Tuesday, 7 May 2019

दालचीनी की खेती

दालचीनी (Cinnamomum verum, या C. zeylanicum) एक छोटा सदाबहार पेड़ है, जो कि 10–15 मी (32.8–49.2 फीट) ऊंचा होता है, यह लौरेसिई (Lauraceae) परिवार का है। यह श्रीलंका एवं दक्षिण भारत में बहुतायत में मिलता है। इसकी छाल मसाले की तरह प्रयोग होती है। इसमें एक अलग ही खुशबू होती है, जो कि इसे गरम मसालों की श्रेणी में रखती है।
यह वृक्ष कम पोषक तत्व युक्त लैटेराइट एवं बलुई मृदा में उगाए जा सकते हैं। इनके लिए समुद्र तट से लगभग 1000 मीटर ऊंचाई वाले स्थान अनुकूल होते हैं। यह मुख्यत: वर्षा आधारित होते हैं। इसके लिए 200-250 से मीटर वार्षिक वर्षा अनुकूल है।

भूमि की तैयारी एवं रोपण
दालचीनी को रोपण करने के लिए भूमि को साफ़ करके 50 से.मी.X50 से.मी. के गड्ढे 3 मी.X 3मी.के अन्तराल पर खोद देते हैं। इन गड्ढों में रोपण से पहले कम्पोस्ट और ऊपरी मृदा को भर देते हैं। दालचीनी के पौधों को जू-जुलाई में रोपण करना चाहिए ताकि पौधे को स्थापित होने में मानसून का लाभ मिल सके। 10-12 महीने पुराने बीज द्वारा उत्पादित पौधे,अच्छी तरह मूल युक्त कतरनें या एयर लेयर का उपयोग रोपण में करना चाहिए। 3-4 बीज द्वारा उत्पादित पौधे, मूल युक्त कतरनें या एयर लेयर पति गड्ढे में रोपण करना चाहिए। कुछ मामलों में बीजों को सीधे गड्ढे में डाल कर उसे कम्पोस्ट और मृदा से भर देते हैं । प्रारम्भिक वर्षों में पौधों के अच्छे स्वास्थ्य एवं उपयुक्त वृद्धि के लिए आंशिक छाया प्रदान करना चाहिए।

खाद एवं संवर्धन प्रक्रियाएं
वर्ष में दो बार जून-जुलाई तथा अक्तूबर-नवम्बर में घास पात को निकलना चाहिए तथा पौधों के चारों ओर की मिट्टी को अगस्त-सितम्बर में एक बार खोदना चाहिए। प्रथम वर्ष में उर्वरकों की मात्रा जैसे 20 ग्राम नाइट्रोजन, 18 ग्राम पी2 ओ5 और 25 ग्राम के2 ओ प्रति पौधा संस्तुति की गई है। दस वर्ष तथा उसके बाद उर्वरकों की मात्रा 200 ग्राम नाइट्रोजन, 180 ग्राम पी2 ओ5 तथा 200 ग्राम के2 ओ प्रति वृक्ष डालना चाहिए। इन उर्वरकों को वर्ष में दो बार समान मात्रा में मई-जून तथा सितम्बर-अक्तूबर में डालते हैं। ग्रीष्म काल में 25 कि.ग्राम हरी पत्तियों से झपनी तथा 25 कि. ग्राम एफवाईएम को भी मई- जून के मध्य डालने की संस्तुति की गई है ।

सुरक्षारोग
पर्ण चित्ती एवं डाई बैंक

पर्ण चित्ती एवं डाई बैक रोग कोलीटोत्राकम ग्लोयोस्पोरियिड्स द्वारा होता है । पत्तियों की पटल पर छोटे गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं जो नाद में एक दूसरे से मिलकर अनियमित धब्बा बनाते हैं । कुछ मामलों में पत्तों पर संक्रमित भाग छेड़ जैसा निशान दिखता हैं। बाद में पूरा पट्टी का हिस्सा संक्रमित हो जाता है तथा यह संक्रमण तने तक फैलकर डाई बैक का कारण बनता है। इस रोग को नियंत्रण करने के लिए संक्रमित शाखाओंं की कटाई-छटाई तथा 1% बोर्डियो मिश्रण का छिड़काव करते हैं।

