Tuesday, 7 May 2019

जेट्रोफा (रतनजोत) की खेती
जेट्रोफा की खेती जैव ईंधन, औषधि,जैविक खाद, रंग बनाने में, भूमि सूधार, भूमि कटाव को रोकने में, खेत की मेड़ों पर बाड़ के रूप में, एवं रोजगार की संभावनाओं को बढ़ानें में उपयोगी साबित हुआ है। यह उच्चकोटि के बायो-डीजल का स्रोत है जिसमें गैर विषाक्त, कम धुएँ वाला एवं पेट्रो-डीजल सी समरूपता है। इसके पौधे भारत, अफ्रिका, उत्तरी अमेरिका और कैरेबियन् जैसे ट्रापिकल क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं। यह एक बड़ा पादप है जो झाड़ियों के रूप में अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में उगता है। इस पादप से प्राप्त होने वाले बीजों में 25-30 प्रतिशत तक तेल निकाला जा सकता है। इस तेल से कार, पीटर , ट्रक , टेम्पो  आदि चलाये जा सकते हैं तथा जो अवशेष बचता है उससे बिजली पैदा की जा सकती है। जेट्रोफा अनावृष्टि-रोधी सदाबहार झाडी है। यह कठिन परिस्थितियओं को भी झेलने में सक्षम है।

सामान्य वानस्पतिक नाम
जंगली अरंड, व्याध्र अरंड, रतनजोत, चन्द्रजोत एवं जमालगोटा आदि। जैट्रोफा करकस (Jatropha Curcas)

जलवायु
जेट्रोफा को शुष्क एवं अर्ध शुष्क जलवायु की विस्तृत दशाओं के मध्य आसानी से उगाया जा सकता है ।इसके बीजों से अंकुरण के समय कुछ गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता पड़ती है ।इसकी पुष्पावस्था गिरते हुए तापक्रम के साथ बरसाती मौसम के बाद आती है तथा फल शरद ऋतु में आते है ।इसको कम वर्षा तथा अधिक वर्षा वाले दोनों क्षेत्रों में समान रूप से उगाया जा सकता है।इसके अतिरिक्त जिन क्षेत्रों में असमान एवं त्रुटी पूर्ण वर्षा होती है अथवा जो सूखा प्रभावित क्षेत्र है, के लिए भी यह उपयुक्त पौधा है।

मिट्टी
यह समशीतोष्ण, गर्म रेतीले, पथरीले तथा बंजर भूमि में होता है। दोमट भूमि में इसकी खेती अच्छी होती है। जल जमाव वाले क्षेत्र उपयुक्त नहीं हैं।

प्रवर्धन विधि
जेट्रोफा का प्रवर्धन मुख्यत: बीजों द्वारा होता है । यह प्राकृतिक रूप से भी जंगलों में नमी के कारण अंकुरित होकर स्वत: उग आता है ।परन्तु इस तरह से उपजे पौधों की वृद्धि कम ही रहती है तथा वांछित उपज नहीं मिलती है अत: अच्छी उपज लेने के लिए हमें निम्न तीन विधियों द्वारा प्रवर्धन करना पड़ता है।

1. पौध नर्सरी विधि
2. वानस्पतिक विधि
3. जड़ साधक (रूट ट्रेनर) विधि

1. पौध नर्सरी विधि
पौधशाला में पॉलिथीन की थैलियों में अथवा क्यारियों में स्वस्थ एवं उपचारित बीज की बुआई करके रोपण योग्य पौधे तैयार कर लिए जाते हैं ।बीज सरकारी संस्थाओं एवं मान्यता प्राप्त एजेन्सियों से ही खरीदने चाहिएं ।पूर्ण जानकारी के अभाव में कभी-2 कई साल पुराना बीज भी किसान खरीद लेते हैं जिसकी अंकुरण क्षमता बहुत ही कम होती है ।अत: बोने से पहले अंकुरण क्षमता की जाँच कर लें।

(क )पॉलिथीन की थैलियों में सीधी बुआई
जेट्रोफा के बीजों के ऊपर का छिलका बहुत कठोर होता है जिसके कारण अंकुरण में काफी देरी तथा कमी आ जाती है।इस समस्या से बचने के लिए इसके बीजों को पूरी रात पानी में भिगोकर रखा जाता है।बीजों को बारह घंटे गोबर के घोल में रखने तथा अगले बारह घंटे तक गीले बीजों को बोरे में रखने से अंकुरण शीघ्र व अधिक होता है ।पॉलिथीन की थैलियों में मिट्टी, कम्पोस्ट खाद तथा बालू की मात्रा उपयुक्त अनुपात (2:1:1) में सुनिश्चित कर लें ।बीज को इन तैयार थैलियों में एक से डेढ़ इंच गहराई पर बो देना चाहिए ।प्रत्येक थैली में दो बीज डालने/ बीजने चाहिए अंकुरण के 20-25 दिन बाद थैली में एक ही पौधा रखना चाहिए व कमजोर पौधे को निकाल देना चाहिए।
बीज बुआई के 5-7 दिन के अर्न्तगत अंकुरण हो जाता है ।अंकुरण हो जाने के बाद 2-3 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए ।परन्तु सिंचाई ऐसे करें किपौधे की कोमल पत्तियाँ पानी की चोट से टूट न जाएं ।जुलाई-अगस्त में रोपाई करने के उद्देश्य से बीजों की बुआई सामान्यत: फरवरी-मार्च के महीनों में कर देनी चाहिए।

(ख )क्यारियों में बुआई
नर्सरी लगाने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि मिट्टी की संरचना अच्छी व भुरभुरी हो ।नर्सरी के लिए आवश्यकतानुसार क्यारियों की लम्बाई तथा 1 मीटर चौड़ाई रखी जाती है ।इनकी ऊँचाई 10-15 सें.मी. रखी जाती है ताकि बरसात का पानी क्यारियों में हानि न पहुंचा सके ।इन क्यारियों में 2-3 कि. ग्रा. वर्मीकम्पोस्ट या गोबर की सड़ी हुई खाद तथा 50-60 ग्राम क्लोरोपायरीफास की धूल प्रति क्यारी मिला देनी चाहिए ।दो क्यारियों के बीच में 50 -100 सें.मी. चौड़ा रास्ता अवश्य छोड़ना चाहिए ताकि सिंचाई करने व आने-जाने में सुविधा बनी रहे ।एक हैक्टेयर भूमि  के लिए 5-6 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त रहता है ।क्यारियों में बुआई फरवरी –अप्रैल अथवा बरसात के दिनों में करनी चाहिए ।क्यारियों में बीज की बुआई 2 सें.मी. की गहराई पर 10-15 सें.मी. की दूरी पर पतली नाली बनाकर करनी चाहिए ।क्यारियों में सुबह सायं दोनों समय फव्वारे से सिंचाई करते रहना चाहिए ।बीज की अच्छी तरह घुलाई करके बाविस्टिन, थाइरम व विटावैक्स की बराबर मात्रा के 2 ग्राम मिश्रण/कि.ग्रा. बीज की दर से आवश्यक उपचारित कर लें।

(ग )पॉलिथीन थैलियों में प्रतिरोपण
जब क्यारियों में पौध की ऊँचाई लगभग 2-5 सें.मी. तक हो जाए तब उपयुक्त मिट्टी व खाद के मिश्रण से भरी थैलियों में इनका प्रतिरोपण भी क्र सकते हैं ।पौधों को उखाड़ने से पहले क्यारी में सिंचाई करके मिट्टी को गीला बना लेते हैं ।फिर आसानी से इन्हे निकालकर इनकी मिट्टी हटा ली जाती है ताकि थैली में लगाते समय जड़ें मुड़ें नहीं या किसी क्षति के कारण जड़ें टूट न जाएं ।थैली की मिट्टी में नुकीली लकड़ी से पौधे की जड़ की लम्बाई के अनुसार गड्ढा करके पौधे को लगा देते हैं तथा पौधे के चारों तरफ मिट्टी से दबा देते हैं ताकि गड्ढों में हवा प्रवेश न क्र जाए और न ही पौधे टेढ़े हो पायें ।पौधों का प्रतिरोपण या टी बरसाती मौसम में बादलों के घिरे होने की स्थिति में या सायंकाल में करें ताकि ताजे पौधे गहरी धूप में मुरझा न पाएं ।पौधरोपण के बाद सिंचाई करना न भूलें ।इसके दो-तीन दिन बाद यदि वर्षा नहीं हो रही हो तो थैलियों में पानी देते हैं।

2. वानस्पतिक विधि

बीज के अलावा जेट्रोफा का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा भी होता है इसके लिए जेट्रोफा के पूर्ण विकसित पौधे से 15-20 सें.मी. लम्बी तथा 2-3 सें.मी. मोटी ऐसी कलमें तैयार की जाती हैं जिनमें कम से कम 2-3 गांठे व आखें उपलब्ध हों ।इन शाकीय कलमों द्वारा फरवरी-मई में पौधे तैयार किए जाते हैं ।इन कलमों को सीधे ही पॉलिथीन या क्यारियों में लगा दिया जाता है ।लगभग तीन माह बाद पौधे रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं।

