मौसम में होता है। बैंगनी-भूरी सी मादा तितली एक-एक करके छोटे, चमकदार, सफेद अंडे फलों पर देती है। इनमें से लार्वे निकल कर फल को छेद कर अंदर चले जाते हैं एवं गुठली वाले भाग को खाकर, खोखला कर देते हैं। यह मजबूत शरीर वाला, छोटे बालों से ढका, चपटा, लगभग 2 सें.मी. तक लम्बा होता है। यह फल के अंदर ही या बाहर आ कर प्यूपा में परिवर्तित हो जाता है। कैटरपिलर के अंदर घसने एवं बाहर आने वाले छिद्रों के द्वारा अन्य विभिन्न जीवाणुओं का भी फल पर प्रकोप हो जाता है। आमतौर पर कीट द्वारा ग्रसित फल कैटरपिलर के अंदर जाने वाले छिद्रों के पास विकृत हो जाते है, और ऐसे फल कमजोर होकर सड़ जाते हैं, तथा पकने से पहले ही गिर जाते है। ग्रसित फलों में छेद से बुरादा निकलता हुआ भी दिखाई पड़ता है। अधिक प्रकोप होने पर फलों को काफी हानि हो सकती है। प्रबंधन के लिए
आँवला के बाग़ के साथ, अनार का बाग़ नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि यह इन फलों का मुख्य नाशीकीट है।
ग्रसित फलों तथा जमीन पर गिरे हुए सभी फलों को एकत्र कर, कीड़ों सहित नष्ट कर देना चाहिए ताकि इनके प्रकोप दुबारा होने से रोका जा सके।
इस कीट की रोकथाम के लिए 0.2 प्रतिशत कार्बेरिल या 0.04 प्रतिशत मोनोक्रोटाफ़ॉस कीटनाशी का छिड़काव फल के मटर के दाने के बराबर होने की अवस्था में करना चाहिए। दूसरा छिड़काव प्रकोप की तीव्रता पर निर्भर करता है, जिसे 15 दिनों के अंतराल पर किया जा सकता है।
मिली बग या चूर्णी बग (नाइलीकॉकस वाइरीडिस)
इनका प्रकोप मार्च से जुलाई के मध्य होता है और अप्रैल-मई में इनकी संख्या अधिक होती है। मादा अंडाकार होती हैं और निम्फ के बीच में आसानी से पहचानी जा सकती है। एक मादा सैकड़ों की तादाद में अंडे देती हैं। निम्फ पत्तियों, प्ररोहों एवं पुष्प मंजरियों पर स्थापित हो जाते हैं और इनका रस चूसते है। निम्फ 15-20 दिनों में वयस्क हो जाते हैं। अधिक रस चूस जाने के कारण पत्तियाँ और फूल सूख-सूख कर गिर जाते हैं। इसका प्रभाव पेड़ की बढ़वार, पुष्पन और फलत पर पड़ता है। ग्रसित नये प्ररोह झुके, मुड़े हुए से प्रतीत होते हैं एवं पत्तियाँ पीली पद जाती है। अधिक प्रकोप होने पर टहनियाँ पत्ती रहित होकर सूखने लगती हैं। इसके द्वारा काफी मात्रा में विसर्जित मधु भी देखा जा सकता है। इससे फूल सूख कर गिर जाते हैं। नियंत्रण के लिए
1.  बाग़ को साफ़-सुथरा और स्वस्थ रखना चाहिए।
2.  प्रभावित पत्तियों एवं प्ररोहों को शुरुआत में ही काट कर कीड़ों सहित नष्ट कर देना चाहिए जिससे वे आगे और फैलने न पायें।
3.  अधिक प्रकोप होने पर 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफ़ॉस या 0.05 प्रतिशत क्वीनलफ़ॉस का छिड़काव करना चाहिए।
आँवला एफिड (सरसीएफ्सी एम्बलिका)
इन कीटों का प्रकोप जुलाई से अक्टूबर तक रहता है तथा सितम्बर माह में प्रकोप सबसे अधिक होता है। इनका प्रकोप पेड़ों में नयें प्ररोहों के अग्रभाग पर होता है। निम्फ एवं वयस्क दोनों रस चूस कर क्षति पहुँचाते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पेड़ की (वृद्धि) पर प्रतिकूल असर पड़ता है जो अंतत: पुष्पन एवं फलत को प्रभावित करता है। प्रभावित पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और सूख कर गिरने लगती हैं। प्रभावित प्ररोह के अग्रभाग झुके और मुड़े हुए से प्रतीत होते हैं। चीटियों की मौजूदगी से भी इस कीट के प्रकोप होने की पहचान होती है इसके नियंत्रण के लिए प्रकोप के शुरुआत में ही प्रभावित पत्तियों एवं प्ररोहों को काट कर कीड़ों सहित नष्ट करना चाहिए। अधिक प्रकोप होने पर 0.06 प्रतिशत मोनोक्रोटोफ़ॉस कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए।
गुठली भेदक (करक्यूलिओ जाति)
यह कीट जून से जनवरी माह तक क्रियाशील रहता है। इस कीट का वयस्क एक छोटा सा घुन होता है, जो जून माह में बरसात शुरू होने पर जमीन के अंदर से बाहर आता है। घुन का निकलना जुलाई-अगस्त में जारी रहता है जो आँवले के फल लगने से मेल खाता है। अंडे फल में एक छोटा सा गड्ढा बना कर वाह्य सतह से नीचे दिए जाते हैं। अंडे देने के लिए 1.5 सें.मी.से 2 सें.मी. व्यास के फल पसंद किए जाते हैं। इसका लार्वा निकलने के बाद गूदे से होता हुआ गुठली को छेदता अंदर चला जाता है और बीजों को खाकर पूर्णत: नष्ट कर देता है। पूर्ण विकसित लार्वा, फल में एक छोटा छेद करके बाहर निकल कर जमीन पर गिर जाता है और भूमि में घुस कर अगले मौसम आने तक वहीं पड़ा रहता है। इस कीट का प्रकोप देशी एवं बनारसी जाति के आँवलों पर देखा गया है।
यह घुन जिस स्थान पर फल में अंडे देती है वहाँ एक छोटा, भूरा धब्बा से दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त फलों में कीड़े के बाहर निकलने वाले छेदों को देख कर भी इसके प्रकोप की पहचान की जा सकती है।
फल तुड़ाई के उपरांत गहरी जुताई करने से जमीन के अंदर प्रवेश किए लार्वो को नष्ट किया जा सकता है और इनकी संख्या में कमी लायी जा सकती है। अधिक प्रकोप होने पर प्रथम छिड़काव 0.2 प्रतिशत कार्बेरिल या 0.04 प्रतिशत मोनोक्रोटोफ़ॉस या 0.05 प्रतिशत क्वीनलफ़ॉस या 0.07 प्रतिशत एन्डोसल्फान कीटनाशी का फलों के मटर के दाने के बराबर की अवस्था में करना चाहिए। यदि आवश्यकता हो तो दूसरा छिड़काव कीटनाशी बदल कर 15 दिनों के अंतराल पर करें।
परिपक्वता, तुड़ाई, पैकिंग एवं भंडारण
तुड़ाई के समय फल की परिपक्वता, उसकी गुणवत्ता एवं भंडारण क्षमता का निर्धारण करती है। फलों का गिरना प्रारम्भ हो जाता है। यह समस्या बनारसी एवं फ्रांसिस किस्मों में ज्यादा पायी जाती है। तुड़ाई में विलम्ब करने से अगले साल की फलत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। फलों को हाथ के द्वारा तोड़ा जाता है। तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए। चोटिल या खरोंच लगे फलों में भंडारण के दौरान भूरे या काले रंग के धब्बे बनना प्रारम्भ हो जाते है। तुड़ाई उपरांत नुकसान को उचित तुड़ाई, पैकिंग एवं सही भंडारण तकनीक अपना कर कम किया जा सकता है।
परिपक्वता
आँवला के फलों की परिपक्वता कई कारकों पर निर्भर करती है, जैसे, स्थिति, जलवायु, मृदा प्रकार, नमी, इत्यादि। आँवला की व्यावसायिक किस्मों में परिपक्वता सूचकांक का निर्धारण फल लगने के उपरांत अवधि, टी. एस. एस. एसिड अनुपात, आपेक्षित घनत्व आदि के अनुसार किया जाता है। बनारसी एवं कृष्णा किस्मों में परिपक्वता फल लगने के 17-18 सप्ताह बाद आती है, जबकि कंचन और फ्रांसिस में 20 सप्ताह का समय लगता है। चकैइया किस्म, फल लगने के 23 सप्ताह बाद परिपक्व होते हैं। परिपक्वता के समय आपेक्षित घनत्व सभी किस्मों में 1.0 से अधिक पाया जाता है। आँवले में परिपक्वता निर्धारण का सबसे अच्छा तरीका फलों के रंग में परिवर्तन (हरे से चमकदार सफेद हरा या पीला हरा) एवं बीज के रंग में परिवर्तन (हल्के पीले सफेद से भूरे रंग में) को देखकर किया जा सकता है।
तुड़ाई
आँवले के फलों की तुड़ाई हाथ से करते हैं परन्तु यह क्रिया बड़े वृक्षों में सम्भव न होने के कारण, बांस से बनी सीढ़ियों पर चढ़ कर तुड़ाई की जाती है। फलों को प्रात: काल में तोड़ना चाहिए एवं प्लास्टिक के क्रेट्स में रखना चाहिए। फलों को तोड़ते समय जमीन में नहीं गिरने देना चाहिए अन्यथा चोटिल फल पैकिंग एवं भंडारण के समय सड़ कर अन्य फलों को भी नुकसान पहुँचाते हैं।
फलत
आँवले का कलमी पौधा रोपण से तीसरे साल तथा बीजू पौधा 6-8 साल बाद फलत देना प्रारम्भ कर देता है। कलमी पौधा 10-12 साल बाद पूर्ण फलत देने लगता है तथा अच्छे प्रकार से रख-रखाव के द्वारा 60-75 साल तक फलत देता रहता है। आँवले की विभिन्न किस्मों की उपज में भिन्नता पायी जात है। बनारसी कम फलत देने वाली, फ्रांसिस एवं नरेन्द्र आँवला-6 औसत फलत देने वाली, कंचन एवं नरेन्द्र आँवला-7 अत्यधिक फलत देने वाली किस्में हैं। आँवले की फलत को कई कारक प्रभावित करते है जैसे किस्म की आंतरिक क्षमता, वातावरणीय कारक एवं प्रबंधन तकनीकें इत्यादि। एक पूर्ण विकसित आँवले का वृक्ष एक से तीन क्विंटल फल देता है। इस प्रकार से 15-20 टन प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है।
श्रेणीकरण
आँवले के फलों को तीन श्रेणियों में उनके आकार, भार, रंग एवं पकने के समय के आधार पर बांटा जा सकता है। बड़े आकार के फल (व्यास 4 सें.मी. से अधिक) को मुरब्बा बनाने हेतु प्रयोग किया जाता है। मध्यम आकार के फलों को अन्य परिरक्षित पदार्थ बनाने में एवं छोटे आकार के फलों को औषधीय उत्पाद जैसे च्यवनप्राश, त्रिफला इत्यादि बनाने में प्रयोग किया जाता है। अपरिपक्व, चोटिल एवं व्याधिग्रस्त फलों को फेंक देना चाहिए।
