अंगूर की खेती
अंगूर की खेती उपोष्ण कटिबंध जगहों पर भी किया जा सकता है। भारत के कई राज्यों में अंगूर की खेती बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। तथा जिसके परिणाम स्वरूप भारत में अंगूर की खेती उत्पादन एवं उत्पादकता क्षेत्रफल में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि होती जा रही है। पिछले तीन दशकों में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश बिहार में अंगूर कि खेती ने प्रगति की है जिसके फलस्वरूप भारत में अंगूर के उत्पादन, उत्पादकता एवं क्षेत्रफल में अपेक्षा से अधिक वृद्धि होती जा रही है.
अंगूर के फल का उपयोग : किशमिश, शराब आदि भी बनाया जाता है।
जलवायु
अंगूर के लिये सामान्य (न अधिक ठंड व न अधिक गर्म) जलवायु की आवश्यकता होती है। इसके लिये आर्द जलवायु हानिकारक होती हैं। अधिक ठंड हो जाने पर पौधों को हानि पहुँचती हैं
मिट्टी
अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है. अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियों में सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाई गयी है. अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है. अंगूर लवणता के प्रति कुछ हद तक सहिष्णु है. मिट्टी की गहराई 4 मीटर तथा पी.एच.मान 6.7 से 7.8 होना चाहिये। अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है. इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है.
अंगूर की खेती उपोष्ण कटिबंध जगहों पर भी किया जा सकता है। भारत के कई राज्यों में अंगूर की खेती बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। तथा जिसके परिणाम स्वरूप भारत में अंगूर की खेती उत्पादन एवं उत्पादकता क्षेत्रफल में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि होती जा रही है। पिछले तीन दशकों में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश बिहार में अंगूर कि खेती ने प्रगति की है जिसके फलस्वरूप भारत में अंगूर के उत्पादन, उत्पादकता एवं क्षेत्रफल में अपेक्षा से अधिक वृद्धि होती जा रही है.
अंगूर के फल का उपयोग : किशमिश, शराब आदि भी बनाया जाता है।
जलवायु
अंगूर के लिये सामान्य (न अधिक ठंड व न अधिक गर्म) जलवायु की आवश्यकता होती है। इसके लिये आर्द जलवायु हानिकारक होती हैं। अधिक ठंड हो जाने पर पौधों को हानि पहुँचती हैं
मिट्टी
अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है. अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियों में सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाई गयी है. अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है. अंगूर लवणता के प्रति कुछ हद तक सहिष्णु है. मिट्टी की गहराई 4 मीटर तथा पी.एच.मान 6.7 से 7.8 होना चाहिये। अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है. इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है.
अंगूर की खेती के लिये प्रजातियां
1 पूसा सीडलेस
इस किस्म के अंगूर जून के तीसरे सप्ताह में पकना शुरू होता है। यह पकने पर हरे पीले और सुनहरे हो जाते है। फल खाने के अतिरिक्त अच्छी किशमिश के लिये उपयुक्त होता है। इनके फल छोटे तथा अंडाकार होता है।
2 पूसा नवरंग
यह शीघ्र पकने वाली काफी उपज देने वाली किस्में है। इनके गुच्छे मध्यम आकार के होते है तथा फल बीज रहित होते है। यह मंदिरा बनाने के लिये उपयुक्त होता है।
3 परलेट
परलेट अंगूर उत्तरी भारत में शीघ्र पकने वाली प्रजातियों में से एक है। इसके गुच्छे थोड़ा छोटे-छोटे अविकसित फलो का होना मुख्य समस्या है तथा इसकी फली गठीले होते है और यह सफेदी लिये गोलकार आकार के होते है। इसके फल अधिक फलदायी और ओजस्वी होते है।
