जेट्रोफा (रतनजोत) की खेती
जेट्रोफा की खेती जैव ईंधन, औषधि,जैविक खाद, रंग बनाने में, भूमि सूधार, भूमि कटाव को रोकने में, खेत की मेड़ों पर बाड़ के रूप में, एवं रोजगार की संभावनाओं को बढ़ानें में उपयोगी साबित हुआ है। यह उच्चकोटि के बायो-डीजल का स्रोत है जिसमें गैर विषाक्त, कम धुएँ वाला एवं पेट्रो-डीजल सी समरूपता है। इसके पौधे भारत, अफ्रिका, उत्तरी अमेरिका और कैरेबियन् जैसे ट्रापिकल क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं। यह एक बड़ा पादप है जो झाड़ियों के रूप में अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में उगता है। इस पादप से प्राप्त होने वाले बीजों में 25-30 प्रतिशत तक तेल निकाला जा सकता है। इस तेल से कार, पीटर , ट्रक , टेम्पो आदि चलाये जा सकते हैं तथा जो अवशेष बचता है उससे बिजली पैदा की जा सकती है। जेट्रोफा अनावृष्टि-रोधी सदाबहार झाडी है। यह कठिन परिस्थितियओं को भी झेलने में सक्षम है।
सामान्य वानस्पतिक नाम
जंगली अरंड, व्याध्र अरंड, रतनजोत, चन्द्रजोत एवं जमालगोटा आदि। जैट्रोफा करकस (Jatropha Curcas)
जलवायु
जेट्रोफा को शुष्क एवं अर्ध शुष्क जलवायु की विस्तृत दशाओं के मध्य आसानी से उगाया जा सकता है ।इसके बीजों से अंकुरण के समय कुछ गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता पड़ती है ।इसकी पुष्पावस्था गिरते हुए तापक्रम के साथ बरसाती मौसम के बाद आती है तथा फल शरद ऋतु में आते है ।इसको कम वर्षा तथा अधिक वर्षा वाले दोनों क्षेत्रों में समान रूप से उगाया जा सकता है।इसके अतिरिक्त जिन क्षेत्रों में असमान एवं त्रुटी पूर्ण वर्षा होती है अथवा जो सूखा प्रभावित क्षेत्र है, के लिए भी यह उपयुक्त पौधा है।
मिट्टी
यह समशीतोष्ण, गर्म रेतीले, पथरीले तथा बंजर भूमि में होता है। दोमट भूमि में इसकी खेती अच्छी होती है। जल जमाव वाले क्षेत्र उपयुक्त नहीं हैं।
प्रवर्धन विधि
जेट्रोफा का प्रवर्धन मुख्यत: बीजों द्वारा होता है । यह प्राकृतिक रूप से भी जंगलों में नमी के कारण अंकुरित होकर स्वत: उग आता है ।परन्तु इस तरह से उपजे पौधों की वृद्धि कम ही रहती है तथा वांछित उपज नहीं मिलती है अत: अच्छी उपज लेने के लिए हमें निम्न तीन विधियों द्वारा प्रवर्धन करना पड़ता है।
1. पौध नर्सरी विधि
2. वानस्पतिक विधि
3. जड़ साधक (रूट ट्रेनर) विधि
1. पौध नर्सरी विधि
पौधशाला में पॉलिथीन की थैलियों में अथवा क्यारियों में स्वस्थ एवं उपचारित बीज की बुआई करके रोपण योग्य पौधे तैयार कर लिए जाते हैं ।बीज सरकारी संस्थाओं एवं मान्यता प्राप्त एजेन्सियों से ही खरीदने चाहिएं ।पूर्ण जानकारी के अभाव में कभी-2 कई साल पुराना बीज भी किसान खरीद लेते हैं जिसकी अंकुरण क्षमता बहुत ही कम होती है ।अत: बोने से पहले अंकुरण क्षमता की जाँच कर लें।
(क )पॉलिथीन की थैलियों में सीधी बुआई
जेट्रोफा के बीजों के ऊपर का छिलका बहुत कठोर होता है जिसके कारण अंकुरण में काफी देरी तथा कमी आ जाती है।इस समस्या से बचने के लिए इसके बीजों को पूरी रात पानी में भिगोकर रखा जाता है।बीजों को बारह घंटे गोबर के घोल में रखने तथा अगले बारह घंटे तक गीले बीजों को बोरे में रखने से अंकुरण शीघ्र व अधिक होता है ।पॉलिथीन की थैलियों में मिट्टी, कम्पोस्ट खाद तथा बालू की मात्रा उपयुक्त अनुपात (2:1:1) में सुनिश्चित कर लें ।बीज को इन तैयार थैलियों में एक से डेढ़ इंच गहराई पर बो देना चाहिए ।प्रत्येक थैली में दो बीज डालने/ बीजने चाहिए अंकुरण के 20-25 दिन बाद थैली में एक ही पौधा रखना चाहिए व कमजोर पौधे को निकाल देना चाहिए।