3. जड़ साधक या रूट ट्रेनर विधि

जड़ साधक पॉलिथलीन या पॉलीप्रोपेलिन से बने पात्र होते हैं, जो उच्च स्तर की गुणवत्ता वाले ट्रे के रूप में होते हैं ।इस पात्र में मिट्टी व बालू को मिलाकर भरते हैं और प्रत्येक में 6-8 सें.मी. लम्बी कलमें लगाते हैं या बीज की बुआई करते हैं ।कलम लगाते समय यह ध्यान रहे कि कलम की 2-3 कलिकायें ऊपर हों तथा उतना ही भाग नोचे मिट्टी में रहे ।एक सप्ताह के अंदर पत्तियाँ निकलनी शुरू हो जाती हैं तथा 15-20 दिनों के बाद जड़ें निकलने लगती हैं ।दो माह बाद पौधे खेतों में बने गड्ढों में लगाने योग्य तैयार हो जाते हैं।

बोआई एवं रोपण
बीज अथवा कलम द्वारा पौधे तैयार किए जाते हैं। मार्च-अप्रैल माह में नर्सरी लगाई जाती है तथा रोपण का कार्य जुलाई से सितम्बर तक किया जा सकता है। बीज द्वारा सीधे गड्डों मे बुवाई की जाती है।

पौधे से पौधे की दूरी
असिंचित क्षेत्रों में 2×2 मीटर और सिंचित क्षेत्रों में 3×3 मीटर की दूरी रखी जाती है। गड्ढे का आकार 45×45 x45 (लम्बाई x चौडाई x गहराई) से.मी. होता है। रतनजोत के पौधों को बाड़ के रूप में लगाने पर दूरी 0.50 x 0.50 मी.(दो लाइन) रखी जाती है।

निराई-गुड़ाई
पॉलिथीन थैलियों अथवा नर्सरी की क्यारियों में से खड़ी हुई खरपतवारों को हाथ से या कम चौड़े खुरपे की सहायता से बाहर निकाल देना चाहिए ।इसी समय अस्वस्थ या रोगी पौधों को भी अलग कर देना चाहिए ताकि स्वस्थ पौधे अच्छी तरह पनप सकें।

सिंचाई
नर्सरी में बीज बोने के बाद अच्छा अंकुरण होने के लिए नित्य सुबह-सायं फव्वारे से पानी देना आवश्यक है ।रोपण से एक माह पहले पौधों को पानी की मात्रा कम क्र देनी चाहिए ताकि पौधे सख्त (हार्डनिंग) हो सकें।

खाद एवं उर्वरक
रोपण से पूर्व गड्ढे में मिट्टी (4 किलो), कम्पोस्ट की खाद (3 किलो) तथा रेत (3 किलो) के अनुपात का मिश्रण भरकर 20 ग्राम यूरिया 120 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 15 ग्राम म्युरेट ऑफ पोटाश डालकर मिला दें। दीमक नियंत्रण के लिए क्लोरो पायरिफॉस पाउडर (50 ग्राम ) प्रति गड्डा में डालें, तत्पश्चात पौधा रोपण करें।

खरपतवार नियंत्रण
नर्सरी के पौधों को खरपतवार नियंत्रण हेतु विशेष ध्यान रखें तथा रोपा फसल में फावड़े, खुरपी आदि की मदद से घास हटा दें। वर्षा ऋतु में प्रत्येक माह खरपतवार नियंत्रण करें।

रोग नियंत्रण
कोमल पौधों में जड़-सड़न तथा तना बिगलन रोग मुख्य है। नर्सरी तथा पौधों में रोग के लक्षण होने पर 2 ग्राम बीजोपचार मिश्रण प्रति लीटर पानी में घोल को सप्ताह में दो बार छिड़काव करें।

कीट नियंत्रण
कोमल पौधों में कटूवा (सूंडी) तने को काट सकता है। इसके लिए Lindane या Follidol धूल का सूखा पाउडर भूरकाव से नियंत्रण किया जा सकता है। माइट के प्रकोप से बचाव के लिए 1 मिली लीटर मेटासिस्टॉक्स दवा को 1 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

कटाई-छँटाई
पौधों को गोल छाते का आकार देने के लिए दो वर्ष तक कटाई-छँटाई आवश्यक है। प्रथम कटाई में रोपण के 7-8 महीने पश्चात पौधों को भूमि से 30-45 से.मी. छोड़कर शेष ऊपरी हिस्सा काट देना चाहिए। दूसरी छँटाई पुनः 12 महीने बाद सभी टहनियों में 1/3 भाग छोड़कर शेष हिस्सा काट देना चाहिए। प्रत्येक छँटाई के पश्चात 1 ग्राम बेविस्टीन 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। अप्रैल और मई महीनों में छँटाई का कार्य करते हैं।

उपज
बरसात के समय में पौधे में फूल आना प्रारंभ हो जाता है तथा दिसंबर-जनवरी माह में हरे रंग के फल काले पड़ने लगते हैं। जब फल का ऊपरी भाग काला पड़ने लगे तब तोड़ा जा सकता है।

प्रथम वर्षः कोई बीज उत्पाद नहीं
द्वितीय वर्षः कोई बीज उत्पाद नहीं
तृतीय वर्षः 500 ग्राम/ पेड़ (12.5 क्विंटल/हेक्टेयर)
चतुर्थ वर्षः 1 किलो ग्राम/ पेड़ (25 क्विंटल/हेक्टेयर)
पंचम वर्षः 2 किलो ग्राम/ पेड़ (50 क्विंटल/हेक्टेयर)
छठे वर्षः 4 किलो ग्राम/ पेड़ (100 क्विंटल/हेक्टेयर) एवं आगे।

जेट्रोफा  पौधे की विशेषताएं
1 इसके बीज सस्ते हैं
2 बीजों में तेल की मात्रा बहुत अधिक है (लगभग ३७%)
3 इससे प्राप्त तेल का ज्वलन ताप (फ्लैश प्वाइंट) अधिक होने के कारण यह बहुत सुरक्षित भी है।
4 १.०५ किग्रा जत्रोफा तेल से १ किग्रा बायोडिजल पैदा होता है।
5 जत्रोफा का तेल बिना रिफाइन किये हुए भी इंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
6 जत्रोफा का तेल जलाने पर धुआंरहित स्वच्छ लौ पैदा करता है।
7 थोडे ही दिनों (लगभग दो वर्ष) में इसके पौधे से फल प्राप्त होने लगते हैं
8 उपजाऊ भूमि और खराब (उसर भूमि) भूमि, दोनो पर इसकी उपज ली जा सकती है
9 कम वर्षा के क्षेत्रों (२०० मिमी) और अधिक वर्षा के क्षेत्रों, दोनों में यह जीवित रहता और फलता-फूलता है
10 वहां भी इसकी पैदावार ली जा सकती है जहां दूसरी फसलें नही ली जा सकतीं।
11 इसे नहरों के किनारे, सडकों के किनारे या रेलवे लाइन के किनारे भी लगा सकते हैं।
12 यह कठिन परिस्थितियों को भी सह लेता है।
13 इसकी खेती के लिये किसी प्रकार की विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं होती।
14 इसके पौधे की उंचाई भी फल और बीज इकट्ठा करने की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है - जमीन पर खडे होकर ही फल तोडे जा सकते हैं।
15 फल वर्षा ऋतु आरम्भ होने के पाले ही पक जाते हैं, इसलिये भी फल इकट्ठा करना आसान काम है।
16 इसके पौधा लगभग ५० वर्ष तक फल पैदा करता है। बार-बार फसल लगाने की आवश्यकता नहीं होती।
17 इसको लगाना आसान है, यह तेजी से बढता है और इसको देखरेख की बहुत कम जरूरत होती है।
18 इसको जानवर नही खाते और कीट नही लगते। इस कारण इसकी विशेष देखभाल नहीं करनी पडती।
19 यह् किसी भी पसल का प्रतिस्पर्धी नहीं है, बल्कि यह उन फसलों की पैदावार बढाने में मदद करता है।

Note: इसके बीजों को पीसने पर जो तेल प्राप्त होता है उससे -
1 वाहनों के लिये बायोडिजल बनाया जा सकता है
2 सीधे लालटेन में डालकर जलाया जा सकता है
3 इसे जलाकर भोजन पकाने के काम में लिया जा सकता है
4 इसके तेल के अन्य उपयोग हैं - जलवायु संरक्षण, वार्निश, साबुन, जैव कीट-नाशक आदि

औषधीय उपयोग
1 इसके फूल और तने औषधीय गुणों के लिये जाने जाते हैं।
2 इसकी पत्तियां घाव पर लपेटने (ड्रेसिंग) के काम आती हैं।
3 इसके अलावा इससे चर्मरोगों की दवा, कैंसर, बाबासीर, ड्राप्सी, पक्षाघात, सर्पदंश, मच्छर भगाने की दवा तथा अन्य अनेक दवायें बनती हैं।
4 इसके पौधे के अन्य उपयोग
5 इसके छाल से गहरे नीले रंग की 'डाई' और मोम बनायी जा सकती है।
6 इसकी जडों से पीले रंग की 'डाई' बनती है।
7 इसका तना एक निम्न-श्रेणी की लकडी का भी काम करता है। इसे जलावनी लकडी के रूप में प्रयोग किया जाता है।