पेटीबंदी
आँवले के फलों का अच्छी तरह से स्म्भ्लाव एवं पेटीबंदी न करने से लगभग 20 प्रतिशत तक का नुकसान होता है। इसलिए आँवले की पेटीबंदी करते समय अत्यधिक सावधानी रखने की आवश्यकता है। जूट की बोरियों एवं अरहर पौधों के तने की टोकरियाँ प्राय: आँवले की पेटीबंदी में प्रयुक्त की जाती हैं, जबकि इन पैकिंग पदार्थों में भार सहने की क्षमता कम होती है तथा रख-रखाव भी उपयुक्त नहीं हो पाता है। लगभग 40-50 किलोग्राम क्षमता की अरहर के तने द्वारा बनी टोकरियाँ आँवला की पैकिंग में प्रयोग की जाती है जिनमें अखबार की परत एवं आँवला की पत्तियों को कुशन के रूप में प्रयोग किया जाता है। आँवला को दूरस्थ स्थानों पर भेजने के लिए गत्ते (कारुगेटेट फाइबर बोर्ड) से बने डिब्बों में पैकिंग करके भेजा जा सकता है।
आय
आँवले का विक्रय मूल्य 400 रूपये से लेकर 4000 रूपये प्रति कुंतल तक रहता है। अत: प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से 40,000 रूपये से लेकर दो लाख रूपये प्राप्त किये जा सकते हैं।
भंडारण
आँवले के भंडारण का मुख्य उद्देश्य संसाधन हेतु उसकी उपलब्धता को बढ़ाना है। किस्मों के अनुसार परिपक्व फलों को 6 से 9 दिनों तक कम ऊर्जा वाले शीतकक्षों में रख कर बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त आँवले के फलों को शीत तापक्रम (5-70 सेंटीग्रेट) पर दो माह तक रखा जा सकता है। फलों को 15 प्रतिशत नमक के घोल में रख कर 75 दिनों तक सामान्य तापक्रम पर भंडारित किया जा सकता है।
प्रसंस्करण
आँवले के फल अम्लीय एवं कसैले होने के कारण तुरन्त उपभोग हेतु उपयुक्त नहीं होते हैं। अत: फलों को संसाधित पदार्थ बनाने में उपयोग किया जा सकता है। संसाधित पदार्थ बनाने से इसमें विद्यमान विटामिन ‘सी’ के बड़े भाग का ह्रास होता है। फलों को तीन प्रकार से उपयोग में लाया जाता है। खाद्य पदार्थ के रूप में, स्वास्थ्य उत्पाद के रूप में। आँवले के संसोधित पदार्थो के बनाने की तकनीकों का विवरण निम्नवत है।
गूदा
पूर्ण परिपक्व फलों को गूदा निकालने के लिए प्रयोग किया जाता है। फलों को अच्छी प्रकार से धो कर बीज निकाल कर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करके प्रयोग किया जाता है या 6 से 8 मिनट तक खौलते हुए पानी में उबालने से फलों की फांके स्वयं अलग हो जाती है तथा उनका रंग भी सफेद हो जाता है। इस प्रकार से अलग ही हुई फांकों में या कटे हुए टुकड़ों में उतनी ही मात्रा में पानी मिला कर गूदा निकालने वाली मशीन के द्वारा गूदा निकाल लिया जाता है। निकले हुए गूदे को 780 सेंटीग्रेट तक गर्म करके 1000 पी.पी.एम. सल्फर डाईआक्साइड या 2 ग्राम पोटेशियम मेटा बाई सल्फाइट प्रति किलो के हिसाब से मिला कर हवा अवरोधी बर्तनों में भर देते हैं।
जूस
आँवले के छोटे-छोटे टुकड़ों को फिल्टर प्रेस के द्वारा दबा कर जूस निकाला जाता है। उसको 780 ब तक गर्म कर निर्जीवाणुक या जीवाणु हीन कर दिया जाता है। तैयार जूस को कांच की निर्जमीकृत बोतलों में भर देते हैं। इस प्रकार से तैयार जूस 500 पी.पी.एम. सल्फर डाईआक्साइड या 1 ग्राम पोटेशियम मेटा बाई सल्फाइट प्रति लीटर के हिसाब से मिला कर परिरक्षित किया जाता है।
स्कवैश
स्कवैश, जूस या गूदा से बनाया जाता है। स्कवैश में 35 से 40 प्रतिशत जूस में 50 प्रतिशत चीनी, 1.1 प्रतिशत साइट्रिक अम्ल एवं 350 पी.पी.एम. सल्फर डाईआक्साइड (750 मिलीग्राम/किलोग्राम) मिलाते हैं। अच्छी प्रकार से मिलाने के बाद हल्की आंच पर गर्म करके, साफ़ की गई निजर्मीकृत बोतलों में भर कर भंडारित करते है। इस्तेमाल करते समय तीन भाग पानी में एक भाग स्कवैश को मिला लेते हैं।
आर.ओ. एस. पेय
इस तुरन्त उपयोग हेतु तैयार पेय में 10 प्रतिशत जूस, टी.एस.एम. 120 ब्रिक्स एवं 0.28 प्रतिशत खटास की मात्रा रखी जाती है। तैयार पेय को कांच को बोतलों में भर कर कार्क लगा कर 20 मिनट तक खौलते हुए पानी में रख कर निजर्मीकृत करते हैं। इस पेय में दो प्रतिशत अदरक के जूस को मिला कर इसका स्वाद और अच्छा बनाया जा सकता है।
मुरब्बा
बाजार में उपलब्ध आँवले के उत्पादों में मुरब्बा एक प्रमुख उत्पाद है। मुरब्बा बनाने के कई तरीके है। पारम्परिक रूप से मुरब्बा बनाने हेतु गूदे हुए आँवले के फलों को 2-8 प्रतिशत तक नमक के घोल या चूने के पानी में 1-1 दिनों तक रखते हैं। जिससे फलों का कसैलापन दूर हो जाता है। तदुपरान्त फलों को अच्छी प्रकार से धो कर उतनी ही मात्रा में चीनी मिला कर रात्रि भर के लिए रख देते हैं। दूसरे दिन चीनी के घोल को 700 ब्रिक्स टी.एस.एस. तक सान्द्रित करके उसमें फलों को डुबो देते हैं। इस प्रक्रिया को तीन या चार बार दोहराते हैं। अंत में तैयार मुरब्बे को साफ़-सुथरे जार में 70-720 ब्रिक्स ताले शर्करा के घोल के साथ डिब्बा बंदी कर देते हैं।
मुरब्बा बनाने की एक विधि का मानकीकरण लखनऊ में किया गया है। इस विधि में 4-6 मिनट तक खौलते हुए 2 प्रतिशत सोडियम हाइड्रोक्साइड के घोल में, तदुपरान्त 1 ग्राम फिटकारी प्रति लीटर के हिसाब से इस घोल में मिलाकर एक मिनट तक गर्म करते हैं। इसके बाद पानी को निथार लेते हैं तथा फलों को बहते हुए पानी में अच्छी तरह धोते हैं, जब तक फलों का छिलका पूरी तरह से साफ़ न हो जाये। फिर फलों को 20 मिनट तक 2 प्रतिशत साईंट्रिक अम्ल के घोल में रखते हैं। पुन: पानी को निथार कर फलों की सतह को सुखा लेते हैं। इन फलों को खौलते हुए अम्लीकृत शर्करा के घोल 800 ब्रिक्स एवं 0.7 प्रतिशत खटास में डाल कर जार में भर देते हैं। दो दिनों बाद शर्करा के घोल को 800 ब्रिक्स तक पुन: शर्करा मिला कर गर्म कर सान्द्रित कर लेते हैं। इस प्रक्रिया की दो बार पुनरावृत्ति करके मुरब्बे को साफ़-सुथरे जार में भर कर सील कर देते हैं।
शर्करा के घोल में आँवला की फाँके
यह एक नया उत्पाद है। उत्पाद इसमें आँवले में विद्यमान पौष्टिक गुणों को अधिक मात्रा में संरक्षित किया जाता है जो कि मुरब्बा बनने की जटिल प्रक्रिया के दौरान नष्ट हो जाते हैं। फलों को खौलते पानी में 6-8 मिनट तक रखते हैं। फिर ठंडा करके, फाँके अलग कर ली जाती है। इसके बाद इन फांकों को 0.5 प्रतिशत खटास युक्त विभिन्न सान्द्रन वाले (50, 60, एवं 700 ब्रिक्स) शर्करा के घोलों में, घंटे प्रत्येक में क्रमश: रखते है। अंत में शर्करा के घोल को चीनी मिला कर एवं खौला कर, 700 ब्रिक्स तक सान्द्रिक कर लेते है इन फांकों को इस घोल में मिला कर साफ़-सुथरे जार में बंद कर लेते हैं।
कैंडी
फलों को अच्छी तरह से पानी से धोने के उपरांत उन्हें खौलते पानी में 6-8 मिनट तक गर्म करते हैं। फिर ठंडा करने के बाद फलों से फाँके अलग कर ली जाती है। इन फांकों को 600 ब्रिक्स एवं 0.7 प्रतिशत अम्लीय घोल (1:1.5) के अनुपात में रात भर डुबो कर रखते हैं ताकि परसरणी विधि द्वारा फांकों में शर्करा तथा अम्ल को रिसाया जा सके। दूसरे दिन फांकों को घोल से निकाल कर घोल को गर्म कर एवं उसमें शर्करा मिला कर उसकी सांद्रता 700 ब्रिक्स तक लाते हैं। टुकड़ों को पुन: रात भर भिगो देते हैं। दूसरे दिन शर्करा के घोल से निकाल कर टुकड़ों को गुनगुने पानी में धो लेते हैं ताकि फांकों की सतह पर लगी शर्करा घुल जाय। फिर फांकों को 600 ब्रिक्स  तापमान पर विद्युत् चालित निर्जलीकरण यंत्र में 8-10 घंटों तक रख कर सुखा लेते हैं। इन सूखी फांकों में जल की मात्रा 10 प्रतिशत तक होनी चाहिए। इस प्रकार तैयार फांके ‘कैन्डी’ कहलाती हैं और उन्हें पालीथिन की थैलियों में अथवा जार में भर कर भंडारित करते हैं।
चूर्ण
आँवले के फल से अलग की गई फांकों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर उन्हें विद्युत् चालित यंत्र में 600 सेंटीग्रेट पर 8-10 घंटे सुखाते हैं। तदुपरान्त उनकों पीस कर चूर्ण बना लेते हैं। आँवले का चूर्ण बनाने हेतु प्रति 100 ग्राम चूर्ण में 8 ग्राम साधारण नमक, 16 ग्राम काला नमक, 15 ग्राम चीनी, 3 ग्राम साइट्रिक अम्ल, 2 ग्राम पिसी काली मिर्च, 1 ग्राम हींग, 1 ग्राम भुना पिसा जीरा, 1 ग्राम पिसी सौंफ, 1.5 ग्राम सोंठ एवं 0.5 ग्राम अजवायन मिलते हैं। अजवायन के स्थान पर 2-5 ग्राम पिसे पुदीना की पत्ती को भी मिला सकते हैं। तैयार चूर्ण को सूखे जार में हवा अवरोधी अवस्था में भंडारित कर लेते हैं।