बीज बुआई के 5-7 दिन के अर्न्तगत अंकुरण हो जाता है ।अंकुरण हो जाने के बाद 2-3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए ।परन्तु सिंचाई ऐसे करें किपौधे की कोमल पत्तियाँ पानी की चोट से टूट न जाएं ।जुलाई-अगस्त में रोपाई करने के उद्देश्य से बीजों की बुआई सामान्यत: फरवरी-मार्च के महीनों में कर देनी चाहिए।
(ख )क्यारियों में बुआई
नर्सरी लगाने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि मिट्टी की संरचना अच्छी व भुरभुरी हो ।नर्सरी के लिए आवश्यकतानुसार क्यारियों की लम्बाई तथा 1 मीटर चौड़ाई रखी जाती है ।इनकी ऊँचाई 10-15 सें.मी. रखी जाती है ताकि बरसात का पानी क्यारियों में हानि न पहुंचा सके ।इन क्यारियों में 2-3 कि. ग्रा. वर्मीकम्पोस्ट या गोबर की सड़ी हुई खाद तथा 50-60 ग्राम क्लोरोपायरीफास की धूल प्रति क्यारी मिला देनी चाहिए ।दो क्यारियों के बीच में 50 -100 सें.मी. चौड़ा रास्ता अवश्य छोड़ना चाहिए ताकि सिंचाई करने व आने-जाने में सुविधा बनी रहे ।एक हैक्टेयर भूमि के लिए 5-6 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त रहता है ।क्यारियों में बुआई फरवरी –अप्रैल अथवा बरसात के दिनों में करनी चाहिए ।क्यारियों में बीज की बुआई 2 सें.मी. की गहराई पर 10-15 सें.मी. की दूरी पर पतली नाली बनाकर करनी चाहिए ।क्यारियों में सुबह सायं दोनों समय फव्वारे से सिंचाई करते रहना चाहिए ।बीज की अच्छी तरह घुलाई करके बाविस्टिन, थाइरम व विटावैक्स की बराबर मात्रा के 2 ग्राम मिश्रण/कि.ग्रा. बीज की दर से आवश्यक उपचारित कर लें।
(ग )पॉलिथीन थैलियों में प्रतिरोपण
जब क्यारियों में पौध की ऊँचाई लगभग 2-5 सें.मी. तक हो जाए तब उपयुक्त मिट्टी व खाद के मिश्रण से भरी थैलियों में इनका प्रतिरोपण भी क्र सकते हैं ।पौधों को उखाड़ने से पहले क्यारी में सिंचाई करके मिट्टी को गीला बना लेते हैं ।फिर आसानी से इन्हे निकालकर इनकी मिट्टी हटा ली जाती है ताकि थैली में लगाते समय जड़ें मुड़ें नहीं या किसी क्षति के कारण जड़ें टूट न जाएं ।थैली की मिट्टी में नुकीली लकड़ी से पौधे की जड़ की लम्बाई के अनुसार गड्ढा करके पौधे को लगा देते हैं तथा पौधे के चारों तरफ मिट्टी से दबा देते हैं ताकि गड्ढों में हवा प्रवेश न क्र जाए और न ही पौधे टेढ़े हो पायें ।पौधों का प्रतिरोपण या टी बरसाती मौसम में बादलों के घिरे होने की स्थिति में या सायंकाल में करें ताकि ताजे पौधे गहरी धूप में मुरझा न पाएं ।पौधरोपण के बाद सिंचाई करना न भूलें ।इसके दो-तीन दिन बाद यदि वर्षा नहीं हो रही हो तो थैलियों में पानी देते हैं।
2. वानस्पतिक विधि
बीज के अलावा जेट्रोफा का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा भी होता है इसके लिए जेट्रोफा के पूर्ण विकसित पौधे से 15-20 सें.मी. लम्बी तथा 2-3 सें.मी. मोटी ऐसी कलमें तैयार की जाती हैं जिनमें कम से कम 2-3 गांठे व आखें उपलब्ध हों ।इन शाकीय कलमों द्वारा फरवरी-मई में पौधे तैयार किए जाते हैं ।इन कलमों को सीधे ही पॉलिथीन या क्यारियों में लगा दिया जाता है ।लगभग तीन माह बाद पौधे रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं।