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सेब की खेती
सेब एक फल है। सेब का रंग लाल या हरा होता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे मेलस डोमेस्टिका (Melus domestica) कहते हैं। इसका मुख्यतः स्थान मध्य एशिया है। इसके अलावा बाद में यह यूरोप में भी उगाया जाने लगा।  सेब के देलिशस बर्ग की किस्मो की खेती 2400 मी. तक या इससे अध्क ऊंचाई तथा उत्तरी ढलान  पर 3400 मी तक करना लाभकारी पाया गया है | इस उचाई तथा इससे काम ऊंचाई 1500 मी ऊंचाई पर स्पर किस्मे उगाई जा सकती है |

व्युत्पत्ति
यह भारत के उत्तरी प्रदेश हिमाचल , शिमला जम्मू और कश्मीर में पैदा होता है , आज कल उत्तर प्रदेश के कुछ जगहों पर इसके खेती की जा रही है , इसमे विटामिन होते हैं।

सेब की उन्नत किस्मे
शीघ्र तैयार होने बाली किस्मे :- अर्ली संवरी , फैनी , बिनोनी , चाबै टीया प्रिंस जे , चाबै टीया प्रिंस अनुपम , टिडमने अर्ली बरसेस्टर , वेन्स देलिशस

मध्य अब्धि :- रेड डेलिशस , रॉयल डेलिशस, गोल्डेन डेलिशस , रिच - ए - रेड, कोर्ट लैंड , रेड गोल्ड मैकिन टॉस रेड़स्पर , गोल्ड स्पार , स्कॉरलेटगाला , आर्गन्सपर , रेडचीफ , रॉयलगाला , रीगल गाला

देर से पकने बाला सेब :- रयमर , बंकिघम , गेनिसिमिथ, अम्ब्री , रेड फुजी

प्रागण कर्ता किस्मे :- अगेती किस्मे को मिला कर लगाने से प्रागण करता किस्मो की आवशयकता नहीं होती है | देलिशस समूह के लिए रेड गोल्ड तथा देलिशस परप्रागण के लिए २०-२५ प्रतिसत लगाना चाहिए

सेब के रोपण की दर एबं बिधि
6 मीटर कतार से कतार तथा 6 मीटर पौधे रोपण की कंटूर बिधि अपनानी चाहिए | इस बिधि में पौधे की कतारे समान ढाल पर बनाई जाती है जो अधिकतर ढाल से समकोण पर होती है | गड्ढे का आकर 1 मीटर लम्बा और 1 ,मीटर चौड़ा तथा 1 मीटर गहरा बनाना चाहिए | गड्ढे की खुदाई तथा भराई नबम्बर - दिसम्बर माह में पूरा क्र लेना चाहिए | 1 गड्ढे में 30 -40 किलो ग्राम अच्छी तरह सड़ी गोबर की खाद तथा क्लोरपायरीफास का चूर्ण (5 %) के 200 ग्राम को अच्छी तरह मिट्टी में मिला कर गड्ढे को खूब दबा कर भरना चाहिए | और समय - समय पर गड्ढे को सिचाई करनी चाहिए | जनवरी - फरवरी महीना में पौधे को रोपाई करे ध्यान रखे की पौधे का जड़ पूरी तरह से जमीन के अंदर होनी चाहिए | पौधा रोपने के तुरंत बाद उसकी सिंचाई करनी चाहिए | पौधे की सिचाई 2 से 4 दिन के अंदर करना जरुरी है |

उर्बरक एबं खाद
तौलिये या थाला में डालना: तौलिये में छोटे पौधों में आधा व बड़े पौधों में एक फुट की तने से दूरी रखते हुए खादें डाल दी जाती है| खादें पौधों की टहनियों के फैलाव के नीचे बिखेर कर डालने के बाद मिट्टी में मिला दी जाती है| मिट्टी में खादें मिलाना अति आवश्यक होता है| जब बहुत ज्यादा नमी हो या बहुत ज्यादा सुखा पड़ रहा हो तो कहें न डालें|
पट्टी में खाद डालना: टहनियों के फैलाव के बाहरी घेरे में 20-25सेंटीमीटर पट्टी में खादें डाल दी जाती है और ऊपर से ढक दिया जाता है| ऐसे विधि वहीँ प्रयोग में लाई जाती है जहाँ ज्यादा बरसात होती है|
छिड़काव विधि: पत्तों के ऊपर छिड़काव किया जाता अहि| ज्यादातर यूरिया खाद को पानी में घोल कर उसे छिड़काव द्वारा पत्तों पर डाला जाता है|
बिखरे कर डालना: पौधों की दो पत्तियों के बीच में पौधों से उचित दूरी बनाते हुए खेत में बिखरे कर खादें डाल दी जाती हैं| हिमाचल प्रदेश में इस विधि को कम ही प्रयोग किया जाता है और उन सेब के बगीचों में प्रयोग किया जाता है जहाँ तौलिये के बदले पूरा खेत ही साफ रखा हो|
खाद व उर्वरकों डालने की मात्रा |
उर्बरक का प्रयोग मिट्टी के आधार पर करनी चाहिए इसके अभाब में 10 किलो सड़ी हुयी गोबर खाद।, 70 ग्राम नाइट्रोजन , 35  ग्राम फास्फोरस तथा 70 ग्राम पोटास प्रति बर्ष आयु के अनुशार देना चाहिए
खादें डालने की मुख्य विधियाँ

सेब की बागवानी में निम्नलिखित सारणी सुझाई गई है:

पौधे की आयु गोबर की खाद (कि.ग्रा.) कैन खाद (ग्राम) सुपर फास्फेट (ग्राम) म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (ग्राम)

1 10 280 220 120
2 20 560 440 240
3 30 840 660 360
4 40 1120 880 480
5 50 1400 1100 600
6 60 1680 1320 720
7 70 1960 1540 840
8 80 2240 1760 960
9 90 2520 1980 1080
10 और ऊपर 100 2800 2200 1200
अफलित वर्ष 100 2000 1560 665

ध्यान देने योग्य विशेष सुझाव


1 खादें व उर्वरक पहले सुझाई गई विधियों द्वारा डालें| उन जगहों में जहाँ पोषक तत्वों की अधिकता हो वहां ऊपर दी गई मात्रा का आधा ही डालें|
2 जिस वर्ष फसल न लगी हो उस वर्ष सारणी में अफलित वर्ष की दी गई मात्रा ही डालें|
3 सभी गोबर की खाद, सुपर फास्फेट, पोटाश को दिसम्बर-जनवरी में डाल दें क्योंकि इनको उपलब्ध होने की दशा में पहुँचने में एक महीने से ऊपर समय लगता है या फिर कलियाँ फूटने से एक महीना पहले डालें|
4 नत्रजन की आधी मात्रा फूल आने से 2 या 3 सप्ताह पहले डालें| यह समय मार्च तीसरे सप्ताह से मार्च अंत का चलता है|
5 नत्रजन की बाकी मात्रा पहली डाली गई मात्रा के एक महीने बाद डालें|
6 जहाँ लगातार सूखे की सम्भावना बनी रहती हो वहां पर सारी खादें के ही समय में डाल दें|
7 यदि किसी कारणवश नत्रजन की दूसरी मात्रा नहीं डाल सकें तब एक किलोग्राम यूरिया का प्रति ड्रम की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें|
8 फास्फोरस की खाद का प्रयोग हो वर्ष में एक बार ही करें|
9 यदि फल भंडारण करना हो तो फल तोड़ने से 30 और 45 दिन पहले कैल्शियम क्लोराइड एक किलोग्राम प्रति ड्रम (200 लीटर) के घोल का स्प्रे करें|
10 जिस वर्ष बहुत ज्यादा फसल लगी हो, तब 2 किलिग्राम यूरिया का छिड़काव (200 लीटर पानी में) फल तोड़ने के बाद करें|
11 पत्ते गिरने से पहले 8-10 किलिग्राम यूरिया प्रति 200 लीटर पानी में घोलने के बाद छिड़काव करें|
12 छिड़काव सुबह व शाम को ही करें, तेज धूप या वर्षा की सम्भावना होने पर छिड़काव न करें|
13 पोषक तत्वों का अलग ही छिड़काव करें| पौधों की सुप्प्तावस्था या फिर फूलने के समय कोई पोषक तत्वों का छिड़काव न करें|
14 चूने का पौधे पर छिड़काव न करें और सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिड़काव तभी करें जब आपको विशेषज्ञ ने इसकी सलाह दी हो|
15 छिड़काव पौधों में ऊपर से शूरू करें और खादें डालने के बाद उनको मिलाना न भूलें|

सिचाई , निराई - गुड़ाई
पहाड़ी क्षेत्र में सेब की खेती असिंचित दसा में की जाती है | तथा नमी के संरक्षण के उपाय करने चाहिए | तथा सेब के खेत में खर पतबार उगने नहीं देना चाहिए इसके साथ साथ मार्च माह में 10 CM मोटी सुखी घास या पेड़ो की पतियों की तरह प्रत्येक पौधे के थाले में बिछा देनी चाहिए | ये बिधि नमि की सुरक्षा करती है | मार्च से जून माह तक फलो की वृद्धि के समय आवस्य्क्ता अनुसार सिचाई करनी चाहिए |

1. नमी सरंक्षण : मल्चिंग से मृदा की नमी को सरंक्षित किया जा सकता है, पानी के वाष्पीकरण न होने के कारण यह पौधे के लिए लम्बे समय तक उपलब्ध रहता है |