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पपीता का पौधा

भूमिका
पपीता स्वास्थ्यवर्द्धक तथा विटामिन ए से भरपूर फल होता है। पपीता ट्रापिकल अमेरिका में पाया जाता है। पपीते का वानस्पतिक नाम केरिका पपाया है। पपीता कैरिकेसी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण सदस्य है। पपीता एक बहुलिडीस पौधा है तथा मुरकरटय से तीन प्रकार के लिंग नर, मादा तथा नर व मादा दोनों लिंग एक पेड़ पर होते हैं। पपीता के पके व कच्चे फल दोनो उपयोगी होते हैं। कच्चे फल से पपेन बनाया जाता है। जिसका सौन्दर्य जगत में तथा उद्योग जगत में व्यापक प्रयोग किया जाता है। पपीता एक सदाबहार मधुर फल है, जो स्वादिष्ट और रुचिकर होता है। यह हमारे देश में सभी जगह उत्पन्न होता है। यह बारहों महीने होता है, लेकिन यह फ़रवरी-मार्च और मई से अक्टूबर के मध्य विशेष रूप से पैदा होता है। इसका कच्चा फल हरा और पकने पर पीले रंग का हो जाता है। पका पपीता मधुर, भारी, गर्म, स्निग्ध और सारक होता है। पपीता पित्त का शमन तथा भोजन के प्रति रुचि उत्पन्न करता है।
पपीता बहुत ही जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। साधारण ज़मीन, थोड़ी गरमी और अच्छी धूप मिले तो यह पेड़ अच्छा पनपता है, पर इसे अधिक पानी या ज़मीन में क्षार की ज़्यादा मात्रा रास नहीं आती। इसकी पूरी ऊँचाई क़रीब 10-12 फुट तक होती है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ता है, नीचे से एक एक पत्ता गिरता रहता है और अपना निशान तने पर छोड़ जाता है। तना एकदम सीधा हरे या भूरे रंग का और अन्दर से खोखला होता है। पत्ते पेड़ के सबसे ऊपरी हिस्से में ही होते हैं। एक समय में एक पेड़ पर 80 से 100 फल तक भी लग जाते हैं।
पपीता पोषक तत्वों से भरपूर अत्यंत स्वास्थ्यवर्द्धक जल्दी तैयार होने वाला फल है । जिसे पके तथा कच्चे रूप में प्रयोग किया जाता है । आर्थिक महत्व ताजे फलों के अतिरिक्त पपेन के कारण भी है । जिसका प्रयोग बहुत से औद्योगिक कामों में होता है । अतः इसकी खेती की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हमारे देश का पांचवा लोकप्रिय फल है, देश की अधिकांश भागों में घर की बगिया से लेकर बागों तक इसकी बागवानी का क्षेत्र निरंतर बढ़ता जा रहा है । देश की विभिन्न राज्यों आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तरांचल और मिजोरम में इसकी खेती की जा रही है।अतः इसके सफल उत्पादन के लिए वैज्ञानिक पद्धति और तकनीकों का उपयोग करके कृषक स्वयं और राष्ट्र को आर्थिक दृष्टि से लाभान्वित कर सकते हैं। इसके लिए तकनीकी बातों का ध्यान रखना चाहिए । पपीता सबसे कम समय में फल देने वाला पेड है इसलिए कोई भी इसे लगाना पसंद करता है, पपीता न केवल सरलता से उगाया जाने वाला फल है, बल्कि जल्‍दी लाभ देने वाला फल भी है, यह स्‍वास्‍थवर्धक तथा लोक प्रिय है, इसी से इसे अमृत घट भी कहा जाता है, पपीता में कई पाचक इन्‍जाइम भी पाये जाते है तथा इसके ताजे फलों को सेवन करने से लम्‍बी कब्‍जियत की बिमारी भी दूर की जा सकती है।

पपीते की किस्में
पपीते की मुख्य किस्मों का विवरण निम्नवत है-

पूसा डोलसियरा

यह अधिक ऊपज देने वाली पपीते की गाइनोडाइसियश प्रजाति है। जिसमें मादा तथा नर-मादा दो प्रकार के फूल एक ही पौधे पर आते हैं पके फल का स्वाद मीठा तथा आकर्षक सुगंध लिये होता है।
पूसा मेजेस्टी

यह भी एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। इसकी उत्पादकता अधिक है, तथा भंडारण क्षमता भी अधिक होती है।

रेड लेडी 786

पपीते की एक नई किस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना द्वारा विकसित की गई है, जिसे 'रेड लेडी 786' नाम दिया है। यह एक संकर किस्म है। इस किस्म की खासीयत यह है कि नर व मादा फूल ही पौधे पर होते हैं, लिहाजा हर पौधे से फल  मिलने की गारंटी होती है।
पपीते की अन्य किस्मों में नर व मादा फूल अलग-अलग पौधे पर लगते हैं, ऐसे में फूल निकलने तक यह पहचानना कठिन होता है कि कौन सा पौध नर है और कौन सा मादा। इस नई किस्म की एक खासीयत यह है कि इसमें साधरण पपीते में लगने वाली 'पपायरिक स्काट वायरस' नहीं लगता है। यह किस्म सिर्फ  9 महीने में तैयार हो जाती है।
इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता भी ज्यादा होती है। पपीते में एंटी आक्सीडेंट पोषक तत्त्व कैरोटिन,पोटैशियम,मैग्नीशियम, रेशा और विटामिन ए, बी, सी सहित कई अन्य गुणकारी तत्व भी पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने तकरीबन 3 सालों की खोज के बाद इसे पंजाब में उगाने के लिए किसानों को दिया। वैसे इसे हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और राजस्थान में भी उगाया जा रहा है।


जलवायु
पपीते की अच्‍छी खेती गर्म नमी युक्‍त जलवायु में की जा सकती है। इसे अधिकतम 38 डिग्री सेल्सियस 44 डिग्री सेल्सियस तक तापमान होने पर उगाया जा सकता है, न्‍यूनतम 5 डिग्री सेल्सियस से कम नही होना चाहिए लू तथा पाले से पपीते को बहुत नुकसान होता है। इनसे बचने के लिए खेत के उत्‍तरी पश्चिम में हवा रोधक वृक्ष लगाना चाहिए पाला पडने की आशंका हो तो खेत में रात्रि के अंतिम पहर में धुंआ करके एवं सिचाई भी करते रहना चाहिए।

भूमि

जमीन उपजाऊ हो तथा जिसमें जल निकास अच्‍छा हो तो पपीते की खेती उत्‍तम होती है, जिस खेत में पानी भरा हो उस खेत में पपीता कदापि नही लगाना चाहिए। क्‍योकि पानी भरे रहने से पोधे में कॉलर रॉट बिमारी लगने की सम्‍भावना रहती है, अधिक गहरी मिट्टी में भी पपीते की खेती नही करना चाहिए।

भूमि की तैयारी

खेत को अच्‍छी तरह जोंत कर समतल बनाना चाहिए तथा भूमि का हल्‍का ढाल उत्‍तम है, 2 X 2 मीटर के अन्‍दर पर लम्‍बा, चौडा, गहरा गढ्ढा बनाना चाहिए, इन गढ्ढों में 20 किलो गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर फास्‍फेट एवं 250 ग्राम म्‍यूरेट आफ पोटाश को मिट्टी में मिलाकर पौधा लगाने के कम से कम 10 दिन पूर्व भर देना चाहिए।
किस्‍म
पूसा मेजस्‍टी एवं पूसा जाइंट, वाशिंगटन, सोलो, कोयम्‍बटूर, हनीड्यू, कुंर्ग‍हनीड्यू, पूसा ड्वार्फ, पूसा डेलीसियस, सिलोन, पूसा नन्‍हा आदि प्रमुख किस्‍में है।

बीज

एक हेक्‍टेयर के लिए 500 ग्राम से एक किलो बीज की आवश्‍यकता होती है, पपीते के पौधे बीज द्वारा तैयार किये जाते है, एक हेक्‍टेयर खेती में प्रति गढ्ढे 2 पौधे लगाने पर 5000 हजार पौध संख्‍या लगेगी।
लगाने का समय एवं तरीका
पपीते के पौधे पहले रोपणी में तैयार किये जाते है, पौधे पहले से तैयार किये गढ्ढे में जून, जुलाई में लगाना चाहिए, जंहा सिंचाई का समूचित प्रबंध हो वंहा सितम्‍बर से अक्‍टूबर तथा फरवरी से मार्च तक पपीते के पौधे लगाये जा सकते है।

पपीते का पेड़
कूर्गहनि डयू
यह गाइनोडाइसियश जाति है। इसमें नर पौधे नहीं होते हैं। फल का आकार मध्यम तथा लम्बवत गोलाकार होता है। गूदे का रंग नारंगी पीला होता है।
वाशिगंटन
यह अधिक उपज देने वाली विभिन्न जलवायु में उगाई जाने वाली प्रजाति है। इस पौधे की पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं। जो इस किस्म की पहचान कराते हैं। यह डाइसियन किस्म हैं फल मीठा,गूदा पीला तथा अच्छी सुगंध वाला होता है।
पन्त पपीता-1
इस किस्म का पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्यम आकार के गोल होते हैं। फल मीठा तथा सुगंधित तथा पीला गूदा होता है। यह पककर खाने वाली अच्छी किस्म है तथा तराई एवं भावर जैसे क्षेत्र में उगाने के लिए अधिक उपयोगी है।



नर्सरी में रोपा तैयार करना
इस विधि द्वारा बीज पहले भूमि की सतह से 15 से 20 सेमी. उंची क्‍यारियों में कतार से कतार की दूरी 10 सेमी, तथा बीज की दूरी 3 से 4 सेमी. रखते हुए लगाते है, बीज को 1 से 3 सेमी. से अधिक गहराई पर नही बोना चाहिए, जब पौधे करीब 20 से 25 सेमी. उंचे हो जावें तब प्रति गढ्ढा 2 पौधे लगाना चाहिए।
पौधे पालीथिन की थैली में तैयार करने की विधि
20 सेमी. चौडे मुंह वाली, 25 सेमी. लम्‍बी तथा 150 सेमी. छेद वाले पालीथिन थैलियां लेवें इन थैलियों में गोबर की खाद, मिट्टी एवं रेत का समिश्रण करना चाहिए, थैली का उपरी 1 सेमी. भाग नही भरना चाहिए, प्रति थैली 2 से 3 बीज होना चाहिए, मिट्टी में हमेशा र्प्‍याप्‍त नमी रखना चाहिए, जब पौधे 15 से 20 सेमी. उंचे हो जावें तब थैलियों के नीचे से धारदार ब्‍लेड द्वारा सावधानी पूर्वक काट कर पहले तैयार किये गये गढ्ढों में लगाना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
एक पौधे को वर्षभर में 250 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम स्‍फुर एवं 500 ग्राम पोटाश की आवश्‍यकता होती है, इसे छ: बराबर भाग में बांट कर प्रति 2 माह के अंतर से खाद तथा उर्वरक देना चाहिए खाद तथा उर्वरक को मिट्टी में मिलाकर थैली) में देकर सिंचाई करना चाहिए। इस मिश्रण को नर पौधों को और ऐसे पौधो को नही देना चाहिए, जिसे 4 से 6 माह बाद निकालकर फेकना है।
नर पौधों को अलग करना
पपीते के पौधे 90 से 100 दिन के अन्‍दर फूलने लगते है तथा नर फूल छोटे-छोटे गुच्‍छों में लम्‍बे डंढल युक्‍त होते है। नर पौधों पर पुष्‍प 1 से 1.3 मी. के लम्‍बे तने पर झूलते हुए तथा छोटे होते है। प्रति 100 मादा पौधों के लिए 5 से 10 नर पौधे छोड कर शेष नर पौधों को उखाड देना चाहिए। मादा पुष्‍प पीले रंग के 2.5 से.मी. लम्‍बे तथा तने के नजदीक होते है।