4 ब्यूटी सीडलेस
इस किस्मों के फल वर्षा शुरू होने से पहले मई के अंत तक पकने वाली होती है तथा यह गुच्छे में बड़े और लम्बे, गठीले वाले होते है। इसका फल मध्यम आकर का गोलाकर बीज रहित एवं काले रंग के होते है। इसमें लगभग 17-18 घुलनशील ठोस तत्व पाये जाते है।
5 थाॅमसन सीड-लेस
बेल ओजस्वी, खूब फैलने वाली होती हैं। दक्षिण व पश्चिम भाग में सफलता पूर्वक लगायी जा सकती हैं। लेकिन 5-6 वर्ष पश्चात फल में कमी आती हैं। गुच्छे मध्यम से बड़े आकार के बीज रहित मिठास 22 से 24 प्रतिशत, अम्लीयता 0.63 प्रतिशत, रस 39 प्रतिशत होता हैं।
6 अर्कावती
यह अंगूर की काली चम्पा व थाॅमसन सीडलेस की संकर किस्म हैं। बेल ओजस्वी, गुच्छे मध्यम, लगभग 500 ग्राम के होते हैं। दाने गोलाकार, सुनहरे हरे, मिठास 22-25 प्रतिशत अम्लीयता 0.6 -0.7 प्रतिशत एवं रस 70-74 प्रतिशत होता हैं।
7 फ्लेम सीडलैस
यह उन्नत किस्म गहरे जामुनी रंग वाली कड़े गूदे वाली है जिसमें उपज अधिक प्राप्त होती है तथा सभी क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं।
पौध प्रसारण एवं प्रवर्धन
अंगूर का प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है. जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जाती हैं. कलमे सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए. सामान्यतः 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लम्बी कलमें ली जाती हैं.कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए. इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊँची क्यारियों में लगा देते हैं. एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं.
बेलों की रोपाई
रोपाई से पूर्व मिट्टी की जाँच अवश्य करवा लें. खेत को भलीभांति तैयार कर लें. बेल की बीच की दुरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है. इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90 x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशीयम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें.पौधे को दीमक के प्रकोप से बचाने के लिये 5 मि.ली. क्लोरोपायरिफाॅस, 1 लीटर पानी में मिलाकर गड्ढों में सीचें फिर पौधों का रोपण कर सिंचाई करें। बढते हुये पौधों को बाँस लगा कर सहारा दें। जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को लगा दें. बेल लगाने के तुंरत बाद पानी आवश्यक है.
अंगूर उत्पादन में बेल को निश्चित रूप से सधाई करें। यह कई प्रकार की होती है, इनमें मुख्य हैं-
1 शीर्ष विधि
2 टेलीफोन तार विधि
3 मण्डप या पण्डाल विधि
इनमे से कोई भी विधि अपनाकर बेलों की सधाई करें। इनमें पण्डाल विधि उत्तम हैं।
छंटाई
बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समय पर काट - छाँट अति आवश्यक है. छंटाई कब करें : जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए. सामान्यतः काट - छांट जनवरी माह में की जाती है.
सिंचाई
नवम्बर से दिसम्बर माह तक सिंचाई की खास आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बेल सुसुप्ता अवस्था में होती है लेकिन छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है. फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई ) तक पानी की आवश्यकता होती है. क्योंकि इस दौरान पानी की कमी से उत्पादन एवं हुन्वात्ता दोनों पर बुरा असर पड़ता है. इस दौरान तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7 - 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. फल पकने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं. फलों की तुडाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए.