2. तापमान नियंत्रण : मल्चिंग के इस्तेमाल से मिट्टी का तापमान नियंत्रित रहता है | जिससे जड़ों का उचित विकास होता है |

3. खरपतवार (Weeds) नियंत्रण : मल्चिंग के रहते सूर्य का प्रकाश खरपतवार के बीजों को नहीं मिल पाता, साथ ही मल्चिंग की परत खरपतवारों को उगने ही नहीं देती |

4. मिट्टी को नरम रखना : तौलिये के जिस भाग में मल्चिंग की जाती है वहां पर मिट्टी नरम/भुरभुरी रहती है, परिणामस्वरूप जड़ों के लिए हवा का आदान प्रदान बना रहता है |

5. मिट्टी में कार्बन तत्व की बढोतरी: घास, पतियों आदि से की गयी मल्च समय के साथ साथ सड़ती जाती है जिससे मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में बढोतरी होती है |

6. मिट्टी के अपरदन (Erosion) को रोकना : खासकर ढलानदार क्षेत्रों में जहाँ पानी के तेज बहाव के कारण अक्सर मिट्टी बह कर चली जाती है वहीँ मल्चिंग से इसे बचाया जा सकता है |

मल्चिंग के लिए घास, पत्ते, छोटी छोटी टहनियां, तिनके आदि का इस्तेमाल किया जा सकता है | इसकी परत की मोटाई लगभग 4-5 इंच होनी चाहिए | इसके आलावा प्लास्टिक की मल्च का इस्तेमाल भी लाभप्रद रहता है | सेब के बगीचों में इस्तेमाल होनी वाली प्लास्टिक मल्च लगभग 200 GSM की होनी चाहिए | दोहरे रंग (सिल्वर और काली) वाली शीट का इस्तेमाल किया जाना चाहिए | जिसमें चमकीली सतह ऊपर की तरफ और काली सतह नीचे तरफ रखना लाभदायक रहता है | आजकल मार्केट में मल्च मैट भी आ गयी है जिसके प्रयोग मल्चिंग से होने वाले सभी फायदे तो होते ही हैं, साथ में बारिश का पानी भी तौलियों में रिस जाता है

सेब को हानि पहुंचाने बाले कीट
संजोल स्केल
इस किट का शरीर काळा भूरे रंग के स्केल से ढका रहता है | यह किट फ्लो का रस चूस कर फलो को हानि पहुँचती है
नियंत्रण
पौधे की कटाई छटाई के समय (दिसम्बर से जनवरी माह में ) मिथाइल आड़े मेटान या दमेथोएट के। 0.1 % घोल का छिड़ कब करनी चाहिए या 15 दिन के अंदर करनी चाहिए अथवा 3 % ट्री आयल या 4 % डीजल तेल का छिड़काब करे |

उली एफिश
यह किट सफेद रुई जैसे पदार्थ के निचे गुलाबी रंग के महू के रूप में पौधे की जड़े , तना की छाल , कोमल टहनी तथा पतियों का रश चुस्त है | जड़ो में प्रकोप होने पर गांठ बन जाती है
नियंत्रण मिथाइल आड़े मेटान या डाइमेथोएट के ०. १ % घोल का छिड़काब अप्रैल - मई तथा सिप्टेम्बर माह में करनी चाहिए |
टेंट केटर पिलर

तना बेधक किट
किट तनो में छेद कर अंदर घुस कर तने को खा जाते है तथा बाहर निकले बुरादे से इसकी पहचान होती है
नियंत्रण
डाई मेथोएट के ०. ०३ % घोल में ृय डुबो कर तर की सहायता से छेड़ो में  ठूस दे |..

सेब में सूक्ष्म व अन्य पोषक तत्वों की कमी दूर करने हेतु छिड़काव

कुछ पौधों पर नाइट्रोजन, जस्ता, सुहागा, मैगनीज व कैल्शियम की कमी हो जाती है| इनमें से मुख्य पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाशियम को भूमि में डालना चाहिए जबकि सूक्ष्म पोषक तत्वों को छिड़काव द्वारा देना चाहिए| जहाँ नाइट्रोजन का अभाव हो वहां पौधों पर 1% यूरिया (2 किलिग्राम 200लीटर पानी) के छिड़काव द्वारा इस आभाव को पूरा किया जा सकता है| पोषक तत्वों का छिड़काव फूलों की पंखुडियां झड़ जाने के 10-15 दिन के बाद करना चाहिये| सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी दूर करने के लिए नीचे दी गई सारणी के अनुसार छिड़काव करें|

तत्व प्रयुक्त रसायन मात्रा 200 लीटर पानी में छिड़काव अंतराल छिडकाव समय

जिंक (जस्ता) जिंक सल्फेट 1 किलोग्राम 1-2 (15 दिन के अन्तराल पर मई-जून
बेरोन बोरिक एसिड 200 ग्राम –यथोपरि- जून
मैगनीज मैगनीज सल्फेट 800 ग्राम –यथोपरि- जून
कॉपर (तम्बा) कॉपर सल्फेट 600 ग्राम 2 (15 दिन के अन्तराल पर) जून-जुलाई
कैल्शियम कैल्शियम क्लोराइड 1 किलोग्राम –यथोपरि- पहला तुडाई से 45 दिन और दूसरा 30 दिन पहले

 नोट: जिंक सल्फेट, कॉपर सल्फेट और मैगनीज सल्फेट के साथ आधी मात्रा में अनबूझा चूना अवश्य मिला लें|

सेब के पौधों में फ़लों का झड़ना (Fruit Dropping)

फ़्रुट ड्रापिंग सेब के बागवानों के लिये एक गंभीर समस्या बन चुका है | सेटिंग के बाद जैसे ही ड्रापिंग शुरु होती है,

1). प्रथम ड्राप : कुछ फ़लों में परागण और निषेचन (Pollination and Fertilisation) प्रक्रिया पूरी न होने के कारण पंखुड़ीपात अवस्था (Petal Fall Stage) के बाद यह ड्राप हो जाता है | इसमें फ़ल की डंडी पीली पड़ना शुरु हो जाती है और वह गिर जाता है | शुरु में ऐसा प्रतीत होता है मानो सेटिंग बंपर हुई हो परन्तु इसे False Pollination कहा जाता है | फ़ुलों के खिलने के पांच सप्ताह के तक यदि पौधे को अच्छी धूप न मिले तो भी ड्रापिंग भारी मात्रा में होती है | हालांकी पांच सप्ताह के बाद फ़िर चाहे छाया क्यों न हो जाये इससे फ़्रुट ड्रापिंग में फ़र्क नहीं पड़ता |

इस ड्राप ने निज़ात पाने के लिये बागीचे में कम से कम 33% तीन प्रकार की परागण किस्में लगायें | मधुमक्खियों के बक्सों को बागिचों में रखें तथा पिंक कली अवस्था पर बोरोन का छिड़काव करें |

2). जून ड्राप : अक्सर बागवान के मन में यह भ्रांति रहती है कि जून ड्राप का मुख्य कारण सुखा पड़ना (Drought) है, लेकिन इसका मुख्य कारण पोषक तत्वों के प्रति बढ़ती प्रतिस्पर्धा है | इस अवस्था में जैसे-जैसे फलों का आकार बढ़ना शुरु होता है वैसे- वैसे उनकी पोषक तत्वों की जरुरत भी बढ़ती जाती है | अत: नाईट्रोजन, फोसफोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैगनिशियम, सल्फर के अतिरिक्त सुक्ष्मतत्वों का पौधे की कली फ़ुटने से लेकर तुड़ान से 15 दिन पहले तक की अवस्था तक उपलब्ध करवाना अनिवार्य रहता है | तुड़ान के बाद दिये गये पोषक तत्व पौधे में रिजर्व भोजन का काम करता है |

3). फ़ल तोड़ने से पूर्व की ड्रापिंग : इसका मुख्य कारण जमीन में पर्याप्त मात्रा में नमी न होना व फ़लों का पकना रहता है | जैसे-जैसे फ़ल पकना शुरु होता है वैसे- वैसे इथिलिन नामक हार्मोन बनना शुरु हो जाता है | परिणामस्वरुप फल की डंडी व बीमे के बीच बनी परत टूट जाती है और फ़ल गिर जाता है | इस ड्राप को रोकने के लिये यदि संभव हो तो सिंचाई का प्रयोग करें और मल्चिंग का इस्तेमाल करें | प्लास्टिक मलच शीट के अतिरिक्त घास या फ़िर कायल (Pinus wallichiana) या देवदार की सुखी पतियों की 5-6 इंच मोटी मल्चिंग करें | चीड़ के पतियों की मल्चिंग न करें | इसके इलावा NAA 10 mg/lt (2 gram per drum) की स्प्रे इस ड्रोपिंग के शुरु होने से पहले कर लें | अन्यथा ड्रोपिंग के शुरु होने के बाद की गयी स्प्रे ज्यादा लाभप्रद नहीं रहती |

वैसे तो ड्रोपिंग को 100% तक रोक पाना मुश्किल है लेकिन फ़िर भी कुछ छोटी-छोटी, लेकिन महत्वूर्ण बातों का ध्यान रख कर हम इस पर काफ़ी हद तक काबू पा सकते हैं

फल लगने से फल तुड़ाई की अवस्था
फल लगने से फल बढ़ोतरी तक (मई - जून ) असामयिकी पतझड़ एबं सकबे रोग की रोकथाम के लिए जिनवे (३०० ग्राम ) या डोडिन (७५ ग्राम ) या मेंकोजेब (३०० ग्राम ) या कार्बनडोजिम (५० ग्राम ) को १०० लीटर पानी में घोल कर प्रयोग करे |

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अंगूर की खेती
अंगूर की खेती उपोष्ण कटिबंध जगहों पर भी किया जा सकता है।  भारत के कई राज्यों में अंगूर की खेती बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। तथा जिसके परिणाम स्वरूप भारत में अंगूर की खेती उत्पादन एवं उत्पादकता क्षेत्रफल में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि होती जा रही है। पिछले तीन दशकों में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश  बिहार में अंगूर कि खेती ने प्रगति की है जिसके फलस्वरूप भारत में अंगूर के उत्पादन, उत्पादकता एवं क्षेत्रफल में अपेक्षा से अधिक वृद्धि होती जा रही है.