3. जड़ साधक या रूट ट्रेनर विधि
जड़ साधक पॉलिथलीन या पॉलीप्रोपेलिन से बने पात्र होते हैं, जो उच्च स्तर की गुणवत्ता वाले ट्रे के रूप में होते हैं ।इस पात्र में मिट्टी व बालू को मिलाकर भरते हैं और प्रत्येक में 6-8 सें.मी. लम्बी कलमें लगाते हैं या बीज की बुआई करते हैं ।कलम लगाते समय यह ध्यान रहे कि कलम की 2-3 कलिकायें ऊपर हों तथा उतना ही भाग नोचे मिट्टी में रहे ।एक सप्ताह के अंदर पत्तियाँ निकलनी शुरू हो जाती हैं तथा 15-20 दिनों के बाद जड़ें निकलने लगती हैं ।दो माह बाद पौधे खेतों में बने गड्ढों में लगाने योग्य तैयार हो जाते हैं।
बोआई एवं रोपण
बीज अथवा कलम द्वारा पौधे तैयार किए जाते हैं। मार्च-अप्रैल माह में नर्सरी लगाई जाती है तथा रोपण का कार्य जुलाई से सितम्बर तक किया जा सकता है। बीज द्वारा सीधे गड्डों मे बुवाई की जाती है।
पौधे से पौधे की दूरी
असिंचित क्षेत्रों में 2×2 मीटर और सिंचित क्षेत्रों में 3×3 मीटर की दूरी रखी जाती है। गड्ढे का आकार 45×45 x45 (लम्बाई x चौडाई x गहराई) से.मी. होता है। रतनजोत के पौधों को बाड़ के रूप में लगाने पर दूरी 0.50 x 0.50 मी.(दो लाइन) रखी जाती है।
निराई-गुड़ाई
पॉलिथीन थैलियों अथवा नर्सरी की क्यारियों में से खड़ी हुई खरपतवारों को हाथ से या कम चौड़े खुरपे की सहायता से बाहर निकाल देना चाहिए ।इसी समय अस्वस्थ या रोगी पौधों को भी अलग कर देना चाहिए ताकि स्वस्थ पौधे अच्छी तरह पनप सकें।
सिंचाई
नर्सरी में बीज बोने के बाद अच्छा अंकुरण होने के लिए नित्य सुबह-सायं फव्वारे से पानी देना आवश्यक है ।रोपण से एक माह पहले पौधों को पानी की मात्रा कम क्र देनी चाहिए ताकि पौधे सख्त (हार्डनिंग) हो सकें।
खाद एवं उर्वरक
रोपण से पूर्व गड्ढे में मिट्टी (4 किलो), कम्पोस्ट की खाद (3 किलो) तथा रेत (3 किलो) के अनुपात का मिश्रण भरकर 20 ग्राम यूरिया 120 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 15 ग्राम म्युरेट ऑफ पोटाश डालकर मिला दें। दीमक नियंत्रण के लिए क्लोरो पायरिफॉस पाउडर (50 ग्राम ) प्रति गड्डा में डालें, तत्पश्चात पौधा रोपण करें।
खरपतवार नियंत्रण
नर्सरी के पौधों को खरपतवार नियंत्रण हेतु विशेष ध्यान रखें तथा रोपा फसल में फावड़े, खुरपी आदि की मदद से घास हटा दें। वर्षा ऋतु में प्रत्येक माह खरपतवार नियंत्रण करें।
रोग नियंत्रण
कोमल पौधों में जड़-सड़न तथा तना बिगलन रोग मुख्य है। नर्सरी तथा पौधों में रोग के लक्षण होने पर 2 ग्राम बीजोपचार मिश्रण प्रति लीटर पानी में घोल को सप्ताह में दो बार छिड़काव करें।
कीट नियंत्रण
कोमल पौधों में कटूवा (सूंडी) तने को काट सकता है। इसके लिए Lindane या Follidol धूल का सूखा पाउडर भूरकाव से नियंत्रण किया जा सकता है। माइट के प्रकोप से बचाव के लिए 1 मिली लीटर मेटासिस्टॉक्स दवा को 1 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
कटाई-छँटाई
पौधों को गोल छाते का आकार देने के लिए दो वर्ष तक कटाई-छँटाई आवश्यक है। प्रथम कटाई में रोपण के 7-8 महीने पश्चात पौधों को भूमि से 30-45 से.मी. छोड़कर शेष ऊपरी हिस्सा काट देना चाहिए। दूसरी छँटाई पुनः 12 महीने बाद सभी टहनियों में 1/3 भाग छोड़कर शेष हिस्सा काट देना चाहिए। प्रत्येक छँटाई के पश्चात 1 ग्राम बेविस्टीन 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। अप्रैल और मई महीनों में छँटाई का कार्य करते हैं।