निंदाई एवं गुड़ाई
अंगूर के उद्यान को खरपतवार रहित रखें। थालों को हाथ से खरपतवार निकाल कर साफ करें अथवा खरपतवारनाशी रसायन का उपयोग कर उद्यान साफ करें।
खाद एवं उर्वरक
खाद उर्वरक प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थवर्ष
गोबर की खाद (किलो) 25 30 40 40
नत्रजन (ग्राम) 200 300 400 400
पोटोष (ग्राम) - 160 250 250
पोटोष (ग्राम) - 150 300 300
हार्मोन का उपयोग
फलों के आकार में वृद्धि प्राप्त करने के लिये जिब्रेलिक एसिड 40-50 पी.पी.एम. (40-50 मि.ग्रा.) 1 लीटर पानी में घोलें। फूल अवस्था तथा मूँग के दाने के बराबर वाले फल की अवस्था पर गुच्छों को घोल में डुबायें, जिससे फलों के आकार में समुचित वृद्धि होगी । यह उपचार सीडलैस किस्मों में अच्छा पाया जाता हैं।
उपज
स्वस्थ वृक्षों में 3 वर्ष पश्चात फलन प्रारंभ हो जाता है। औसत उत्पादन 15 से 28 किलो प्रति बेल प्राप्त होती है अथवा 200-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलता हैं। फल पकने के समय वातावरण स्वच्छ एवं खुला होना चाहिये। फल पकने के समय वर्षा का होना हानिकारक हैं।
पौध संरक्षण
अंगूर में कई प्रकार के रोग लगते हैं। इसकी रोकथाम के लिये नियमित रूप से पौध संरक्षण अपनायें। सामान्य तौर पर एन्थ्रेकनोज, लीफस्पाॅट, फफूँद रोग नुकसान पहुँचाते हैं। एवं स्केल तथा बीटल कीड़ा भी अक्सर नुकसान करते हैं।
1 एन्थ्रेक्नोज़
शाखाओं की लताओं पर तथा पत्तियों पर काले धब्बे देखे जाते हैं। पत्तियाँ भूरी होकर गिरने लगें तो समझें कि एन्थ्रेकनोज़ रोग का आकम्रण हुआ हैं। यह रोग कवक द्वारा फैलता हैं। इनका प्रकोप बरसात के मौसम में अधिक होता हैं। इसकी रोकथाम के लिये बोर्डो मिश्रण 3: 3: 50 का छिड़काव करें। बरसात में दो तीन बार तथा ठंड में कटाई के बाद एक छिड़काव करें।
2 लीफस्पाॅट
यह कवक रोग हैं। संक्रमित पौधों की पत्तियों पर छोटे गोल गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। तथा कुछ समय पश्चात पत्तियाँ गिर जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिये उपर लिखे फफूंद नाशक दवाओं का छिड़काव करें।
3 भभूतिया या बुकनी (पाऊडरी मिल्डयू)
इस रोग में पत्तियों एवं तनों पर सफेद चूर्ण आच्छादित हो जाता हैं । रोग बढने पर फलों पर भी चूर्ण जम जाता है इससे बचने के लिये गंधक के चूर्ण का भुरकाव करें।
4 मृदुरोमिल फफूंदी (डाऊनी मिल्डयू)
इस रोग में पत्तियों की निचली सतह पर चूर्ण जमा होता है तथा पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं। बोर्डो मिश्रण 5: 5: 50 का छिड़काव करें। रीडोमिल दवा 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें।
5 शल्क कीट (स्केल कीट)
यह कीट टहनियों का रस चूसते हैं। यह टहनियों के ढीले छिद्र के अंदर विशेषकर मोड़ के स्थान में रहते हैं। अधिक आक्रमण पर टहनियाँ सूख जाती हैं। सुषुप्तावस्था में ढीली छाल हटा कर रोगर, 30 ई.सी. 0.05 या मेटासिस्टाॅक्स 0.03 से 0.05 प्रतिशत छिड़काव करें।
6 चैफर (बीटल)
यह पत्तियों को रात में खाता हैं। दिन में छुपा रहता हैं। पत्तियों में छेद दिखाई देते हैं। वर्षा ऋतु में अधिक हानि होती हैं। क्लोरोपाईरिफाॅस 20 ई.सी. एक लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।
वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग
बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने से दानो का आकर दो गुना होता है. पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवं परलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए. जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडकाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है. यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफ़ोन में डुबाया जाये तो फलों में अम्लता की कमी आती है. फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है. यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडकाव कर दिया जाये तो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं.
फल तुड़ाई एवं उत्पादन
अंगूर तोड़ने के पश्चात् पकते नहीं हैं, अतः जब खाने योग्य हो जाये अथवा बाजार में बेचना हो तो उसी समय तोड़ना चाहिए. शर्करा में वृद्धि एवं तथा अम्लता में कमी होना फल पकने के लक्षण हैं. फलों की तुडाई प्रातः काल या सायंकाल में करनी चाहिए. उचित कीमत लेने के लिए गुच्छों का वर्गीकरण करें. पैकिंग के पूर्व गुच्छों से टूटे एवं गले सड़े दानों को निकाल दें. अंगूर के अच्छे रख - रखाव वाले बाग़ से तीन वर्ष पश्चात् फल मिलना शुरू हो जाते हैं और 2 - 3 दशक तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं. परलेट किस्म के 14 - 15 साल के बगीचे से 30 - 35 टन एवं पूसा सीडलेस से 15 - 20 टन प्रति हैक्टेयर फल लिया जा सकता है.
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