अंगूर के फल का उपयोग : किशमिश, शराब आदि भी बनाया जाता है।

जलवायु
अंगूर के लिये सामान्य (न अधिक ठंड व न अधिक गर्म) जलवायु की आवश्यकता होती है। इसके लिये आर्द  जलवायु हानिकारक होती हैं। अधिक ठंड हो जाने पर पौधों को हानि पहुँचती हैं

मिट्टी
अंगूर की जड़ की संरचना काफी मजबूत होती है. अतः यह कंकरीली,रेतीली से चिकनी तथा उथली से लेकर गहरी मिट्टियों में सफलतापूर्वक पनपता है लेकिन रेतीली, दोमट मिट्टी, जिसमें जल निकास अच्छा हो अंगूर की खेती के लिए उचित पाई गयी है. अधिक चिकनी मिट्टी में इसकी खेती न करे तो बेहतर है. अंगूर लवणता के प्रति कुछ हद तक सहिष्णु है. मिट्टी की गहराई 4 मीटर तथा पी.एच.मान 6.7 से 7.8 होना चाहिये। अंगूर के पकते समय वर्षा या बादल का होना बहुत ही हानिकारक है. इससे दाने फट जाते हैं और फलों की गुणवत्ता पर बहुत बुरा असर पड़ता है.

अंगूर की खेती के लिये प्रजातियां
1 पूसा सीडलेस
इस किस्म के अंगूर जून के तीसरे सप्ताह में पकना शुरू होता है। यह पकने पर हरे पीले और सुनहरे हो जाते है। फल खाने के अतिरिक्त अच्छी किशमिश के लिये उपयुक्त होता है। इनके फल छोटे तथा अंडाकार होता है।

2 पूसा नवरंग 
यह शीघ्र पकने वाली काफी उपज देने वाली किस्में है। इनके गुच्छे मध्यम आकार के होते है तथा फल बीज रहित होते है। यह मंदिरा बनाने के लिये उपयुक्त होता है।

3 परलेट
परलेट अंगूर उत्तरी भारत में शीघ्र पकने वाली प्रजातियों में से एक है। इसके गुच्छे थोड़ा छोटे-छोटे अविकसित फलो का होना मुख्य समस्या है तथा इसकी फली गठीले होते है और यह सफेदी लिये गोलकार आकार के होते है। इसके फल अधिक फलदायी और ओजस्वी होते है।

4 ब्यूटी सीडलेस
इस किस्मों के फल वर्षा शुरू होने से पहले मई के अंत तक पकने वाली होती है तथा यह गुच्छे में बड़े और लम्बे, गठीले वाले होते है। इसका फल मध्यम आकर का गोलाकर बीज रहित एवं काले रंग के होते है। इसमें लगभग 17-18 घुलनशील ठोस तत्व पाये जाते है।

5 थाॅमसन सीड-लेस
बेल ओजस्वी, खूब फैलने वाली होती हैं। दक्षिण व पश्चिम भाग में सफलता पूर्वक लगायी जा सकती हैं। लेकिन 5-6 वर्ष पश्चात फल में कमी आती हैं। गुच्छे मध्यम से बड़े आकार के बीज रहित मिठास 22 से 24 प्रतिशत, अम्लीयता 0.63 प्रतिशत, रस 39 प्रतिशत होता हैं।

6 अर्कावती
यह अंगूर की काली चम्पा व थाॅमसन सीडलेस की संकर किस्म हैं। बेल ओजस्वी, गुच्छे मध्यम, लगभग 500 ग्राम के होते हैं। दाने गोलाकार, सुनहरे हरे, मिठास 22-25 प्रतिशत अम्लीयता 0.6 -0.7 प्रतिशत एवं रस 70-74 प्रतिशत होता हैं।

7 फ्लेम सीडलैस
यह उन्नत किस्म गहरे जामुनी रंग वाली कड़े गूदे वाली है जिसमें उपज अधिक प्राप्त होती है तथा सभी क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हैं।

पौध प्रसारण एवं प्रवर्धन
अंगूर का प्रवर्धन मुख्यतः कटिंग कलम द्वारा होता है. जनवरी माह में काट छाँट से निकली टहनियों से कलमे ली जाती हैं. कलमे सदैव स्वस्थ एवं परिपक्व टहनियों से लिए जाने चाहिए. सामान्यतः 4 - 6 गांठों वाली 23 - 45 से.मी. लम्बी कलमें ली जाती हैं.कलम बनाते समय यह ध्यान रखें कि कलम का निचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए एवं ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए. इन कलमों को अच्छी प्रकार से तैयार की गयी तथा सतह से ऊँची क्यारियों में लगा देते हैं. एक वर्ष पुरानी जड़युक्त कलमों को जनवरी माह में नर्सरी से निकल कर खेत में रोपित कर देते हैं.
बेलों की रोपाई
रोपाई से पूर्व मिट्टी की जाँच अवश्य करवा लें. खेत को भलीभांति तैयार कर लें. बेल की बीच की दुरी किस्म विशेष एवं साधने की पद्धति पर निर्भर करती है. इन सभी चीजों को ध्यान में रख कर 90 x 90 से.मी. आकर के गड्ढे खोदने के बाद उन्हें 1/2 भाग मिट्टी, 1/2 भाग गोबर की सड़ी हुई खाद एवं 30 ग्राम क्लोरिपाईरीफास, 1 कि.ग्रा. सुपर फास्फेट व 500 ग्राम पोटेशीयम सल्फेट आदि को अच्छी तरह मिलाकर भर दें.पौधे को दीमक के प्रकोप से बचाने के लिये 5 मि.ली. क्लोरोपायरिफाॅस, 1 लीटर पानी में मिलाकर गड्ढों में सीचें फिर पौधों का रोपण कर सिंचाई करें। बढते हुये पौधों को बाँस लगा कर सहारा दें। जनवरी माह में इन गड्ढों में 1 साल पुरानी जड़वाली कलमों को लगा दें. बेल लगाने के तुंरत बाद पानी आवश्यक है.
अंगूर उत्पादन में बेल को निश्चित रूप से सधाई करें। यह कई प्रकार की होती है, इनमें मुख्य हैं-

1 शीर्ष विधि
2 टेलीफोन तार विधि
3 मण्डप या पण्डाल विधि
इनमे से कोई भी विधि अपनाकर बेलों की सधाई करें। इनमें पण्डाल विधि उत्तम हैं।

छंटाई
बेलों से लगातार एवं अच्छी फसल लेने के लिए उनकी उचित समय पर काट - छाँट अति आवश्यक है. छंटाई कब करें : जब बेल सुसुप्त अवस्था में हो तो छंटाई की जा सकती है, परन्तु कोंपले फूटने से पहले प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए. सामान्यतः काट - छांट जनवरी माह में की जाती है.

सिंचाई
नवम्बर से दिसम्बर माह तक सिंचाई की खास आवश्यकता नहीं होती क्योंकि बेल सुसुप्ता अवस्था में होती है लेकिन छंटाई के बाद सिंचाई आवश्यक होती है. फूल आने तथा पूरा फल बनने (मार्च से मई ) तक पानी की आवश्यकता होती है. क्योंकि इस दौरान पानी की कमी से उत्पादन एवं हुन्वात्ता दोनों पर बुरा असर पड़ता है. इस दौरान तापमान तथा पर्यावरण स्थितियों को ध्यान में रखते हुए 7 - 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. फल पकने की प्रक्रिया शुरू होते ही पानी बंद कर देना चाहिए नहीं तो फल फट एवं सड़ सकते हैं. फलों की तुडाई के बाद भी एक सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए.