उपज
बरसात के समय में पौधे में फूल आना प्रारंभ हो जाता है तथा दिसंबर-जनवरी माह में हरे रंग के फल काले पड़ने लगते हैं। जब फल का ऊपरी भाग काला पड़ने लगे तब तोड़ा जा सकता है।
प्रथम वर्षः कोई बीज उत्पाद नहीं
द्वितीय वर्षः कोई बीज उत्पाद नहीं
तृतीय वर्षः 500 ग्राम/ पेड़ (12.5 क्विंटल/हेक्टेयर)
चतुर्थ वर्षः 1 किलो ग्राम/ पेड़ (25 क्विंटल/हेक्टेयर)
पंचम वर्षः 2 किलो ग्राम/ पेड़ (50 क्विंटल/हेक्टेयर)
छठे वर्षः 4 किलो ग्राम/ पेड़ (100 क्विंटल/हेक्टेयर) एवं आगे।
जेट्रोफा पौधे की विशेषताएं
1 इसके बीज सस्ते हैं
2 बीजों में तेल की मात्रा बहुत अधिक है (लगभग ३७%)
3 इससे प्राप्त तेल का ज्वलन ताप (फ्लैश प्वाइंट) अधिक होने के कारण यह बहुत सुरक्षित भी है।
4 १.०५ किग्रा जत्रोफा तेल से १ किग्रा बायोडिजल पैदा होता है।
5 जत्रोफा का तेल बिना रिफाइन किये हुए भी इंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
6 जत्रोफा का तेल जलाने पर धुआंरहित स्वच्छ लौ पैदा करता है।
7 थोडे ही दिनों (लगभग दो वर्ष) में इसके पौधे से फल प्राप्त होने लगते हैं
8 उपजाऊ भूमि और खराब (उसर भूमि) भूमि, दोनो पर इसकी उपज ली जा सकती है
9 कम वर्षा के क्षेत्रों (२०० मिमी) और अधिक वर्षा के क्षेत्रों, दोनों में यह जीवित रहता और फलता-फूलता है
10 वहां भी इसकी पैदावार ली जा सकती है जहां दूसरी फसलें नही ली जा सकतीं।
11 इसे नहरों के किनारे, सडकों के किनारे या रेलवे लाइन के किनारे भी लगा सकते हैं।
12 यह कठिन परिस्थितियों को भी सह लेता है।
13 इसकी खेती के लिये किसी प्रकार की विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं होती।
14 इसके पौधे की उंचाई भी फल और बीज इकट्ठा करने की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है - जमीन पर खडे होकर ही फल तोडे जा सकते हैं।
15 फल वर्षा ऋतु आरम्भ होने के पाले ही पक जाते हैं, इसलिये भी फल इकट्ठा करना आसान काम है।
16 इसके पौधा लगभग ५० वर्ष तक फल पैदा करता है। बार-बार फसल लगाने की आवश्यकता नहीं होती।
17 इसको लगाना आसान है, यह तेजी से बढता है और इसको देखरेख की बहुत कम जरूरत होती है।
18 इसको जानवर नही खाते और कीट नही लगते। इस कारण इसकी विशेष देखभाल नहीं करनी पडती।
19 यह् किसी भी पसल का प्रतिस्पर्धी नहीं है, बल्कि यह उन फसलों की पैदावार बढाने में मदद करता है।
Note: इसके बीजों को पीसने पर जो तेल प्राप्त होता है उससे -
1 वाहनों के लिये बायोडिजल बनाया जा सकता है
2 सीधे लालटेन में डालकर जलाया जा सकता है
3 इसे जलाकर भोजन पकाने के काम में लिया जा सकता है
4 इसके तेल के अन्य उपयोग हैं - जलवायु संरक्षण, वार्निश, साबुन, जैव कीट-नाशक आदि
औषधीय उपयोग
1 इसके फूल और तने औषधीय गुणों के लिये जाने जाते हैं।
2 इसकी पत्तियां घाव पर लपेटने (ड्रेसिंग) के काम आती हैं।
3 इसके अलावा इससे चर्मरोगों की दवा, कैंसर, बाबासीर, ड्राप्सी, पक्षाघात, सर्पदंश, मच्छर भगाने की दवा तथा अन्य अनेक दवायें बनती हैं।
4 इसके पौधे के अन्य उपयोग
5 इसके छाल से गहरे नीले रंग की 'डाई' और मोम बनायी जा सकती है।
6 इसकी जडों से पीले रंग की 'डाई' बनती है।
7 इसका तना एक निम्न-श्रेणी की लकडी का भी काम करता है। इसे जलावनी लकडी के रूप में प्रयोग किया जाता है।