निंदाई, गुडाई तथा सिंचाई

गर्मी में 4 से 7 दिन तथा ठण्‍ड में 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना चाहिए, पाले की चेतावनी पर तुरंत सिंचाई करें, तीसरी सिंचाई के बाद निंदाई गुडाई करें। जडों तथा तने को नुकसान न हो।

पपीते की बोआई
पपीते का व्यवसाय उत्पादन बीजों द्वारा किया जाता है। इसके सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि बीज अच्छी क्वालिटी का हो। बीज के मामले में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए :

1. बीज बोने का समय जुलाई से सितम्बर और फरवरी-मार्च होता है।

2. बीज अच्छी किस्म के अच्छे व स्वस्थ फलों से लेने चाहिए। चूंकि यह नई किस्म संकर प्रजाति की है, लिहाजा हर बार इसका नया बीज ही बोना चाहिए।

3. बीजों को क्यारियों, लकड़ी के बक्सों, मिट्‌टी के गमलों व पोलीथीन की थैलियों में बोया जा सकता है।

4. क्यारियाँ जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊंची व 1 मीटर चौड़ी होनी चाहिए।

5. क्यारियों में गोबर की खाद, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट काफी मात्रा में मिलाना चाहिए। पौधे को पद विगलन रोग से बचाने के लिए क्यारियों को फार्मलीन के 1:40 के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए और बीजों को 0.1 फीसदी कॉपर आक्सीक्लोराइड के घोल से उपचारित करके बोना चाहिए।

6. जब पौधे 8-10 सेंटीमीटर लंबे हो जाएँ, तो उन्हें क्यारी से पौलीथीन में स्थानांतरित कर देते हैं।

7. जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब 0.3 फीसदी फफूंदीनाशक घोल का छिड़काव कर देना चाहिए।

पपीते के उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों का उगाना बहुत महत्व रखता है। इसके लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम पर्याप्त होती है। बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा हुआ और शीशे की जार या बोतल में रखा हो जिसका मुँह ढका हो और 6 महीने से पुराना न हो, उपयुक्त है। बोने से पहले बीज को 3 ग्राम केप्टान से एक किलो बीज को उपचारित करना चाहिए।

बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से ऊँची उठी हुई संकरी होनी चाहिए इसके अलावा बड़े गमले या लकड़ी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालू, तथा सदी हुई गोबर की खाद को बराबर मात्र में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। जिस स्थान पर नर्सरी हो उस स्थान की अच्छी जुताई, गुड़ाई,करके समस्त कंकड़-पत्थर और खरपतवार निकाल कर साफ़ कर देना चाहिए तथा ज़मीन को 2 प्रतिशत फोरमिलिन से उपचारित कर लेना चाहिए। वह स्थान जहाँ तेज़ धूप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए। एक एकड़ के लिए 4059 मीटर ज़मीन में उगाये गए पौधे काफी होते हैं। इसमें 2.5 x 10 x 0.5 आकर की क्यारी बनाकर उपरोक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें, और क्यारी को ऊपर से समतल कर दें। इसके बाद मिश्रण की तह लगाकर 1/2' गहराई पर 3' x 6' के फासले पर पंक्ति बनाकर उपचारित बीज बो दे और फिर 1/2' गोबर की खाद के मिश्रण से ढ़क कर लकड़ी से दबा दें ताकि बीज ऊपर न रह जाये। यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें तो इनमे भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें। बोई गयी क्यारियों को सूखी घास या पुआल से ढक दें और सुबह शाम होज द्वारा पानी दें। बोने के लगभग 15-20 दिन भीतर बीज जम जाते हैं। जब इन पौधों में 4-5 पत्तियाँ और ऊँचाई 25 से.मी. हो जाये तो दो महीने बाद खेत में प्रतिरोपण करना चाहिए, प्रतिरोपण से पहले गमलों को धूप में रखना चाहिए, ज्यादा सिंचाई करने से सड़न और उकठा रोग लग जाता है। उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च-अप्रैल,जून-अगस्त में उगाने चाहिए।

खाद व उर्वरक का प्रयोग
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सड़ी खाद, एक कि०ग्रा० बोनमील और एक कि०ग्रा० नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्तूबर महीनों में देनी चाहिए।
पपीता जल्दी बढ़ने व फल देने वाला पौधा है, जिसके कारण भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकल जाते हैं। लिहाजा अच्छी उपज हासिल करने के लिए 250 ग्राम नाइट्रोजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे हर साल देना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को 6 भागों में बाँट कर पौधा रोपण के 2 महीने बाद से हर दूसरे महीने डालना चाहिए।
फास्फोरस व पोटाश की आधी-आधी मात्रा 2 बार में देनी चाहिए। उर्वरकों को तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधें के चारों ओर बिखेर कर मिट्‌टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा फरवरी-मार्च और आधी जुलाई-अगस्त में देनी चाहिए। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।



पपीते का फूल

पूसा जाइन्ट

यह किस्म बहुत अधिक वृद्धि वाली मानी जाती है। नर तथा मादा फूल अलग-अलग पौधे पर पाये जाते हैं। पौधे अधिक मज़बूत तथा तेज़ हवा से गिरते नहीं हैं।।

पूसा ड्रवार्फ

यह छोटी बढ़वार वाली डादसियश किस्म कही जाती है।जिसमें नर तथा मादा फूल अलग अलग पौधे पर आते हैं। फल मध्यम तथा ओवल आकार के होते हैं।

पूसा नन्हा

इस प्रजाति के पौधे बहुत छोटे होते हैं। तथा यह गृहवाटिका के लिए अधिक उपयोगी होता है। साथ साथ सफल बागवानी के लिए भी उपयुक्त है।

कोयम्बर-1
पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्य आकार के तथा गोलाकार होते हैं।

कोयम्बर-3

यह एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। पौधा लम्बा, मज़बूत तथा मध्य आकार का फल देने वाला होता है। पके फल में शर्करा की मात्रा अधिक होती है। तथा गूदा लाल रंग का होता है।

हनीइयू (मधु बिन्दु)

इस पौधे में नर पौधों की संख्या कम होती है,तथा बीज के प्रकरण अधिक लाभदायक होते हैं। इसका फल मध्यम आकार का बहुत मीठा तथा ख़ुशबू वाला होता है।

पाले से पेड़ की रक्षा
पौधे को पाले से बचाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए नवम्बर के अंत में तीन तरफ से फूंस से अच्छी प्रकार ढक दें एवं पूर्व-दक्षिण दिशा में खुला छोड़ दें। बाग़ के चारों तरफ रामाशन से हेज लगा दें जिससे तेज़ गर्म और ठंडी हवा से बचाव हो जाता है। समय-समय पर धुआँ कर देना चाहिए।
उष्ण प्रदेशीय जलवायु में जाड़े और गर्मी के तापमान में अधिक अंतर नहीं होता है और आर्द्रता भी साल भर रहती है। पपीता साल भर फलता फूलता है। लेकिन उत्तर भारत में यदि खेत में प्रतिरोपण अप्रैल-जुलाई तक किया जाय तो अगली बसंत ऋतू तक पौधे फूलने लगते हैं और मार्च-अप्रैल या बाद में लगे फल दिसम्बर-जनवरी में पकने लगते हैं। यदि फल तोड़ने पर दूध, पानी से तरह निकलने लगता है तब पपीता तोड़ने योग्य हो जाता है। अच्छी देख-रेख करने पर प्रति पौधे से 40-50 किलो उपज मिल जाती है।

फलो को तोडना

पौधे लगाने के 9 से 10 माह बाद फल तोडने लायक हो जाते है। फलों का रंग गहरा हरे रंग से बदलकर हल्‍का पीला होने लगता है तथा फलों पर नाखुन लगने से दूध की जगह पानी तथा तरल निकलता हो तो समझना चाहिए कि फल पक गया होगा। फलो को सावधानी से तोडना चाहिए। छोटी अवस्‍था में फलों की छटाई अवश्‍य करना चाहिए।
पौध संरक्षण
माइट, एफीड्स तथा फल मक्‍खी जैसे कीटों का प्रकोप इन पर देखा गया है। इसके नियंत्रण को मेटासिस्‍टाक्‍स 1 लीटर दवा प्रति हेक्‍टर के दर से तथ दूसरा छिडकाव 15 दिन के अंतर से करना चाहिए। फूट एण्‍ड स्‍टेम राट बीमारी से पौधों को बचाने के लिए तने के पास पानी न जमने दें। जिस भाग में रोग लगा हो वहां चाकू से खुरच कर बोडो पेस्‍ट भर देना चाहिए। पावडरी मिलड्यू के नियंत्रण के लिए सल्‍फर डस्‍ट 30 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी के हिसाब से 15 दिन के अंतराल में छिडकाव करें
उपज तथा आर्थिक लाभ
प्रति हेक्‍टर पपीते का उत्‍पादन 35-40 टन होता है। यदि 1500 रू./ टन भी कीमत आंकी जावें तो किसानों को प्रति हेक्‍टर 34000.00 रू. का शुद्ध लाभ प्राप्‍त होगा।

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आम का पौधा

परिचय

आम की खेती लगभग पूरे देश में की जाती हैI यह मनुष्य का बहुत ही प्रीय फल माना जाता है इसमे खटास लिए हुए मिठास पाई जाती है|  जो की अलग अलग प्रजातियों के मुताबिक फलो में कम ज्यादा मिठास पायी जाती है|  कच्चे आम से अमचूर, चटनी, अचार, स्क्वैश, जैम वगैरह बनाए जा सकते हैं.  इससे जैली जैम सीरप चटनी आचार अनेक प्रकार के पेय के रूप में प्रयोग किया जाता हैI आम में विटामिन ए व सी काफी मात्रा में होता है. इस फल से  यह विटामीन ए व् बी का अच्छा श्रोत हैI

जलवायु और भूमि

आम की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु और भूमि की आवश्यकता होती है?
आम की खेती उष्ण एव समशीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में की जाती हैI आम की खेती समुद्र तल से 600 मीटर की ऊँचाई तक सफलता पूर्वक होती है इसके लिए 23.8 से 26.6 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान अति उतम होता हैई आम की खेती प्रत्येक किस्म की भूमि में की जा सकती हैI परन्तु अधिक बलुई, पथरीली, क्षारीय तथा जल भराव वाली भूमि में इसे उगाना लाभकारी नहीं है, तथा अच्छे जल निकास वाली दोमट भूमि सवोत्तम मानी जाती हैI आम की पैदावार के लिए मिट्टी का पीएच 5.5-7.5 सही माना जाता है.

प्रजातियाँ

आम के पेड़ लगाने से पहले वो कौन-कौन सी उन्नतशील प्रजातियाँ है?