निंदाई एवं गुड़ाई
अंगूर के उद्यान को खरपतवार रहित रखें। थालों को हाथ से खरपतवार निकाल कर साफ करें अथवा खरपतवारनाशी रसायन का उपयोग कर उद्यान साफ करें।

खाद एवं उर्वरक

खाद उर्वरक प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थवर्ष
गोबर की खाद (किलो) 25 30 40 40
नत्रजन (ग्राम) 200 300 400 400
पोटोष (ग्राम) - 160 250 250
पोटोष (ग्राम) - 150 300 300

हार्मोन का उपयोग
फलों के आकार में वृद्धि प्राप्त करने के लिये जिब्रेलिक एसिड 40-50 पी.पी.एम. (40-50 मि.ग्रा.) 1 लीटर पानी में घोलें। फूल अवस्था तथा मूँग के दाने के बराबर वाले फल की अवस्था पर गुच्छों को घोल में डुबायें, जिससे फलों के आकार में समुचित वृद्धि होगी । यह उपचार सीडलैस किस्मों में अच्छा पाया जाता हैं।

उपज
स्वस्थ वृक्षों में 3 वर्ष पश्चात फलन प्रारंभ हो जाता है। औसत उत्पादन 15 से 28 किलो प्रति बेल प्राप्त होती है अथवा 200-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलता हैं। फल पकने के समय वातावरण स्वच्छ एवं खुला होना चाहिये। फल पकने के समय वर्षा का होना हानिकारक हैं।

पौध संरक्षण
अंगूर में कई प्रकार के रोग लगते हैं। इसकी रोकथाम के लिये नियमित रूप से पौध संरक्षण अपनायें। सामान्य तौर पर एन्थ्रेकनोज, लीफस्पाॅट, फफूँद रोग नुकसान पहुँचाते हैं। एवं स्केल तथा बीटल कीड़ा भी अक्सर नुकसान करते हैं।

1 एन्थ्रेक्नोज़
शाखाओं की लताओं पर तथा पत्तियों पर काले धब्बे देखे जाते हैं। पत्तियाँ भूरी होकर गिरने लगें तो समझें कि एन्थ्रेकनोज़ रोग का आकम्रण हुआ हैं। यह रोग कवक द्वारा फैलता हैं। इनका प्रकोप बरसात के मौसम में अधिक होता हैं। इसकी रोकथाम के लिये बोर्डो मिश्रण 3: 3: 50 का छिड़काव करें। बरसात में दो तीन बार तथा ठंड में कटाई के बाद एक छिड़काव करें।

2 लीफस्पाॅट
यह कवक रोग हैं। संक्रमित पौधों की पत्तियों पर छोटे गोल गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। तथा कुछ समय पश्चात पत्तियाँ गिर जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिये उपर लिखे फफूंद नाशक दवाओं का छिड़काव करें।

3 भभूतिया या बुकनी (पाऊडरी मिल्डयू)
इस रोग में पत्तियों एवं तनों पर सफेद चूर्ण आच्छादित हो जाता हैं । रोग बढने पर फलों पर भी चूर्ण जम जाता है इससे बचने के लिये गंधक के चूर्ण का भुरकाव करें।

4 मृदुरोमिल फफूंदी (डाऊनी मिल्डयू)
इस रोग में पत्तियों की निचली सतह पर चूर्ण जमा होता है तथा पत्तियाँ सूखकर गिर जाती हैं। बोर्डो मिश्रण 5: 5: 50 का छिड़काव करें। रीडोमिल दवा 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करें।

5 शल्क कीट (स्केल कीट)
यह कीट टहनियों का रस चूसते हैं। यह टहनियों के ढीले छिद्र के अंदर विशेषकर मोड़ के स्थान में रहते हैं। अधिक आक्रमण पर टहनियाँ सूख जाती हैं। सुषुप्तावस्था में ढीली छाल हटा कर रोगर, 30 ई.सी. 0.05 या मेटासिस्टाॅक्स 0.03 से 0.05 प्रतिशत छिड़काव करें।

6 चैफर (बीटल)
यह पत्तियों को रात में खाता हैं। दिन में छुपा रहता हैं। पत्तियों में छेद दिखाई देते हैं। वर्षा ऋतु में अधिक हानि होती हैं। क्लोरोपाईरिफाॅस 20 ई.सी. एक लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।

वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग

बीज रहित किस्मों में जिब्बरेलिक एसिड का प्रयोग करने से दानो का आकर दो गुना होता है. पूसा सीडलेस किस्म में पुरे फूल आने पर 45 पी.पी.एम. 450 मि.ग्रा. प्रति 10 ली. पानी में, ब्यूटी सीडलेस मने आधा फूल खिलने पर 45 पी.पी.एम. एवं परलेट किस्म में भी आधे फूल खिलने पर 30 पी.पी.एम का प्रयोग करना चाहिए. जिब्बरेलिक एसिड के घोल का या तो छिडकाव किया जाता है या फिर गुच्छों को आधे मिनट तक इस घोल में डुबाया जाता है. यदि गुच्छों को 500 पी.पी.एम 5 मिली. प्रति 10 लीटर पानी में इथेफ़ोन में डुबाया जाये तो फलों में अम्लता की कमी आती है. फल जल्दी पकते हैं एवं रंगीन किस्मों में दानों पर रंग में सुधार आता है. यदि जनवरी के प्रारंभ में डोरमैक्स 3 का छिडकाव कर दिया जाये तो अंगूर 1 - 2 सप्ताह जल्दी पक सकते हैं.

फल तुड़ाई एवं उत्पादन

अंगूर तोड़ने के पश्चात् पकते नहीं हैं, अतः जब खाने योग्य हो जाये अथवा बाजार में बेचना हो तो उसी समय तोड़ना चाहिए. शर्करा में वृद्धि एवं तथा अम्लता में कमी होना फल पकने के लक्षण हैं. फलों की तुडाई प्रातः काल या सायंकाल में करनी चाहिए. उचित कीमत लेने के लिए गुच्छों का वर्गीकरण करें. पैकिंग के पूर्व गुच्छों से टूटे एवं गले सड़े दानों को निकाल दें. अंगूर के अच्छे रख - रखाव वाले बाग़ से तीन वर्ष पश्चात् फल मिलना शुरू हो जाते हैं और 2 - 3 दशक तक फल प्राप्त किये जा सकते हैं. परलेट किस्म के 14 - 15 साल के बगीचे से 30 - 35 टन एवं पूसा सीडलेस से 15 - 20 टन प्रति हैक्टेयर फल लिया जा सकता है.

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अनार की खेती
अनार पौष्टिक गुणों से परिपूर्ण, स्वादिष्ट, रसीला एवं मीठा फल है। अनार का रस स्वास्थ्यवर्धक तथा स्फूर्ति प्रदान करने वाला होता है। अनार का पौधा तीन-चार साल में पेड़ बनकर फल देने लगता है और एक पेड़ करीब 25 वर्ष तक फल देता है। साथ ही अब तक के अनुसंधान के मुताबिक प्रति हैक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने के लिए अगर दो पौधों के बीच की दूरी को कम कर दिया जाए तो प्रति पेड़ पैदावार पर कोई असर नहीं पड़ता है। लेकिन ज्यादा पेड़ होने के कारण प्रति हैक्टेयर उत्पादन करीब डेढ़ गुना हो जाता है। परंपरागत तरीके से अनार के पौधों की रोपाई करने पर एक हैक्टेयर में 400 पौधे ही लग पाते हैं जबकि नए अनुसंधान के अनुसार पांच गुणा तीन मीटर में अनार के पौधों की रोपाई की जाए तो पौधों के फलने-फूलने पर कोई असर नहीं पड़ेगा और एक हैक्टेयर में छह सौ पौधे लगने से पैदावार डेढ़ गुना तक बढ़ जाएगी। 

जलवायु 
 शुष्क एवं अर्ध-शुष्क जलवायु अनार उत्पादन के लिए बहुत ही उपयुक्त होती है। पौधों में सूखा सहन करने की अत्यधिक क्षमता होती है परन्तु फल विकास के समय नमी आवश्यक है। अनार के पौधों में पाला सहन करने की भी क्षमता होती है। फलों के विकास में रात में समय ठण्डक तथा दिन में शुष्क व गर्म जलवायु काफी सहायक होती है। ऐसी परिस्थितियों में दानों का रंग गहरा लाल तथा स्वाद मीठा होता है। वातावरण एवं मृदा में नमी के अत्यधिक उतार-चढ़ाव से फलों में फटने की समस्या बढ़ जाती है तथा उनकी गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

भूमि
 अनार का बाग लगाने के लिए 7 से 8 पीएच मान वाली बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है। इसके पौधों में लवण एवं क्षारीयता सहन करने की भी क्षमता होती है। अतः क्षारीय भूमि में भी इसकी खेती की जा सकती है। यही नहीं लवणीय पानी से सिंचाई करके भी अनार की अच्छी पैदावार ली जा सकती है।