जेट्रोफा की खेती जैव ईंधन, औषधि,जैविक खाद, रंग बनाने में, भूमि सूधार, भूमि कटाव को रोकने में, खेत की मेड़ों पर बाड़ के रूप में, एवं रोजगार की संभावनाओं को बढ़ानें में उपयोगी साबित हुआ है। यह उच्चकोटि के बायो-डीजल का स्रोत है जिसमें गैर विषाक्त, कम धुएँ वाला एवं पेट्रो-डीजल सी समरूपता है। इसके पौधे भारत, अफ्रिका, उत्तरी अमेरिका और कैरेबियन् जैसे ट्रापिकल क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं। यह एक बड़ा पादप है जो झाड़ियों के रूप में अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में उगता है। इस पादप से प्राप्त होने वाले बीजों में 25-30 प्रतिशत तक तेल निकाला जा सकता है। इस तेल से कार, पीटर , ट्रक , टेम्पो आदि चलाये जा सकते हैं तथा जो अवशेष बचता है उससे बिजली पैदा की जा सकती है। जेट्रोफा अनावृष्टि-रोधी सदाबहार झाडी है। यह कठिन परिस्थितियओं को भी झेलने में सक्षम है।
सामान्य वानस्पतिक नाम
जंगली अरंड, व्याध्र अरंड, रतनजोत, चन्द्रजोत एवं जमालगोटा आदि। जैट्रोफा करकस (Jatropha Curcas)
जलवायु
जेट्रोफा को शुष्क एवं अर्ध शुष्क जलवायु की विस्तृत दशाओं के मध्य आसानी से उगाया जा सकता है ।इसके बीजों से अंकुरण के समय कुछ गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता पड़ती है ।इसकी पुष्पावस्था गिरते हुए तापक्रम के साथ बरसाती मौसम के बाद आती है तथा फल शरद ऋतु में आते है ।इसको कम वर्षा तथा अधिक वर्षा वाले दोनों क्षेत्रों में समान रूप से उगाया जा सकता है।इसके अतिरिक्त जिन क्षेत्रों में असमान एवं त्रुटी पूर्ण वर्षा होती है अथवा जो सूखा प्रभावित क्षेत्र है, के लिए भी यह उपयुक्त पौधा है।
मिट्टी
यह समशीतोष्ण, गर्म रेतीले, पथरीले तथा बंजर भूमि में होता है। दोमट भूमि में इसकी खेती अच्छी होती है। जल जमाव वाले क्षेत्र उपयुक्त नहीं हैं।
प्रवर्धन विधि
जेट्रोफा का प्रवर्धन मुख्यत: बीजों द्वारा होता है । यह प्राकृतिक रूप से भी जंगलों में नमी के कारण अंकुरित होकर स्वत: उग आता है ।परन्तु इस तरह से उपजे पौधों की वृद्धि कम ही रहती है तथा वांछित उपज नहीं मिलती है अत: अच्छी उपज लेने के लिए हमें निम्न तीन विधियों द्वारा प्रवर्धन करना पड़ता है।
1. पौध नर्सरी विधि
2. वानस्पतिक विधि
3. जड़ साधक (रूट ट्रेनर) विधि
1. पौध नर्सरी विधि
पौधशाला में पॉलिथीन की थैलियों में अथवा क्यारियों में स्वस्थ एवं उपचारित बीज की बुआई करके रोपण योग्य पौधे तैयार कर लिए जाते हैं ।बीज सरकारी संस्थाओं एवं मान्यता प्राप्त एजेन्सियों से ही खरीदने चाहिएं ।पूर्ण जानकारी के अभाव में कभी-2 कई साल पुराना बीज भी किसान खरीद लेते हैं जिसकी अंकुरण क्षमता बहुत ही कम होती है ।अत: बोने से पहले अंकुरण क्षमता की जाँच कर लें।
(क )पॉलिथीन की थैलियों में सीधी बुआई
जेट्रोफा के बीजों के ऊपर का छिलका बहुत कठोर होता है जिसके कारण अंकुरण में काफी देरी तथा कमी आ जाती है।इस समस्या से बचने के लिए इसके बीजों को पूरी रात पानी में भिगोकर रखा जाता है।बीजों को बारह घंटे गोबर के घोल में रखने तथा अगले बारह घंटे तक गीले बीजों को बोरे में रखने से अंकुरण शीघ्र व अधिक होता है ।पॉलिथीन की थैलियों में मिट्टी, कम्पोस्ट खाद तथा बालू की मात्रा उपयुक्त अनुपात (2:1:1) में सुनिश्चित कर लें ।बीज को इन तैयार थैलियों में एक से डेढ़ इंच गहराई पर बो देना चाहिए ।प्रत्येक थैली में दो बीज डालने/ बीजने चाहिए अंकुरण के 20-25 दिन बाद थैली में एक ही पौधा रखना चाहिए व कमजोर पौधे को निकाल देना चाहिए।