हमारे देश में उगाई जाने वाली किस्मो में, दशहरी, लगडा, चौसा, फजरी, बाम्बे ग्रीन, अलफांसो, तोतापरी, हिमसागर, किशनभोग, नीलम, सुवर्णरेखा,वनराज आदि प्रमुख उन्नतशील प्रजातियाँ हैI
गड्डों की तैयारी में सावधानियाँ
1. आम्रपाली (दशहरी - नीलम): यह एक संकर किस्म है जिसके पौधे बौने होते हैं एवं यह किस्म सघन बागवानी के लिये उपयुक्त है। इसके फल, आकार में छोटे होते हैं परन्तु प्रतिवर्ष फलते हैं। यह देर से पकने वाली किस्म है जिसमें फल जून के अंत में पकते हैं। सघन बागवानी में इससे 200 - 250 क्विंटल/हैक्टेयर उपज प्राप्त होती है। 

2. मल्लिका (नीलम - दशहरी): यह एक संकर किस्म है जिसके फल बहुत बड़े (औसत वजन 500 ग्राम) होते हैं। फल का रंग गुलाबी-पीला, गुठली गूदेदार, मीठा एवं स्वादिष्ट होता है। यह नियमित रूप से फलने वाली किस्म है। इस किस्म की भंडारण क्षमता अधिक होती है यह किस्म खाने एवं प्रसंस्करण हेतु उपयुक्त है। एक संपूर्ण विकसित वृक्ष से औसतन 150-200 किलो ग्राम फल प्राप्त होते हैं। 

3. दशहरी: इस किस्म का उत्पत्ति स्थान लखनऊ है एवं यह उत्तर भारत की प्रमुख एवं स्वाद हेतु लोकप्रिय किस्म है। यह मध्य जून से जुलाई तक पकने वाली किस्म है। वृक्ष मध्यम ऊँचाई का फैलने वाला तथा शीर्ष गोलाकार होता है। फल, मध्यम आकार के भार 125-250 ग्राम, रंग पीला, छिल्का पतला, रेशा रहित गूदा एवं गुठली छोटी होती है। फल अच्छी भंडारण क्षमता वाले होते हैं। 

4. लंगड़ाः इसकी उत्पत्ति बनारस के समीप, गाँव में हुई । यह किस्म अंतिम मई से जुलाई के अंत तक फल देती है। वृक्ष फैलने वाली प्रकृति का एवं शीर्ष गोलाकार होता है। फल मध्यम आकार के अंडाकार, रंग हरा, रेशा रहित गूदा एवं छोटी गुठली होती है। फलों की भंडारण क्षमता कम होती है। इसका औसत उत्पादन 150-200 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष तक होता है। 

5. सुन्दरजा: यह मध्यम अवधि में पकने वाली किस्म है जिसका उत्पत्ति स्थान रीवा है। फल मध्यम आकार का, वजन 200-250 ग्राम, तिरछा, अंडाकार, रंग पीला, सुगंधित एवं स्वादिष्ट होता है। यह बंधा रोग (मैंगो मालफ़ॉर्मेशन) के लिये अत्याधिक संवदेनशील है। 

6. गाजरिया: यह बैतूल की प्रमुख किस्म है। फल मध्यम से बड़ा, आयताकार, आधार थोड़ा चपटा, शीर्ष गोलाकार, रंग पकने पर पीला-हरा, छिल्के पर सफेद धब्बे, छिल्का मध्यम से मोटा, गूदा रसदार एवं बहुत मीठा होता है। इसमें अनन्नास जैसी सुगंध होती है तथा गूदा गाजर के समान होने के कारण इसे गाजरिया कहते हैं । पकने का समय मध्य मई से अंतिम जून तक होता है। 

7. दहियड़: यह भोपाल की रसदार किस्म है जिसका फल मध्यम आकार, तिरछा, अंडाकार, शीर्ष गोलाकार चैड़ा, रंग पकने पर पीला हरा छिल्का मोटा, गूदा रसदार, मीठा, हल्का पीला रेशा रहित होता है। दही में शक्कर मिश्रित सुगंध के कारण इसे दहियड़ कहते हैं। 

8. बॉम्बेग्रीन: यह जल्दी पकने वाली किस्म है, जिसके फल मई के तीसरे सप्ताह में पक कर तैयार होते हैं। इस किस्म के वृक्ष अधिक शाखायुक्त एवं पत्तियाँ पतली होती हैं। फलों का आकार मध्यम, पकने पर हरे रंग से हरा-पीला, फलों में गूदे की मात्रा अधिक तथा स्वाद एवं मिठास अच्छी होती है। 

9. अलफैंज़ो: यह रत्नागिरी (महाराष्ट्र) की लोकप्रिय किस्म है। फलों का आकार मध्यम, (वजन 250 ग्राम), गूदा नरम, रेशा रहित, रंग नारंगी, स्वाद खट्टा मीठा होता है। इसमें स्पंजी ऊतक नामक विकृति पायी जाती है। इसकी भंडारण क्षमता अच्छी होती है तथा निर्यात के लिये उपयुक्त है। 




आम की फसल तैयार करने के लिए गढ्ढ़ो की तैयारी किस तरह से करे और वृक्षों का रोपण करते समय किस तरह की सावधानी बरते?

वर्षाकाल आम के पेड़ो को लगाने के लिए सारे देश में उपयुक्त माना गया हैI जिन क्षेत्रो में वर्षा आधिक होती है वहां वर्षा के अन्त में आम का बाग लगाना चाहिएI लगभग 50 सेन्टीमीटर व्यास एक मीटर गहरे गढ्ढे मई माह में खोद कर उनमे लगभग 30 से 40 किलो ग्राम प्रति गड्ढा सड़ी गोबर की खाद मिटटी में मिलाकर और 100 किलोग्राम क्लोरोपाइरिफास पावडर बुरककर गड्ढो को भर देना चाहिएI
आम के पौधों को 10 X 10 मीटर की दूरी पर लगायें । किंतु सघन बागवानी में इसे 2.5 से 4 मीटर की दूरी पर लगायें। पौधा लगाने के पूर्व खेत में रेखांकन कर पौधों का स्थान सुनिश्चित कर लें। पौधे लगाने के लिये 1 X 1 X 1 मीटर आकार का गड्ढ़ा खोदें। वर्षा प्रारंभ होने के पूर्व, जून माह में 20 - 30 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 2 कि.ग्रा. नीम की खली, 1 कि.ग्रा. हड्डी का चूरा अथवा सिंगल सुपर फॉस्फेट एवं 100 ग्राम. मिथाईल पैरामिथियॉन की डस्ट (10 %) या 20 ग्राम थीमेट 10-जी को खेत की ऊपरी सतह की मिट्टी के साथ मिला कर गड्ढों को अच्छी तरह भर दें। दो-तीन बार बारिश होने के बाद जब मिट्टी दब जाये तब पूर्व चिन्हित स्थान पर खुरपी की सहायता से पौधे की पिंडी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगायें। पौधा लगाने के बाद आस-पास की मिट्टी को अच्छी तरह दबाकर एक थाला बना दें एवं हल्की सिंचाई करें।  पौधों की किस्म के अनुसार 10 से 12 मीटर पौध से पौध की दूरी होनी चाहिए, परन्तु आम्रपाली किस्म के लिए यह दूरी 2.5 मीटर ही होनी चाहिएI

प्रवर्धन या प्रोपोगेशन

आम की फसल में प्रवर्धन या प्रोपोगेशन किन- किन विधियो दवारा किया जा सकता है?
आम के बीजू पौधे तैयार करने के लिए आम की गुठलियों को जून-जुलाई में बुवाई कर दी जाती है आम की प्रवर्धन की विधियों में भेट कलम, विनियर, साफ्टवुड ग्राफ्टिंग, प्रांकुर कलम, तथा बडिंग प्रमुख है, विनियर एवम साफ्टवुड ग्राफ्टिंग द्वारा अच्छे किस्म के पौधे कम समय में तैयार कर लिए जाते हैI

खाद एवं उर्वरक

आम की फसल में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग कब करना चाहिए ?
बागो की दस साल की उम्र तक प्रतिवर्ष उम्र के गुणांक में नाइट्रोजन, पोटाश तथा फास्फोरस प्रत्येक को १०० ग्राम प्रति पेड़ जुलाई में पेड़ के चारो तरफ बनायीं गयी नाली में देनी चाहिएI इसके अतिरिक्त मृदा की भौतिक एवं रासायनिक दशा में सुधार हेतु 25 से 30 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पौधा देना उचित पाया गया हैI जैविक खाद हेतु जुलाई-अगस्त में 250 ग्राम एजोसपाइरिलम को 40 किलोग्राम गोबर की खाद के साथ मिलाकर थालो में डालने से उत्पादन में वृदि पाई गयी हैI

सिंचाई का समय

आम की फसल सिचाई हमें कब करनी चाहिए, और किस प्रकार करनी चाहिए?
आम की फसल के लिए बाग़ लगाने के प्रथम वर्ष सिचाई 2-3 दिन के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार करनी चाहिए 2 से 5 वर्ष पर 4-5 के अन्तराल पर आवश्यकताअनुसार करनी चहियेI तथा जब पेड़ो में फल लगने लगे तो दो तीन सिचाई करनी अति आवश्यक हैI आम के बागो में पहली सिचाई फल लगने के पश्चात दूसरी सिचाई फलो का काँच की गोली के बराबर अवस्था में तथा तीसरी सिचाई फलो की पूरी बढवार होने पर करनी चाहिएI सिचाई नालियों द्वारा थालो में ही करनी चाहिए जिससे की पानी की बचत हो सकेI
गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण
आम की फसल में निराई गुड़ाई और खरपतवारो का नियंत्रण हमारे किसान भाई किस प्रकार करे?
आम के बाग को साफ रखने के लिए निराई गुड़ाई तथा बागो में वर्ष में दो बार जुताई कर देना चाहिए इससे खरपतवार तथा भूमिगत कीट नष्ट हो जाते है इसके साथ ही साथ समय समय पर घास निकलते रहना चाहिएI
रोग और नियंत्रण

आम की फसल में कौन कौन से रोग लगते है और उसका नियंत्रण हम किस प्रकार करें?

आम के रोगों का प्रबन्धन कई प्रकार से करते हैI जैसे की पहला आम के बाग में पावडरी मिल्ड्यू यह एक बीमारी लगती है इसी प्रकार से खर्रा या दहिया रोग भी लगता है इनसे बचाने के लिए घुलनशील गंधक 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में या ट्राईमार्फ़ 1 मिली प्रति लीटर पानी या डाईनोकैप 1 मिली प्रति लीटर पानी घोलकर प्रथम छिडकाव बौर आने के तुरन्त बाद दूसरा छिडकाव 10 से 15 दिन बाद तथा तीसरा छिडकाव उसके 10 से 15 दिन बाद करना चाहिए आम की फसल को एन्थ्रक्नोज फोमा ब्लाइट डाईबैक तथा रेडरस्ट से बचाव के लिए कापर आक्सीक्लोराईड 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तरालपर वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर दो छिडकाव तथा अक्टूबर-नवम्वर में 2-3 छिडकाव करना चाहिएI जिससे की हमारे आम के बौर आने में कोइ परेशानी न होI इसी प्रकार से आम में गुम्मा विकार या माल्फर्मेशन भी बीमारी लगती है इसके उपचार के लिए कम प्रकोप वाले आम के बागो में जनवरी फरवरी माह में बौर को तोड़ दे एवम अधिक प्रकोप होने पर एन.ए.ए. 200 पी. पी. एम्. रसायन की 900 मिली प्रति 200 लीटर पानी घोलकर छिडकाव करना चहियेI इसके साथ ही साथ आम के बागो में कोयलिया रोग भी लगता हैI जिसको की क
सान भाई सभी आप लोग जानते है इसके नियंत्रण के लिए बोरेक्स या कास्टिक सोडा 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिडकाव फल लगने पर तथा दूसरा छिडकाव 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए जिससे की कोयलिया रोग से हमारे फल ख़राब न हो सकेI