पौध तैयार करना
सख्त काष्ठ कलम अनार के वानस्पतिक प्रवर्धन की सबसे आसान तथा व्यवसायिक विधि है । कलमें तैयार करने के लिए एक वर्षीय पकी हुई टहनियों को चुनते हैं । टहनियों की जब वार्षिक काट-छाँट होती है, उस समय लगभग 15-20 से.मी. लम्बी स्वस्थ कलमें, जिनमें 3-4 स्वस्थ कलियाँ मौजूद हों, को काट कर बंडल बना लेते हैं। ऊपर का कटाव आँख के 5.5 से.मी. ऊपर व नीचे का कटाव आँख के ठीक नीचे करना चाहिए । पहचान के लिए कलम का ऊपरी कटाव तिरछा व नीचे का कटाव सीधा बनाना चाहिए । तत्पश्चात कटी हुई कलमों को 0.5 प्रतिशत कार्बेंडाजिम या काॅपर आक्सीक्लोराइड के घोल में भिगो लेना चाहिए तथा भीगे हुए भाग को छाया में सुखा लेना चाहिए ।
कलमों को लगाने से पहले आधार भाग का 6 से.मी. सिरा 2000 पीपीएम ( 2 ग्राम/ली. ) आई.बी.ए. के घोल में 55 सैकण्ड के लिए उपचारित करें । इससे जड़ें शीघ्र फूट जाती हैं । कलमों को उपयुक्त मिश्रण से भरी हुई थैलियों में थोड़ा तिरछा करके रोपण कर देते हैं । कलम की लगभग आधी लम्बाई भूमि के भीतर व आधी बाहर रखते हैं । दो आँखे भूमि के बाहर व अन्य आँखें भूमि में गाड़ देनी चाहिए । कलम को गाड़ते समय यह ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि कलम कहीं उल्टी न लग जाए । कलमें लगाने के पश्चात् सिंचाई करें व उसके बाद नियमित सिंचाई करते रहना चाहिए । लगभग 2 महीने बाद अधिक बढ़ी हुई टहनियों की कटाई-छाटाई कर देनी चाहिए तथा समय-समय पर कृषि क्रियाएँ तथा छिड़काव आदि करते रहना चाहिए ।

शुष्क क्षेत्र के लिए अनार की उन्नत किस्में
क्षेत्र की जलवायु, मृदा एवं पानी की गुणवत्ता तथा बाजार मांग के अनुसार उच्च गुणवत्ता वाली किस्मों का चुनाव अति महत्वपूर्ण है । राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्धशुष्क जलवायु के लिए जालोर सीडलैस, जी-137, पी-23, मृदुला, भगवा आदि किस्में अति उत्तम पायी गयी हैं । जालोर सीडलैस में जहाँ दाने मीठे तथा मुलायम होते हैं, वहीं जी-137 तथा पी-23 के फल बहुत ही आकर्षक तथा बड़े होते हैं तथा इनमें फटने की समस्या भी कम होती है । मृदुला, भगवा या सिंदूरी फलों का रंग गहरा चमकीला लाल होने की वजह से बाजार भाव काफी अच्छा रहता है ।

बाग की स्थापना
अनार का बगीचा लगाने के लिए रेखांकन एवं गड्डा खोदने का कार्य मई माह में संपंन कर लेना चाहिए । इसके लिए वर्गाकार या आयताकार विधि से 4 * 4 मीटर ( 625 पौधे प्रति हैक्टर ) या 5 * 3 मीटर ( 666 पौधे प्रति हैक्टर ) की दूरी पर, 60 * 60 * 60 सेमी आकार के गड्डे खोदकर 0.1 प्रतिशत कार्बेंडाजिम के घोल से अच्छी तरह भिगो देना चाहिए । तत्पश्चात 50 ग्राम प्रति गड्डे के हिसाब से कार्बोनिल चूर्ण व थिमेट का भुरकाव भी गड्डे भरने से पहले अवश्य करना चाहिए ।
जिन स्थानों पर बैक्टीरिल ब्लाइट की समस्या हो वहाँ प्रति गड्डे में 100 ग्राम कैल्शियम हाइपोक्लोराइट से भी उपचार करना चाहिए । ऊपरी उपजाऊ मिट्टी में 10 कि.ग्रा. सड़ी गोबर या मींगनी की खाद, 2 कि.ग्रा. वर्मीकम्पोस्ट, 2 कि.ग्रा. नीम की खली तथा यदि संभव हो तो 25 ग्राम ट्राइकोडरमा आदि को मिलाकर गड्डों को ऊपर तक भर कर पानी डाल देना चाहिए जिससे मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए । पौध रोपण से एक दिन पहले 100 ग्राम नत्रजन, 50 ग्राम फाॅस्फोरस तथा 50 ग्राम पोटाश प्रति गड्डों के हिसाब से डालने से पौधों की स्थापना पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है । पौध रोपण के लिए जुलाई-अगस्त का समय अच्छा रहता है । परन्तु पर्याप्त सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने पर फरवरी-मार्च में भी पौधे लगाये जा सकते हैं

पौधे लगाना 
दूरी - 5x5 मीटरगड्ढे का आकार - 60x60x60 सें.मी.गड्ढे भराई का मिश्रण प्रत्येक गड्ढे में 5 किलोग्राम वर्मी कम्पोस्ट अथवा 10-15 किलोग्राम गोबर की खाद, आधा किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 50 ग्राम मिथाइल पैराथियान चूर्ण को मिट्टी में मिलाकर भरना चाहिए। यदि तालाब की मिट्टी उपलब्ध हो तो उसकी भी कुछ मात्रा गड्ढे में डालनी चाहिए। गड्ढों को मानसून आने से पहले ही भर देना चाहिए। पौधे लगाने का कार्य जुलाई-अगस्त अथवा फरवरी-मार्च में करना चाहिए।अन्तराशस्य - आरम्भ के तीन वर्षो तक बाग में सब्जियाँ जैसे मटर, ग्वार, चौलाई, बैंगन, टमाटर आदि ली जा सकती हैं।सधाई - अनार के पौधों को उचित आकार व ढाँचा देने के लिए स्थाई एवं काट-छाँट की नितान्त आवश्यकता होती है। एक स्थान पर चार तने रखकर अन्य शाखाओं को हटाते रहें।सिंचाई - अच्छी गुणवत्ता एवं अधिक फल उत्पादन के लिए गर्मी के मौसम में 7-10 दिन के अन्तराल पर तथा सर्दी में 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फल विकास के समय वातावरण तथा मृदा में नमी का असंतुलन रहता है तो फल फट जाते हैं। इसके लिए फल विकास के समय भूमि तथा वातावरण से निरन्तर पर्याप्त नमी बनाये रखनी चाहिये।बहार नियंत्रण - अनार में वर्ष में तीन बार फूल आते हैं जिसे बहार कहते हैं।
1 अम्बे बहार (जनवरी-फरवरी)
2 मृग बहार (जून-जुलाई)
3 हस्त बहार (सितम्बर-अक्टूबर)

खाद एवं उर्वरक
उर्वरक एवं सूक्ष्म पोषक तत्व निर्धारित करने के लिए मृदा परीक्षण अति आवश्यक है । सामान्य मृदा में 10 कि.ग्रा. सड़ी गोबर की खाद, 250 ग्राम नाइट्रोजन, 125 ग्राम फास्फोरस तथा 125 ग्राम पोटेशियम प्रतिवर्ष प्रति पेड़ देना चाहिए । प्रत्येक वर्ष इसकी मात्रा इस प्रकार बढ़ाते रहना चाहिए कि पांच वर्ष बाद प्रत्येक पौधों को क्रमशः 625 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फास्फोरस तथा 250 ग्राम पोटेशियम दिया जा सके ।
शुरू में तीन वर्ष तक जब पौधों में फल नहीं आ रहे हों, उर्वरकों को तीन बार में जनवरी, जून तथा सितम्बर में देना चाहिए तथा चैथे वर्ष में जब फल आने लगे तो मौसम ( बहार ) के अनुसार दो बार में देना चाहिए । शुष्क क्षेत्रों में मृग बहार लेने की संस्तुति की जाती है । अतः गोबर की खाद व फाॅस्फोरस की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन व पोटाश की आधी मात्रा जुलाई में तथा शेष आधी अक्टूबर में पौधों के चारों तरफ एक से डेढ़ मीटर की परिधि में 15-20 से.मी. गहराई में डालकर मिट्टी में मिला देना चाहिए । अनार की खेती में सूक्ष्म तत्वों का एक अलग महत्व है इसके लिए जिंक सल्फेट ( 6 ग्रा./ली.), फेरस सल्फेट ( 4 ग्रा./ली.) या मल्टीप्लेक्स 2 मिली/लीटर का पर्णीय छिड़काव फूल आने तथा फल बनने के समय करना चाहिए ।

सिंचाई एवं जल प्रबंधन
अनार के सफल उत्पादन के लिए सिंचाई एवं महत्वपूर्ण कारक है । गर्मियों में 5-7 दिन, सर्दियों में 10-12 दिन तथा वर्षा ऋतु में 10-15 दिनों के अन्तराल पर 20-40 लीटर/पौधा सिंचाई की आवश्यकता होती है । अनार में टपक सिंचाई पद्धति अत्यधिक लाभप्रद है क्योंकि इससे 20-43 प्रतिशत पानी की बचत होती है । साथ ही 30-35 प्रतिशत उपज में भी बढ़ोत्तरी हो जाती है तथा फल फटने की समस्या का भी कुछ सीमा तक समाधान हो जाता है । मृदा नमी को संरक्षित रखने के लिए काली पाॅलीथीन ( 150 गेज ) का पलवार बिछाना चाहिए तथा केओलीन के 6 प्रतिशत ( 6 ग्रा./ली.) घोल का पर्णीय छिड़काव करना काफी लाभप्रद रहता है ।

अनार की प्रमुख रोग
पत्ती एवं फल धब्बा रोग 
 इस रोग का प्रकोप अधिकतर मृगबहार की फसल में होता है। वर्षा ऋतु में अधिक नमी के कारण पत्तियों और फलों के ऊपर फफूँद के भूरे धब्बे दिखाई देते हैं जिससे रोगी पत्तियां गिर जाती हैं तथा फलों के बाजार मूल्य में गिरावट आ जाती है। फल सड़ने भी लगते हैं।
नियंत्रण
 (1) बाग की समय-समय पर सफाई करते रहना चाहिए।
(2) रोगग्रसित फलों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
(3) मैन्कोजेब या जिनेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर 15-20 दिन के अन्तराल पर तीन-चार बार छिड़काव करना चाहिए।