बीज बुआई के 5-7 दिन के अर्न्तगत अंकुरण हो जाता है ।अंकुरण हो जाने के बाद 2-3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए ।परन्तु सिंचाई ऐसे करें किपौधे की कोमल पत्तियाँ पानी की चोट से टूट न जाएं ।जुलाई-अगस्त में रोपाई करने के उद्देश्य से बीजों की बुआई सामान्यत: फरवरी-मार्च के महीनों में कर देनी चाहिए।
(ख )क्यारियों में बुआई
नर्सरी लगाने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि मिट्टी की संरचना अच्छी व भुरभुरी हो ।नर्सरी के लिए आवश्यकतानुसार क्यारियों की लम्बाई तथा 1 मीटर चौड़ाई रखी जाती है ।इनकी ऊँचाई 10-15 सें.मी. रखी जाती है ताकि बरसात का पानी क्यारियों में हानि न पहुंचा सके ।इन क्यारियों में 2-3 कि. ग्रा. वर्मीकम्पोस्ट या गोबर की सड़ी हुई खाद तथा 50-60 ग्राम क्लोरोपायरीफास की धूल प्रति क्यारी मिला देनी चाहिए ।दो क्यारियों के बीच में 50 -100 सें.मी. चौड़ा रास्ता अवश्य छोड़ना चाहिए ताकि सिंचाई करने व आने-जाने में सुविधा बनी रहे ।एक हैक्टेयर भूमि के लिए 5-6 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त रहता है ।क्यारियों में बुआई फरवरी –अप्रैल अथवा बरसात के दिनों में करनी चाहिए ।क्यारियों में बीज की बुआई 2 सें.मी. की गहराई पर 10-15 सें.मी. की दूरी पर पतली नाली बनाकर करनी चाहिए ।क्यारियों में सुबह सायं दोनों समय फव्वारे से सिंचाई करते रहना चाहिए ।बीज की अच्छी तरह घुलाई करके बाविस्टिन, थाइरम व विटावैक्स की बराबर मात्रा के 2 ग्राम मिश्रण/कि.ग्रा. बीज की दर से आवश्यक उपचारित कर लें।
(ग )पॉलिथीन थैलियों में प्रतिरोपण
जब क्यारियों में पौध की ऊँचाई लगभग 2-5 सें.मी. तक हो जाए तब उपयुक्त मिट्टी व खाद के मिश्रण से भरी थैलियों में इनका प्रतिरोपण भी क्र सकते हैं ।पौधों को उखाड़ने से पहले क्यारी में सिंचाई करके मिट्टी को गीला बना लेते हैं ।फिर आसानी से इन्हे निकालकर इनकी मिट्टी हटा ली जाती है ताकि थैली में लगाते समय जड़ें मुड़ें नहीं या किसी क्षति के कारण जड़ें टूट न जाएं ।थैली की मिट्टी में नुकीली लकड़ी से पौधे की जड़ की लम्बाई के अनुसार गड्ढा करके पौधे को लगा देते हैं तथा पौधे के चारों तरफ मिट्टी से दबा देते हैं ताकि गड्ढों में हवा प्रवेश न क्र जाए और न ही पौधे टेढ़े हो पायें ।पौधों का प्रतिरोपण या टी बरसाती मौसम में बादलों के घिरे होने की स्थिति में या सायंकाल में करें ताकि ताजे पौधे गहरी धूप में मुरझा न पाएं ।पौधरोपण के बाद सिंचाई करना न भूलें ।इसके दो-तीन दिन बाद यदि वर्षा नहीं हो रही हो तो थैलियों में पानी देते हैं।
2. वानस्पतिक विधि
बीज के अलावा जेट्रोफा का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा भी होता है इसके लिए जेट्रोफा के पूर्ण विकसित पौधे से 15-20 सें.मी. लम्बी तथा 2-3 सें.मी. मोटी ऐसी कलमें तैयार की जाती हैं जिनमें कम से कम 2-3 गांठे व आखें उपलब्ध हों ।इन शाकीय कलमों द्वारा फरवरी-मई में पौधे तैयार किए जाते हैं ।इन कलमों को सीधे ही पॉलिथीन या क्यारियों में लगा दिया जाता है ।लगभग तीन माह बाद पौधे रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं।
3. जड़ साधक या रूट ट्रेनर विधि