कीट और उनका नियंत्रण

कौन - कौन से कीट है, जो आम में लगते है, और उनका नियंत्रण किस प्रकार होना चाहिए?
आम में भुनगा फुदका कीट, गुझिया कीट, आम के छल खाने वाली सुंडी तथा तना भेदक कीट, आम में डासी मक्खी ये कीट हैI आम की फसल को फुदका कीट से बचाव के लिए एमिडाक्लोरपिड 0.3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिडकाव फूल खिलने से पहले करते हैI दूसरा छिडकाव जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाये, तब कार्बरिल 4 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलकर छिडकाव करना चाहिएI इसी प्रकार से आम की फसल को गुझिया कीट से बचाव के लिए दिसंबर माह के प्रथम सप्ताह में आम के तने के चारो ऒर गहरी जुताई करे, तथा क्लोरोपईरीफ़ास चूर्ण 200 ग्राम प्रति पेड़ तने के चारो बुरक दे, यदि कीट पेड़ पर चढ़ गए हो तो एमिडाक्लोरपिड 0.3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर जनवरी माह में 2 छिडकाव 15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए तथा आम के छल खाने वाली सुंडी तथा तना भेदक कीट के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास 0.5 प्रतिशत रसायन के घोल में रूई को भिगोकर तने में किये गए छेद में डालकर छेद बंद कर देना चाहिएI एस प्रकार से ये सुंडी ख़त्म हो जाती हैI आम की डासी मक्खी के नियंत्रण के लिए मिथाईलयूजीनाल ट्रैप का प्रयोग प्लाई लकड़ी के टुकडे को अल्कोहल मिथाईल एवम मैलाथियान के छः अनुपात चार अनुपात एक के अनुपात में घोल में 48 घंटे डुबोने के पश्चात पेड़ पर लटकाए ट्रैप मई के प्रथम सप्ताह में लटका दे तथा ट्रैप को दो माह बाद बदल देI

फल वृक्षों का पोषण: 

आम के पौधों में खाद एवं उर्वरक निम्नानुसार दें : क्र. वर्ष गोबर की खाद (कि.ग्रा.) नीम की खली (कि.गा.) युरिया (ग्रा) सिंगल सुपर फॉस्फेट (ग्रा.) म्युरेट ऑफ पोटाश (ग्रा.) 1. 1 से 3 25 2 200 150 150 2. 4 से 10 40 3 900 800 600 3. 10 वर्ष पश्चात् 75 3 2000 1500 800 नोट: उपरोक्त खाद एवं उर्वरक की मात्रा भूमि परीक्षण के पश्चात् परिणाम के अनुसार परिवर्तित करें। 

पौधे की देखरेख: 

आम के पौधे की देखरेख उसके समुचित फलन एवं पूर्ण उत्पादन हेतु आवश्यक है। पौधों को लगाने के बाद पौधों के पूर्ण रूप से स्थापित होने तक, सिंचाई करें। प्रारंभिक दो तीन वर्षों तक लू से बचाने के लिये सिंचाई करें। ज़मीन से 80 से.मी. की ऊँचाई तक की शाखाओं को निकाल दें, जिससे मुख्य तने का समुचित विकास हो सके। ग्राफ्टिंग के स्थान के नीचे से कोई शाखा नहीं निकलनी चाहिये। ऊपर की 3-4 शाखाओं को बढ़ने दें। बड़े छत्रक वाले घने वृक्षों में, न फलने वाली बीच की शाखाओं को काट दें। फलों को तोड़ने के बाद मंजर के साथ-साथ 2-3 से.मी. टहनियों को काट दें ताकि स्वस्थ्य शाखायें निकलें। अगले मौसम में अच्छा फलन होगा। 


पौध संरक्षण के अंतर्गत कीट तथा रोग नियंत्रण कर पौध सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। यह इस प्रकार हैं – 
कीट नियंत्रण 

आम का फुदका (मैंगो हॉपर): 
इस कीड़े का प्रकोप फरवरी एवं मार्च महीने में होता है। वयस्क कीड़े हल्के भूरे रंग के होते हैं जिनके शरीर पर काली एंव पीली रेखायें होती हैं, सिर बड़ा तथा शरीर पीछे की ओर नुकीला होता है। कीट के शिशु की सफेद तथा लाल आँख होती है जो बाद में पीले रंग की हो जाती हैं। शिशु तथा वयस्क दोनों फूलों एवं पत्तियों का रस चूसते है। परिणामस्वरूप फूल एवं फल झड़ने लग जाते हैं। कीट, चिपचिपा रस उत्सर्जित करें जो पत्तियों पर फैल जाता है एवं काली फफूँदी उत्पन्न हो जाती है। जिससेे पौधे का प्रकाश संश्लेषण कम हो जाता है तथा पौधे कमज़ोर हो जाते हैं। 

नियंत्रण:
 इस कीट की रोकथाम के लिये फॉस्फोमिडॉन का 0.04 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। 

आम का फुंगा (मिली बग): 

कीट के बदन का रंग लाल, सिर, पंख, टाँगे तथा ऐंटिनी काले होते हैं। सिर छोटा, काला, बिना मुखांग वाला होता है। मादा कीट का शरीर कोमल, कुछ लालिमा लिये हुये हल्का भूरा होता है। जो मोम से ढक जाने के कारण सफेद दिखाई देता है। उदर में दस खंड स्पष्ट दिखाई देते हैं। कीट नवम्बर माह में सर्वप्रथम जड़ों के पास हज़ारों की संख्या में पाये जाते हैं। फरवरी माह में कीट के निम्फ नई टहनियों, बौर की मुजरियों से रस चूसते हैं जिससे फूल एवं फल झड़ते हैं। 

नियंत्रण:
कीट के नियंत्रण हेतु दिसम्बर-जनवरी माह में तने के चारों ओर गुड़ाई तथा क्लोरपायरीफाॅस या मिथाईल पैराथियॉन के 200 ग्राम चूर्ण का भुरकाव करें अथवा पाॅलीथिन की चादर से तने पर 20 से.मी. की पट्टी एवं ग्रीस लगाने से भी कीट का नियंत्रण किया जा सकता है। 

दीमक: 
दीमक के प्रकोप से तने पर मिट्टी की एक पर्त चढ़ जाती है। कीट, पौधे की छाल एवं अन्य भागों को खाता है। नियंत्रण: इसके नियंत्रण हेतु थीमेट (10 जी) 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर या मिथाईल पैराथियॉन (10 प्रतिशत) 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर भूमि में मिला कर इसका नियंत्रण करें। नियमित सिंचाई भी इसके नियंत्रण में महत्वपूर्ण योगदान देती है। 

रोग नियंत्रण 
कालव्रण (एन्थे्रक्नोज़): 
इस बीमारी का प्रकोप नई पत्तियों, टहनियों, फूलों और फलों पर होता है। शुरू में छोटे भूरे धब्बे बनते हैं और बाद में आपस में मिलकर बड़े-बड़े गोल भूरे धब्बे बनाते हैं। भंडारण के समय फलों पर गोल, भूरे धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में काले भूरे रंग के हो जाते हैं। 

नियंत्रण: 
मानेब 2 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। ब्लाईटॉक्स 3 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से भी रोग पर काबू पा सकते हैं। फलों को बेनलेट या कार्बैंडाज़िम के घोल में डुबाकर भंडारण करने से भी रोग को रोका जा सकता है। 

बंचीटाप (मैंगो मैलफार्मेशन): 

इस रोग में मंजरी एक गुच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाती है जो अधिक कड़े एवं हरे होते हैं इसमें सिर्फ नर फूल ही होते हैं। जिसके कारण इसमें फल नहीं लगते। नियंत्रण हेतु अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में गुच्छों की कटाई कर प्लैनोफिक्स 200 पी.पी.एम. का छिड़काव करें। 

कोलसी (सूटी मोल्ड): 

यह रोग कीड़ो द्वारा निकाले हुये चिपचिपे मीठे पदार्थ के कारण फैलता जा रहा है। इस चिपचिपे पदार्थ पर काली फफूँद की पपड़ी सी बन जाती है। यह काली फफूँद टहनियों को भी ढक लेता है, जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रूकने के कारण पौधों का विकास रूक जाता है। 

नियंत्रण 
वेटासुल (0.2 प्रतिशत), मैटासिड (0.1 प्रतिशत), गम-एकेसिया (0.3 प्रतिशत) के छिड़काव कर रोग को प्रभावी ढंग से रोकें। डायमिथियोएट अथवा मिथाईल डेमेटॉन कीटनाशी का 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें जिससे भुनगे, हॉपर और अन्य कीट नियंत्रित हो जायें। काली पपड़ी हटाने के लिये 2 ग्राम घुलनशील स्टार्च प्रति लीटर पानी में घोल कर पत्तियों पर छिड़काव करें। 



पौध संरक्षण 

पौध संरक्षण के अंतर्गत कीट तथा रोग नियंत्रण कर पौध सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। यह इस प्रकार हैं – 
कीट नियंत्रण 

आम का फुदका (मैंगो हॉपर): 
इस कीड़े का प्रकोप फरवरी एवं मार्च महीने में होता है। वयस्क कीड़े हल्के भूरे रंग के होते हैं जिनके शरीर पर काली एंव पीली रेखायें होती हैं, सिर बड़ा तथा शरीर पीछे की ओर नुकीला होता है। कीट के शिशु की सफेद तथा लाल आँख होती है जो बाद में पीले रंग की हो जाती हैं। शिशु तथा वयस्क दोनों फूलों एवं पत्तियों का रस चूसते है। परिणामस्वरूप फूल एवं फल झड़ने लग जाते हैं। कीट, चिपचिपा रस उत्सर्जित करें जो पत्तियों पर फैल जाता है एवं काली फफूँदी उत्पन्न हो जाती है। जिससेे पौधे का प्रकाश संश्लेषण कम हो जाता है तथा पौधे कमज़ोर हो जाते हैं। 

नियंत्रण:
 इस कीट की रोकथाम के लिये फॉस्फोमिडॉन का 0.04 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। 

आम का फुंगा (मिली बग): 

कीट के बदन का रंग लाल, सिर, पंख, टाँगे तथा ऐंटिनी काले होते हैं। सिर छोटा, काला, बिना मुखांग वाला होता है। मादा कीट का शरीर कोमल, कुछ लालिमा लिये हुये हल्का भूरा होता है। जो मोम से ढक जाने के कारण सफेद दिखाई देता है। उदर में दस खंड स्पष्ट दिखाई देते हैं। कीट नवम्बर माह में सर्वप्रथम जड़ों के पास हज़ारों की संख्या में पाये जाते हैं। फरवरी माह में कीट के निम्फ नई टहनियों, बौर की मुजरियों से रस चूसते हैं जिससे फूल एवं फल झड़ते हैं। 

फलों को तोड़ने का समय

आम की फसल कीखतरा नहीं रहता हैI तुड़ाई के समय फलो को चोट व् खरोच न लगने दें, तथा मिटटी के सम्पर्क से बचायेI आम के तुड़ाई कब करनी चाहिए और किस प्रकार करनी चाहिए?
आम की परिपक्व फलो की तुड़ाई 8 से 10 मिमी लम्बी डंठल के साथ करनी चाहिए, जिससे फलो पर स्टेम राट बीमारी लगने का  फलो का श्रेणीक्रम उनकी प्रजाति, आकार, भार, रंग व परिपक्ता के आधार पर करना चाहिएI

उपज

आम की फसल से औसतन उपज कितनी प्राप्त कर सकते है?
रोगों एवं कीटो के पूरे प्रबंधन पर प्रति पेड़ लगभग 150 किलोग्राम से 200 किलोग्राम तक उपज प्राप्त हो सकती हैI लेकिन प्रजातियों के आधार पर यह पैदावार अलग-अलग पाई गयी हैI दी गई जानकारी के अन्य संस्करण के लिए कृपया नीचे एग्रोपीडिया पर क्लिक करें