बीजू अगंमारी

यह रोग डिपलोडिया स्पीसीस द्वारा पौधों में पौधशाला के अंदर होता है । कवक के द्वारा तने के चारों ओर हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। अत: पौधा मर जाता है । इस रोग को नियंत्रित करने के लिए 1% बोर्डियो मिश्रण का छिड़काव करते हैं ।

भूरी अगंमारी

यह रोग पिस्टालोटिया पालमरम द्वारा होता हैं । इसके मुख्य लक्षणों में छोटे भूरे रन का धब्बा पड़ता है, जो बाद में स्लेटी रंग का होकर भूरे रंग का किनारा बन जाता है। 1% बोर्डियो मिश्रण का छिड़काव करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है ।

कीट दालचीनी तितली

दालचीनी तितली (चाइलेसा कलाईटिया ) नए पौधों तथा पौधा शाला का प्रमुख कीट है तथा या साधारणत: मानसून काल के बाद दिखयी देता है। इस का लार्वा कोमल तथा नई विकसित पत्तियों को खाता है । अत्यधिक ग्रसित मामलों में पूरा पौधों पत्तियों रहित हो जाता है तथा सिर्फ पत्तियों के बीच की उभरी हुई धारी बचती है । इसकी वयस्क बड़े आकर की तितली होती है तथा यह दो प्रकारों की होती है । प्रथम बाह्य सतह पर सफेद धब्बे युक्त काले भूरे रंग के पंखों तथा दूसरी के नील सफ़ेद निशान के काले रंग के पख होते हैं। पूर्ण विकसित लार्वा लगभग 2.5 से,मि.लम्बे पार्श्व में काले धरी सहित हल्का पीले रंग का होता है । इस कीट को नियंत्रण करने के लिए कोमल तथा नई विकसित पत्तियों पर 0.05% क्वानलफोस का छिड़काव करना चाहिए ।

लीफ माइनर

लीफ माइनर (कोनोपोमोरफा सिविका) मानसून काल में पौधशाला में पौधों को अत्यधिक हानि पहुँचाने वाला प्रमुख कीट है । इसका वयस्क चमकीला स्लेटी रंग का छोटा सा सा पतंगा होता है। इसका लार्वा प्रावस्था में हल्के स्लेटी रंग का तत्पश्चात गुलाबी रंग का 10 मि.मीटर लम्बा होता। यह कोमल पत्तियों के ऊपरी तथा निचली बाह्य आवरण (इपिडरमिस) के उतकों को खाते हैं जिससे उस पर छाले जैसा निशान पड़ जाते हैं। ग्रसित पत्ती मुरझाकर सिकुड़ जाती हैं तथा पट्टी पर बड़ा छेद बन जाता है । इस कीट की रोकथाम के लिए नई पत्तों के निकलने पर 0.05% क्वनालफोस का छिड़काव करना प्रभावकारी होता है ।

सुंडी तथा बीटल भी दालचीनी के नए पत्तों को छिटपुट रूप से खाते हैं । क्वनालफोस 0.05% को डालने से इसको भी नियंत्रण कर सकते हैं ।


कटाई एवं संसाधन
दालचीनी का पेड़ 10-15 मीटर तक ऊँचा हो सकता हैं, लेकिन समय समय पर उसकी काट छांट करते रहना चाहिए । जब पेड़ दो वर्ष पुराना तथा जमीन से लगभग 12 सें.मीटर ऊँचा हो तब जून-जुलाई में काट छांट करना चाहिए । ठूंठ को जमीन में दबा कर मिट्टी से ढकना चाहिए। यह प्रक्रिया ठूंठ से शाखा के विकास को बढ़ावा देती है। उत्तरवर्ती मौसम में मुख्य तने से किनारे वाली शाखाओंं के विकास का पुनरावर्तन करना चाहिए। इसलिये पेड़ का संभावित आकार बुश की तरह तथा 2 मीटर ऊँचा होगा तथा लगभग 4 वर्ष के उपरांत शाखाओंं में उत्तम छाल विकसित हो जाएगी। रोपण के लगभग 5 वर्ष बाद पहली कटाई कर सकते हैं ।