जड़ साधक पॉलिथलीन या पॉलीप्रोपेलिन से बने पात्र होते हैं, जो उच्च स्तर की गुणवत्ता वाले ट्रे के रूप में होते हैं ।इस पात्र में मिट्टी व बालू को मिलाकर भरते हैं और प्रत्येक में 6-8 सें.मी. लम्बी कलमें लगाते हैं या बीज की बुआई करते हैं ।कलम लगाते समय यह ध्यान रहे कि कलम की 2-3 कलिकायें ऊपर हों तथा उतना ही भाग नोचे मिट्टी में रहे ।एक सप्ताह के अंदर पत्तियाँ निकलनी शुरू हो जाती हैं तथा 15-20 दिनों के बाद जड़ें निकलने लगती हैं ।दो माह बाद पौधे खेतों में बने गड्ढों में लगाने योग्य तैयार हो जाते हैं।
बोआई एवं रोपण
बीज अथवा कलम द्वारा पौधे तैयार किए जाते हैं। मार्च-अप्रैल माह में नर्सरी लगाई जाती है तथा रोपण का कार्य जुलाई से सितम्बर तक किया जा सकता है। बीज द्वारा सीधे गड्डों मे बुवाई की जाती है।
पौधे से पौधे की दूरी
असिंचित क्षेत्रों में 2×2 मीटर और सिंचित क्षेत्रों में 3×3 मीटर की दूरी रखी जाती है। गड्ढे का आकार 45×45 x45 (लम्बाई x चौडाई x गहराई) से.मी. होता है। रतनजोत के पौधों को बाड़ के रूप में लगाने पर दूरी 0.50 x 0.50 मी.(दो लाइन) रखी जाती है।
निराई-गुड़ाई
पॉलिथीन थैलियों अथवा नर्सरी की क्यारियों में से खड़ी हुई खरपतवारों को हाथ से या कम चौड़े खुरपे की सहायता से बाहर निकाल देना चाहिए ।इसी समय अस्वस्थ या रोगी पौधों को भी अलग कर देना चाहिए ताकि स्वस्थ पौधे अच्छी तरह पनप सकें।
सिंचाई
नर्सरी में बीज बोने के बाद अच्छा अंकुरण होने के लिए नित्य सुबह-सायं फव्वारे से पानी देना आवश्यक है ।रोपण से एक माह पहले पौधों को पानी की मात्रा कम क्र देनी चाहिए ताकि पौधे सख्त (हार्डनिंग) हो सकें।
खाद एवं उर्वरक
रोपण से पूर्व गड्ढे में मिट्टी (4 किलो), कम्पोस्ट की खाद (3 किलो) तथा रेत (3 किलो) के अनुपात का मिश्रण भरकर 20 ग्राम यूरिया 120 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 15 ग्राम म्युरेट ऑफ पोटाश डालकर मिला दें। दीमक नियंत्रण के लिए क्लोरो पायरिफॉस पाउडर (50 ग्राम ) प्रति गड्डा में डालें, तत्पश्चात पौधा रोपण करें।
खरपतवार नियंत्रण
नर्सरी के पौधों को खरपतवार नियंत्रण हेतु विशेष ध्यान रखें तथा रोपा फसल में फावड़े, खुरपी आदि की मदद से घास हटा दें। वर्षा ऋतु में प्रत्येक माह खरपतवार नियंत्रण करें।
रोग नियंत्रण
कोमल पौधों में जड़-सड़न तथा तना बिगलन रोग मुख्य है। नर्सरी तथा पौधों में रोग के लक्षण होने पर 2 ग्राम बीजोपचार मिश्रण प्रति लीटर पानी में घोल को सप्ताह में दो बार छिड़काव करें।
कीट नियंत्रण
कोमल पौधों में कटूवा (सूंडी) तने को काट सकता है। इसके लिए Lindane या Follidol धूल का सूखा पाउडर भूरकाव से नियंत्रण किया जा सकता है। माइट के प्रकोप से बचाव के लिए 1 मिली लीटर मेटासिस्टॉक्स दवा को 1 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
कटाई-छँटाई
पौधों को गोल छाते का आकार देने के लिए दो वर्ष तक कटाई-छँटाई आवश्यक है। प्रथम कटाई में रोपण के 7-8 महीने पश्चात पौधों को भूमि से 30-45 से.मी. छोड़कर शेष ऊपरी हिस्सा काट देना चाहिए। दूसरी छँटाई पुनः 12 महीने बाद सभी टहनियों में 1/3 भाग छोड़कर शेष हिस्सा काट देना चाहिए। प्रत्येक छँटाई के पश्चात 1 ग्राम बेविस्टीन 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। अप्रैल और मई महीनों में छँटाई का कार्य करते हैं।