तुड़ाई एंव भंडारण: 

आम किस्म के अनुसार, 85-105 दिनांे में पकते हैं। फलों को काटने पर गूदे का रंग हल्का पीला हो तो फल को पका हुआ समझें। आम के पके फलों की तुड़ाई सुबह के समय इस प्रकार करें ताकि फलों को चोट एवं खरोंच न आये, चोटिल फलों पर फफूँद के प्रकोप से सड़न पैदा हो जाती है। जिससे आर्थिक हानि होती है फलों को तुड़ाई के बाद छायादार स्थानों में रखें। अगर प्रशीतन की सुविधा हो तो इन फलों को प्रशीतित करें जिससे फलों की भंडारण क्षमता बढ़ जाती है। यह सुविधा उपलब्ध न होने पर फलों को ठंडे पानी में धोकर हवादार एवं छाया वाले स्थान में सुखा लें। आम के फलों का श्रेणीकरण फलों के आकार, किस्म, वजन, रंग व परिपक्वता के आधार पर करें। फलों को सुरक्षित भंडारण, परिवहन तथा विपणन के लिये पैक करना अति आवश्यक है। भारत में अधिकतर फल बाँस, अरहर, शहतूत, फालसा आदि की लकडि़यों की बनी टोकरियों में पैक किये जाते हैं।

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उद्देश्‍य
परियोजना का केन्‍द्र बिन्‍दु प्रेरणा प्रशिक्षण सूचना का प्रसार, कृषि/स्‍पॉन की खेती के लिए तकनीकी एवं वित्तीय सहायता, कटाई, भण्‍डारण, प्रसंस्‍करण, आवेष्‍टन, किसानों के साथ विपणन सम्‍पर्क होने चाहिए ताकि रोजगार के अवसर में वृद्धि की जा सके तथा आय सृजित की जा सके।


परियोजना में निम्‍नलिखित एक कार्यकलाप अथवा सभी को शामिल किया जाए
जागरूरता सृजन, अभिप्रेरण तथा मशरूम की खेती में किसानों की भागीदारी।
परियोजना का लक्ष्‍य महिलाओं, लघु, सीमांत एवं भूमिहीन किसानों, ग्रामीण युवकों आदि के लिए तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करना होना चाहिए।
स्‍पान के विकास/कृषि केंद्रों के लिए तकनीकी एवं वित्तीय सहायता प्रदान करना।
किसानों तथा जनजातियों में मशरूम की विभिन्‍न प्रजातियों के लिए उपलब्‍ध बाजार के बारे में सूचना का प्रसार करना। संग्रहीत उत्‍पाद के लिए उपयुक्‍त बाजार की निशानदेही एवं व्‍यवस्‍था करना।
किसानों एवं विपणकों के लिए समान मंच प्रदान करने हेतु बैठकों / सेमिनारों / कार्यशालाओं का आयोजन
स्‍पॉन/कृषि की तैयारी के संबंध में महत्‍वपूर्ण सूचना का प्रलेखन तथा प्रकाशन, विभिन्‍न प्रकार के मशरूमों की खेती की तकनीक, उनका अर्द्ध प्रसंस्‍करण तथा परिरक्षण, गुणवत्ता नियंत्रण आवेष्‍टन एवं विपणन।
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सरीफा की खेती

शरीफा (सीताफल)एक मीठा व स्वादिष्ट फल हैं | इसका वानस्पतिक नाम अनोनस्क्चैमोसा है। जिसमें काफी मात्रा में कैलोरी पायी जाती हैं। यह आयरन और विटामिन सी से भरपूर होता है। शरीफा औषधीय महत्व का भी पौधा है। इसकी पत्तियाँ हृदय रोग में टॉनिक का कार्य करता है क्योंकि इसकी पत्तियों में टेट्राहाइड्रो आइसोक्विनोसीन अल्कलायड पाया जाता है। इसकी जड़े तीव्र दस्त के उपचार में लाभकारी होती हैं। शरीफे के बीजों से निकालकर सुखाई हुई गिरी में 30 प्रतिशत तेल पाया जाता है, इससे साबुन तथा पेन्ट बनाया जाता है। पोषण की दृष्टि से भी शरीफा का फल काफी अच्छा माना गया है। फलों में 14.5 प्रतिशत शर्करा पाई जाती है जिसमें ग्लूकोज की अधिकता होती है। फलों के गूदे को दूध में मिलाकर पेय पदार्थ के रूप में उपयोग किया जाता है एवं आइस्क्रीम इत्यादि बनाया जाता है।
सीताफल (शरीफा) उगाने वाले क्षेत्र
यह भारत में सभी जगहों में पाया जाता है। विशेष रूप से महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आंध्र प्रदेश में ज्यादा देखे जा सकते हैं।

जलवायु
शरीफा का पौधा काफी सहिष्णु (कठोर) होता है, और शुष्क जलवायु में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसके पोधों पर पाले का भी असर कम पड़ता हैं। अधिक ठंडे मौसम में फल कड़े हो जाते हैं, तथा पकते नही हैं। फूल आने के समय शुष्क मौसम होना आवश्यक होता है परंतु 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर फूल झड़ने लगते हैं। वर्षा ऋतु आने के साथ फल लगने प्रारंभ हो जाते है। सीताफल हेतु 50-75 से.मी. वार्षिक औसत वर्षा उचित मानी जाती है। झारखंड के हजारीबाग, राँची, साहेबगंज, पाकुड़, गोड्डा इत्यादि जिलों में इसकी अच्छी खेती की जा सकती है।

भूमि की तैयारी
 शरीफा के पौधे लगभग सभी प्रकार के भूमि में पनप जाते हैं परन्तु अच्छी जल निकास वाली दोमट मिट्टी , हलकी दोमट रेतीली मिट्टी,पथरीली,जमीन और ढालू जमीन जहां पर पानी का निकास पूर्ण हो इसकी बढ़वार एवं पैदावार के लिये उपयुक्त होती है। कमजोर एवं पथरीली भूमि में भी इसकी पैदावार अच्छी होती है। इसका पौधा भूमि में 50 प्रतिशत तक चूने की मात्रा सह लेता है। भूमि का पी.एच.मान 5.5 से 6.5 के बीच अच्छा माना जाता है। लेकिन इसे 7-9 p.h मान वाली भूमि पर भी उत्पादन लिया जा सकता है।

गड्ढे तैयार करना
उद्यान लगाने से 2 महीने पहले 50 ग 50 ग 50 से. मी. आकार के गड्ढे 4.5 से 5.0 मीटर की दूरी पर खोद लें। एक महीने तक गड्ढे खुदे रहने के बाद 10-15 किलो पकी हुई गोबर की खाद तथा आवश्यकतानुसार 250 ग्राम सुपर फास्फेट तथा 50 ग्राम म्यूरेट आॅफ पोटाश मिट्टी में मिला दें। दीमक के बचाव के लिये लिन्डेन की 100 ग्राम मात्रा प्रति गड्ढा मिलायें। गड्ढे की खुदाई के समय 25 से.मी. की गहराई तक की मिट्टी एक तरफ तथा निचली 25 से.मी. गहराई मिट्टी दूसरी तरफ डालें तथा भरते समय उपर की मिट्टी नीचे तथा नीचे वाली मिट्टी के साथ खाद मिला कर उपर भर दें।

बोने की विधि
बरसात पूर्व 4×4 मीटर की दूरी पर 60×60 सेमी चौड़े और 80 सेमी गहरे गड्ढे खोद लिये जाते हैं। गड्ढों से निकली हुई मिट्टी में सड़ी हुई गोबर की खाद और प्रति गड्ढा 100 ग्राम D.A.P. मिला कर एक दो अच्छी बरसात हो जाने के बाद पौधों को गड्ढों में रोप दिया जाता है।

सीताफल की कुछ उत्त्म जातियाँ निम्नानुसार हैं
1 अर्का सहान
यह एक संकर किस्म है जिसे भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर से विकसित किया गया हैं। यह किस्म अपने मीठे स्वाद, सफेद गूदे, उन्नत भण्डारण क्षमता व कम बीजों (9 ग्राम/100 ग्राम फल भार) के कारण पहचानी जाती है। इसमें शर्करा 22.8 प्रतिशत प्रोटीन 2.49 प्रतिशत फाॅस्फोरस 42.29 मिलीग्राम, कैल्शियम 225 मिलीग्राम पाया जाता हैं। जबकि सीताफल की अन्य किस्मों में प्रोटीन 1.33 प्रतिशत फाॅस्फोरस 17.05 मि.ग्रा. व कैल्शियम 159 मि.ग्रा. पाया जाता हैं।

2 लाल सीता फल
इस किस्म के फल हल्के गुलाबी रंग के एवं आकर्षक होते हैं। फलों में बीजों की संख्या अधिक होती है तथा औसतन प्रति पेड़ प्रति वर्ष 40-50 फल आते हैं। फलों में 30.5 प्रतिशत गुदा, कुल विलेय ठोस (कुल घुलनशील पदार्थ) 22.3 प्रतिशत तथा अम्लता 0.24 प्रतिशत होती हैं।

3 मैमथ
फल गोलाकार, आँखे बड़ी तथा गोलाकार होती हैं। फलों का स्वाद अच्छा होता हैं। प्रति वृक्ष 60-80 फल प्राप्त होते हैं। फल की फाँके गोलाई लिये काफी चैड़ी होती हैं। फलों में 44.8 प्रतिशत गूदा, कुल विलेय ठोस 20 प्रतिशत तथा अम्लता 0.19 प्रतिशत होती हैं।

4 बालानगर
फलों का औसतन भार 137 ग्राम और औसत उपज 5 से 7 कि.ग्राम प्रति वृक्ष होती हैं।

5 बारबाडोज सीडलिंग
फलों का भार 145 ग्राम तक होता है, औसत उपज 3.5 से 4.5 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष होती है।

6 ब्रिटिश ग्वाईना
फलों का औसत भार लगभग 150 ग्राम होता हैं एवं औसत उपज लगभग 4-5 किलो ग्राम प्रति वृक्ष होती है।

पौधे की रोपाई:-
शरीफा की खेती के लिए पौधे को दो तरीके से की जा सकती हैं।
1 नर्सरी में पौधा तैयार कर के
2 बारिश में कलम द्वारा

1. पौधों को पौधशाला (नर्सरी) से रोपने की जगह पर लायें।
2. प्रत्येक गड्ढे के पास में एक पौधा रखते जायें।
3. पाॅलीथिन की थैली या पिण्ड के आकार एवं माप के अनुसार ही गड्ढे में जगह खाली रखें।
4. मिट्टी के पिंड के बाहर लगी पुआल या घास को हटा दें। यदि पौधे पाॅलीथिन की थैली में उगायें, तो चाकू से उपर से नीचे तक चीर दें। इसके बाद पौधों को थैली से बाहर मिट्टी के पिंड सहित निकालें। पाॅलीथिन की थैली को पूरी तरह अलग कर दें।
5. पौधों को मिट्टी के पिंड के साथ आधे भरे हुए गड्ढे के बीचो-बीच रखें। अब इसके चारों तरफ मिट्टी डालें और पैर से अच्छी तरह दबा दें।
6. पौध रोपण हमेशा शाम के समय करें।
7. पौधे जुलाई-अगस्त तथा फरवरी-मार्च में लगायें।
शरीफा के पौधे को बरसात में लगाना सबसे अच्छा रहता है । इसलिए बरसात पूर्व 4×4 मीटर की दूरी पर 60×60 सेमी.  चौड़े और 80 सेमी. गहरे खड्डे खोदे। खड्डो से निकली हुई मिट्टी में 30 प्रतिशत अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद् और प्रति खड्डा 100 ग्राम डी ए पी मिला कर एक दो अच्छी बरसात हो जाने के बाद पौधों को खड्डो में रोपाई कर दे और ऊपर से हाथों से तने की आसपास की मिट्टी को दबा दे नर्सरी में तैयार अच्छी किस्म के पौधे की कीमत 70 से 100 रूप ये तक होती है।एक हेक्टेयर में अनुमानित 450 पौधे तक लग सकते है।

खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार नियंत्रण हेतु समय-समय पर निकाई-गुड़ाई करते रहना चाहिए। खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए।

सीताफल के खाद एवं उर्वरक
सीताफल को अधिकांशतयः कमजोर मिट्टी या अनुउपजाउ भूमि पर लगाते हैं, जहाँ खाद व उर्वरकों का उपयोग नही किया जाता हैं। अतः अच्छे फल एवं अधिक उत्पादन के लिये आवश्यक खाद एवं उर्वरकों की मात्रा समय समय पर दें।

पौधे की आयु गेबर की खाद (कि.गा्र.) अमोनियम सल्फेट(ग्राम) सिंगल सुपर फास्फेट(ग्राम) म्यरेट आॅफ पोटाश(ग्राम)
 पौधा लगाते समय 10 50 100 25
 1-3 वर्ष 20 100 200 50
 4-7 वर्ष 20 150 300 75
 8 वर्ष या अधिक 20 200 400 100
खाद एवं उर्वरक सामान्य नियमों के अनुसार दें। इन्हें माॅनसू के आने के समय बगीचों में डालना लाभप्रद होता है। इसके अतिरिक्त वर्षा ऋतु के प्रारंभ में सनई, मूँग या उड़द जैसी फसल बो कर तथा फूल आने के थोड़ा पहले इसे मिट्टी में जोत कर मिलाने से काफी लाभ होता हैं।

सिंचाई कैसे करे
अगर पौधे लगाने के बाद बरसात आती रहे हो सिंचाई के कोई आवश्यकता नही होती है। लेकिन बारिश ना आने पर अगर पौधे मुरझाये हुए हो तो एक बार सिंचाई कर दे और गर्मी के दिनों में एक week में सिंचाई करे और सर्दी के दिनों में महीने भर में एक बार सिंचाई कर सकते है। फल लगते समय एक सिंचाई ज़रुर करे ताकि व्रद्धि दर बड सके

सधाई एवं छटाई
सधाई आवश्यकतानुसार एक निश्चित रूप प्रदान करने के लिये आवश्यक हैं। समय -समय पर सूखी टहनियों को काट दें एवं फल तुड़ाई पश्चात अनावश्यक रूप से बढी हुई शाखाओं की पेड़ को आकार देने के लिये हल्की छटाई करें।

रोग और किट
इस पर किसी भी प्रकार के रोग नही आते है।लेकिन कभी कभी पत्तियों को नुकसान पहुँचने वाले किट और बग़ आ जाये तो दवाई का स्प्रे कर उन्हें ख़तम कर दे और मौसम में परिवर्तन या अन्य कारणों से यदि फूल जड़ने लगे तो भी आप दवाई का उपयोग कर सकते है।

पुष्पन एवं फलन
शरीफा में पुष्पन काफी लम्बे समय तक चलता है। उत्तर भारत में मार्च से ही फूल निकलना प्रारंभ हो जाता है और जुलाई तक आता है। पुष्प कालिका के आँखों से दिखाई पड़ने की स्थिति से लेकर पूर्ण पुष्पन में लगभग एक महीने तथा पुष्पन के बाद फल पकने तक लगभग 4 महीने का समय लगता है। पके फल सितम्बर-अक्टूबर से मिलना शुरू हो जाते है। बीज द्वारा तैयार किये गये पौधे तीसरे वर्ष फल देना प्रारंभ करते हैं जबकि बडिंग एवं ग्राफ्टिंग द्वारा तैयार पौधे दूसरे वर्ष में अच्छी फलन देने लगते है। फूल खिलने के तुरन्त बाद 50 पी.पी.एम. जिबरेलिक एसिड के घोल का छिड़काव कर देने से फलन अच्छी होती है।

फलो की तुड़ाई
एक स्वस्थ सीताफल के पेड़ से औसत 80-100 फल मिल जाते है। फल जब पेड़ पर कठोर हो जाये तब उसे तोड़ लेना चाहिए ज्यादा दिनों तक पेड़ पर फल रहने से वो सख़्त हो कर फट जाता है। सामान्य रूप से पेड़ से फलो को तोड़ने के 6-9 दिनों में पक जाते है। लेकिन इन्हें कृत्रिम रूप से भी पकाया जा सकता है।पेड़ पर पके हुए फल की पहचान आप फल पर काले भूरा रंग के धब्बों जिन्हें ग्रामीण बोली में आँख दिखना कहते है। कर सकते है। पके हुए फलो की बाज़ार में कीमत लगभग 150 किलो तक रहती है।

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इलायची के खेती

 इलायची का सेवन आमतौर पर मुखशुद्धि के लिए अथवा मसाले के रूप में किया जाता है। यह दो प्रकार की आती है- हरी या छोटी इलायची तथा बड़ी इलायची। भारत इलायची के छोटे जैविक खेती का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है,  बड़ी इलायची व्यंजनों को लजीज बनाने के लिए एक मसाले के रूप में प्रयुक्त होती है, वहीं हरी इलायची मिठाइयों की खुशबू बढ़ाती है।
 यह औषधीय गुणों की खान है। संस्कृत में इसे एला कहा जाता है।

परिचय
छोटी इलायची का पौधा सदा हरा तथा पाँच फुट से १० फुट तक ऊँचा होता है। इसके पत्ते बर्छे की आकृति के तथा दो फुट तक लंबे होते हैं। यह बीज और जड़ दोनों से उगता है। तीन चार वर्ष में फसल तैयार होती है तथा इतने ही काल तक इसमें गुच्छों के रूप में फल लगते हैं। सूखे फल बाजार में 'छोटी इलायची' के नाम से बिकते हैं। पौधे का जीवकाल १० से लेकर १२ वर्ष तक का होता है। समुद्र की हवा और छायादार भूमि इसके लिए आवश्यक हैं। इसके बीज छोटे और कोनेदार होते हैं। मैसूर, मंगलोर, मालाबार तथा श्री लंका में इलायची बहुतायत से होती है।

रोपण के लिए भूमि की तैयारी
रोपण के लिए जमीन तैयार करते समय मैला क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में मिट्टी और जल संरक्षण के उपाय जरूरी हैं। कम वर्षा वाले क्षेत्रों, विकर्ण रोपण में ढलानों भर में खाइयों में रोपण और मिट्टी मिट्टी और जल संरक्षण में मदद मिलेगी.

खाद डालना
ऐसे नीम की खली 1 किलो या मुर्गी की खाद / संयंत्र प्रति farmyard खाद / कम्पोस्ट / वर्मीकम्पोस्ट 2kg के रूप में जैविक खाद का आवेदन मई-जून के दौरान एक वर्ष में एक बार किया जा सकता है। मसूरी रॉक फास्फेट या हड्डी भोजन के अनुप्रयोग मिट्टी विश्लेषण के आधार पर, आवश्यक पाया, तो किया जा सकता है।

रोग
इलायची को प्रभावित करने वाले प्रमुख फंगल रोगों azhukal (Phytophthora medii) और पेड़ों का झुरमुट सड़ांध हैं (Pythium vexans, Rhizoctonia सोलानी और Fusarium सपा।)। ट्राइकोडर्मा का निगमन संयंत्र आधार (पेड़ों का झुरमुट प्रति 1 किलो) मानसून के मौसम की शुरुआत (मई) के लिए पहले पेड़ों का झुरमुट सड़ांध रोग के लिए एक रोगनिरोधी ऑपरेशन है में उपयुक्त जैविक माध्यम में गुणा। आवश्यक पाया जब बोर्डो मिश्रण 1% का उपयोग करने के लिए सहारा की जा सकती है। वायरस से प्रभावित पौधों की नियमित rouging प्रसार को कम करने के लिए किया जाना चाहिए। Rouged पौधों को जलाकर नष्ट कर दिया जाना चाहिए।

कीट
Drooping सूखे पत्ते, सूखी पत्ती म्यान, पुराने panicles और अन्य शुष्क संयंत्र भागों का हटाया बागान में कीट inoculum को कम करने के लिए सिफारिश की एक महत्वपूर्ण स्वच्छता विधि है। मैकेनिकल संग्रह और कीट के अंडे की जनता का विनाश, बालों कमला (Eupterote सपा) और जड़ GRUB (Balepta fuliscorna) की भृंग के लार्वा कीट क्षति को कम करने में अन्य दृष्टिकोण हैं। बाद के पुनरुत्थान कम किया जा सकता है, ताकि जैसे ही स्टेम बोरर (Conogethes punctiferalis) के बोर होल गौर कर रहे हैं, के रूप में बोर होल में बेसिलस thuringiensis तैयारी (10 मिलीलीटर पानी में 0.5 मिलीग्राम) के इंजेक्शन के लार्वा को मार देंगे। खेती की जैविक विधियों सफेद मक्खियों के प्रकोप को अपनाया जहाँ भी रहे हैं (Dialeurodes cardamomi) शायद ही कभी मनाया जाता है। हालांकि इस तरह के प्रकोप, न्यूनतम कास्टिक सोडा (500 मिलीलीटर नीम और पानी की 100 लीटर में 500 ग्राम नरम साबुन) से बाहर कर दिया नरम साबुन के साथ नीम का तेल छिड़काव द्वारा पीला चिपचिपा जाल और nymphs के नियंत्रण का प्रयोग वयस्कों के संग्रह की स्थिति में होना करने के लिए है पीछा किया। नेमाटोड, के लिए प्रवण क्षेत्रों में (Meloidogine सपा।) को कुचल दिया नीम के बीज के आवेदन की समस्याओं की देखभाल कर सकते हैं। मछली के तेल राल साबुन के अनुप्रयोग के प्रबंध कीटों (Sciothrips cardamomi) के लिए किया जा सकता है। मालाबार किस्मों एक निश्चित सीमा तक कीटों के प्रति सहनशील होना पाया जाता है। नियमित निगरानी समय पर पता लगाने और इलायची को प्रभावित करने वाले कीटों के खिलाफ उपचारात्मक उपायों को अपनाने के लिए बिल्कुल जरूरी है।

हार्वेस्ट और पोस्ट हार्वेस्ट आपरेशन
फसल कटाई के बाद, हौसले से काटा कैप्सूल गंदगी से साफ करने की जरूरत है। इलायची कैप्सूल का इलाज अधिकतम सीमा तक हरे रंग बनाए रखने के द्वारा एक अधिकतम तापमान में 8-12% से 80% से नमी को कम करने के द्वारा किया जाता है। इलायची दो तरीकों से ठीक किया जा सकता है।

सूर्य सुखाने
इलायची सीधे धूप के तहत सूख रहा है। सूर्य सुखाने आम तौर पर 5-6 दिनों की आवश्यकता है। यह बरसात के मौसम के दौरान भरोसेमंद नहीं है। इस अभ्यास केवल कर्नाटक के कुछ भागों में पीछा किया जाता है। इस विधि के द्वारा, यह अच्छा हरे रंग प्राप्त करने के लिए संभव नहीं है।

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