केरल की परिस्थितियों में शाखाओंं को सितम्बर से नवम्बर में कटाई करते हैं। कटाई हर एक दूसरे साल करते हैं तथा उत्तम छाल निकलने के लिए शाखा का एक सामान गहरा भूरा रंग तथा 1.5-2.0 से. मीटर मोटाई होनी चाहिए। छाल की उत्तमता को जानने के लिए तेज चाकू की सहायता से ‘कट परीक्षण’ करते हैं। यदि छाल को सरलता पूर्वक अलग किया जा सकता है तब तुरंत छाल की कटाई आरम्भ कर सकते हैं। जब पौधा 2 वर्ष का हो जाये तब तुरंत तने को जमीन के पास से कटना चाहिए । ऐसी शाखाओं को पत्तियों को निकाल कर आपस में बांध देना चाहिए। कटी गई शाखा से 1.00 -1.25 मीटर लम्बे सीधे टुकड़े काटना चाहिए। कटाई, खुरचने तथा छिलने के बाद की कार्य विधि हैं। छाल निकालना एक विशेष कार्य है जिसके लिए कुशल एवं अनुभव चाहिए । इसके लिए विशेष प्रकार के निर्मित चाकू जिसका एक सिरा मुड़ा हुआ होता है । बाहरी छाल को पहले खुरच कर निकाल लेते हैं । आसानी से छाल उतारने के लिये खुर्चे हुए भागों को पीतल अथवा एल्युमिनियम की छड की सहायता से चमकाते हैं ।

एक भाग से दूसरे भाग तक एक रेखाश चीरा लगाते है । लकड़ी और छल के मध्य चाकू का उपयोग करके कुशलता पूर्वक छाल अलग कर लेते हैं। मगर शाखाओं को जिस दिन कटा है उसी दिन छिलाना है। छीलन को एक छायादार स्थान पर रखना चाहिए। इसको पहले एक दिन छाया में तत्पश्चात चार दिन सूर्य प्रकाश में सुखाना चाहिए। सुखाते समय छाल मुड़ा हुआ जैसा बन जाता है । छोटे मुड़े हुए छाल बडों में घुस जाते हैं जिससे संयुक्त मुड़ा हुआ बन जाता हैं। इन मुड़े हुए पंख को उत्तम गुणवत्ता 0 से घटिया गुणवत्ता की 00000 की क्षेणी में रखते हैं।छोटे से छाल के भाग को तैयार करके उसे कवलिंग की श्रेणी में रखते हैं । छाल का बहुत महीन आंतरिक भाग सुखकर पंख की तरह हो जाता है। मोटे बेत से छाल को छिलने के स्थान पर खुरचते हैं इसको ‘स्क्रेप्ड चिप्स’ कहते हैं । छाल को बाहरी तने से अलग किये बिना भी खर्च कर सकते है। इसके ‘अनस्क्रेप्ड चिप्स’ कहते हैं। विभिन्न क्षेणी के छालों को ‘दालचीनी चूर्ण’ बनाने के लिए बुरादा बनाते हैं ।

दालचीनी के पर्ण एवं छाल तेल को क्रमशः पत्तियों एवं छाल को सुखा कर वाष्पीकरण करके प्राप्त किया जा सकता है । दालचीनी की पत्तियों को विशेष डिस्टिलर द्वारा वाष्प से सुखा लेते हैं। एक हेक्टयेर में दालचीनी के पेड़ों से 4 कि.ग्राम छाल तेल निकाल सकता है ।
पर्ण और छाल तेल को सेंट, साबुन, बालों के तेल,चेहरा पर लगाने वाली क्रीम, तथा सुगन्धित पेय पदार्थ तथा दन्त मंजन में उपयोग किया जाता है ।

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