उपज
बरसात के समय में पौधे में फूल आना प्रारंभ हो जाता है तथा दिसंबर-जनवरी माह में हरे रंग के फल काले पड़ने लगते हैं। जब फल का ऊपरी भाग काला पड़ने लगे तब तोड़ा जा सकता है।
प्रथम वर्षः कोई बीज उत्पाद नहीं
द्वितीय वर्षः कोई बीज उत्पाद नहीं
तृतीय वर्षः 500 ग्राम/ पेड़ (12.5 क्विंटल/हेक्टेयर)
चतुर्थ वर्षः 1 किलो ग्राम/ पेड़ (25 क्विंटल/हेक्टेयर)
पंचम वर्षः 2 किलो ग्राम/ पेड़ (50 क्विंटल/हेक्टेयर)
छठे वर्षः 4 किलो ग्राम/ पेड़ (100 क्विंटल/हेक्टेयर) एवं आगे।
जेट्रोफा पौधे की विशेषताएं
1 इसके बीज सस्ते हैं
2 बीजों में तेल की मात्रा बहुत अधिक है (लगभग ३७%)
3 इससे प्राप्त तेल का ज्वलन ताप (फ्लैश प्वाइंट) अधिक होने के कारण यह बहुत सुरक्षित भी है।
4 १.०५ किग्रा जत्रोफा तेल से १ किग्रा बायोडिजल पैदा होता है।
5 जत्रोफा का तेल बिना रिफाइन किये हुए भी इंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
6 जत्रोफा का तेल जलाने पर धुआंरहित स्वच्छ लौ पैदा करता है।
7 थोडे ही दिनों (लगभग दो वर्ष) में इसके पौधे से फल प्राप्त होने लगते हैं
8 उपजाऊ भूमि और खराब (उसर भूमि) भूमि, दोनो पर इसकी उपज ली जा सकती है
9 कम वर्षा के क्षेत्रों (२०० मिमी) और अधिक वर्षा के क्षेत्रों, दोनों में यह जीवित रहता और फलता-फूलता है
10 वहां भी इसकी पैदावार ली जा सकती है जहां दूसरी फसलें नही ली जा सकतीं।
11 इसे नहरों के किनारे, सडकों के किनारे या रेलवे लाइन के किनारे भी लगा सकते हैं।
12 यह कठिन परिस्थितियों को भी सह लेता है।
13 इसकी खेती के लिये किसी प्रकार की विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं होती।
14 इसके पौधे की उंचाई भी फल और बीज इकट्ठा करने की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है - जमीन पर खडे होकर ही फल तोडे जा सकते हैं।
15 फल वर्षा ऋतु आरम्भ होने के पाले ही पक जाते हैं, इसलिये भी फल इकट्ठा करना आसान काम है।
16 इसके पौधा लगभग ५० वर्ष तक फल पैदा करता है। बार-बार फसल लगाने की आवश्यकता नहीं होती।
17 इसको लगाना आसान है, यह तेजी से बढता है और इसको देखरेख की बहुत कम जरूरत होती है।
18 इसको जानवर नही खाते और कीट नही लगते। इस कारण इसकी विशेष देखभाल नहीं करनी पडती।
19 यह् किसी भी पसल का प्रतिस्पर्धी नहीं है, बल्कि यह उन फसलों की पैदावार बढाने में मदद करता है।
Note: इसके बीजों को पीसने पर जो तेल प्राप्त होता है उससे -
1 वाहनों के लिये बायोडिजल बनाया जा सकता है
2 सीधे लालटेन में डालकर जलाया जा सकता है
3 इसे जलाकर भोजन पकाने के काम में लिया जा सकता है
4 इसके तेल के अन्य उपयोग हैं - जलवायु संरक्षण, वार्निश, साबुन, जैव कीट-नाशक आदि
औषधीय उपयोग
1 इसके फूल और तने औषधीय गुणों के लिये जाने जाते हैं।
2 इसकी पत्तियां घाव पर लपेटने (ड्रेसिंग) के काम आती हैं।
3 इसके अलावा इससे चर्मरोगों की दवा, कैंसर, बाबासीर, ड्राप्सी, पक्षाघात, सर्पदंश, मच्छर भगाने की दवा तथा अन्य अनेक दवायें बनती हैं।
4 इसके पौधे के अन्य उपयोग
5 इसके छाल से गहरे नीले रंग की 'डाई' और मोम बनायी जा सकती है।
6 इसकी जडों से पीले रंग की 'डाई' बनती है।
7 इसका तना एक निम्न-श्रेणी की लकडी का भी काम करता है। इसे जलावनी लकडी के रूप में प्रयोग किया जाता है।
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