पत्ती मोड़क (बरुथी) 
 इस रोग के प्रभाव से पत्तियां सिकुड़ कर मुड़ जाती हैं जिससे पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अक्सर पौधे की बढ़वार व फलन बुरी तरह प्रभावित होता है। यह रोग सितम्बर के महीने में अधिक फैलता है।
नियंत्रण 
ओमाइट या इथियोन 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। 15 दिन के बाद दूसरा छिड़काव भी करना चाहिए।

तेलीय धब्बा रोग 
यह अनार का सबसे भयंकर रोग है। इस रोग का प्रभाव पत्तियों, टहनियाँ व फलों पर होता है। शुरु में फलों पर भूरे-काले रंग के तेलीय धब्बे बनते हैं। बाद में फल फटने लगते हैं तथा सड़ जाते हैं। रोग के प्रभाव से पूरा बगीचा नष्ट हो जाता है।
नियंत्रण 
कैप्टॉन 0.5 प्रतिशत या बैक्टीरीनाशक 500 पीपीएम का छिड़काव करना चाहिए और कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम, स्टेªप्टो साइक्लिन 0.5 ग्राम का छिड़काव करें।

पर्ण एवं फल चित्ती रोग 
इस रोग के नियंत्रण हेतु डाइथेन एम-45 या कैप्टान 500 ग्राम 200 लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तराल में 3-4 बार छिड़काव करें।

प्रमुख कीट
तना छेदक 
यह कीट पेड़ की छाल को खाता है तथा छिपने के लिए अन्दर शाखा में गहरे तक सुरंग बना लेता है। जिससे शाखा कभी-कभी कमजोर पड़ जाती हैं।
नियंत्रण 
 सूखी शाखाओं को काट कर जला देना चाहिए। सुरंग में 3 से 5 मिलीलीटर केरोसिन तेल डालें तथा सुरंग को गीली मिट्टी से बंद कर दें। क्यूनालफॉस 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर शाखाओं तथा डालियों पर छिड़कें।

अनार की तितली -
मादा तितली पुष्प कली पर अण्डे देती है। इनसे लटें निकल कर बनते हुए फलों में प्रवेश कर जाती हैं। फल को अन्दर ही अन्दर खाती हैं। फलस्वरुप फल सड़ कर गिर जाते हैं।
नियंत्रण 
फल बनते समय कार्बारिल 50 डब्ल्यू पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।मिली बग - इसके अव्यस्क शिशु, प्रायः नवबर-दिसम्बर में बाहर निकल कर तने के सहारे चढ़ते हुए वृक्ष की कोमल टहनियों एवं फूलों पर एकत्रित हो जाते हैं तथा रस चूस कर नुकसान पहुँचाते हैं। इसके प्रकोप से फल नहीं बन पाते हैं। इसके द्वारा एक तरह का मीठा चिचिपा पदार्थ छोड़ा जाता है।
नियंत्रण 
अगस्त-सितम्बर तक पेड़ के थांवले की मिट्टी को पलटते रहें जिससे अण्डे बाहर आकर नष्ट हो जायें। मिथाइल पैराथियॉन चूर्ण 50-100 ग्राम प्रति पेड़ के हिसाब से थांवले में 10-25 सेन्टीमीटर की गहराई में मिलायें। शिशु कीट को पेड़ पर चढ़ने से रोकने के लिए नवम्बर में 30-40 सेन्टीमीटर चौड़ी 400 गेज एल्काथिन की पट्टी जमीन से 60 सेन्टीमीटर की ऊँचाई पर तने के चारों ओर लगाएं तथा इसके निचले 15-20 सेन्टीमीटर भाग तक ग्रीस का लेप करें। यदि पेड़ पर मिली चढ़ गयी हो तो इमिडोक्लोप्रिड 1 मिलीलीटर प्रति 3 लीटर या डाईमिथोएट 30 ई सी 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।

फल तोड़ाई एवं उपज
उचित देख रेख तथा उन्नत प्रबंधन अपनाने से अनार से चैथे वर्ष में फल लिया जा सकता है । परन्तु इसकी अच्छी फसल 6-7 वर्ष पश्चात ही मिलती है तथा 25-30 वर्ष तक अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है । एक विकसित पेड़ पर लगभग 50-60 फल रखना उपज एवं गुणवत्ता की दृष्टि से ठीक रहता है । एक हैक्टेयर में 600 पौधे लग पाते हैं इस हिसाब से प्रति हैक्टेयर 90 से 120 क्विंटल तक बाजार भेजने योग्य फल मिल जाते हैं । इस हिसाब से एक हैक्टेयर से 5-6 लाख रूपये सालाना आय हो सकती है । लागत निकालने के बाद भी लाभ आकर्षक रहता है ।

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बड़ी इलायची

बड़ी इलायची को लार्ज कार्डेमम के नाम से भी जाना जाता है | इसका वनस्पतिक नाम एमोमम सूबुलेटम है | यह जिन्जीबरेसी प्रजाति का पौधा है | इसका तना 0. ९ मीटर से २. 0 मीटर तक लम्बा होता है | इसके पौधे की पत्तियां 30 से 60 सेंटीमीटर लम्बी और 6 से 9 सेंटीमीटर चौड़ी होती है | इन पत्तियों का रंग हरा होता है और दोनों तरफ से रोम रहित होता है | इसके फूल के वृंत छोटे और गोल आकार में होते है | इसका फल 2 . 5 सेंटीमीटर लम्बा और गोलाकार होता है | इसका रंग लाल भूरा और घना कंटीला होता है |
बड़ी इलायची के उपयोग
इलायची को मसाले की रानी कहा जाता है | इसका उपयोग भोजन का स्वाद बढाने के लिए किया जाता है | लेकिन इसमें औषधिय गुण भी होते है जिससे मनुष्य अपनी बीमारी को दूर करते है | बड़ी इलायची से बनने वाली दवाईयों का उपयोग पेट दर्द को ठीक करने के लिए , वात , कफ , पित्त , अपच , अजीर्ण , रक्त और मूत्र आदि रोगों को ठीक करने के लिए  किया जाता है |  बड़ी इलायची के उपर एक छिलके जैसा आवरण होता है जिसके अंदर बीज होते है | इस बीज का काढ़ा बनाकर पीने से मसूड़ों और दांतों का दर्द ठीक हो जाता है | बड़ी इलायची की खेती करने से हमे अधिक फायदा मिलता  है | इसका निर्यात विदेशो में किया जाता है | जिससे हमे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है |  यह एक महंगा मसाला है | इससे हम अधिक से अधिक आमदनी कमा सकते है |

बड़ी इलायची के पौध कैसे तैयार करें
बड़ी इलायची की खेती का भौगोलिक वितरण
भारत में बड़ी इलायची की खेती एक नकदी फसल के रूप में की जाती है | इसकी खेती सिक्किम , पश्चिमी बंगाल , दार्जलिंग , और भारत के उत्तर – पूर्वी भाग में अधिक की जाती है | बड़ी इलायची  भारत के उत्तर – पूर्वी भाग में प्रकृतिक रूप में पाई जाती है | इसके आलावा नेपाल , भूटान और चीन जैसे देश में भी इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जाती है |

बड़ी इलायची से बने तेल के भौतिक और रासायनिक गुण
बड़ी इलायची से बना तेल रंगहीन होता है | लेकिन जब यह गाढ़ा हो जाता है तो इसका रंग पीला हो  जाता है | इसका विशसिष्ट घनत्व 270 डिग्री सेल्सियस का होता है | यह एल्कोहल में घुलनशील रासायनिक अवयव टरपीनस टरपीनीओल और सिनिओल आदि |

बड़ी इलायची की खेती के लिए उपयुक्त तापमान
बड़ी इलायची की खेती करने के लिए 10 डिग्री से 30 डिग्री का तापमान सबसे उत्तम माना जाता है | तापमान के साथ – साथ इलायची की अधिक उपज लेने के लिए नमी युक्त स्थान और छायादार स्थान का होना बहुत जरूरी है |

बड़ी इलायची की खेती करने के लिए उपयुक्त भूमि का चुनाव
जिस खेत में बड़ी इलायची की खेती की जा रही है उस खेत की मिटटी में प्रचुर मात्रा में नाइट्रोजन , फास्फोरस और पोटाश का होना बहुत जरूरी है | इसकी खेती अम्लीय दोमट मिटटी में सफलतापूर्वक की जाती है | लेकिन मिटटी में नमी की उचित मात्रा होनी चाहिए | यदि खेत की भूमि का पी. एच. मान 5 से 6 के बीच का हो तो बेहतर होता है | इस तरह की भूमि बड़ी इलायची की वृद्धि के लिए उत्तम होती है |

 बीजों को कैसे उपचारित करें
फसल बोने से पहले खेत की तैयारी

नर्सरी तैयार करना
बड़ी इलायची की खेती करने के लिए सबसे पहले हम एक पौधशाला बनाते है | पौधशाला में बीजों को कतारों में बोयें | बीजों को कम से कम 9 से 10 सेंटीमीटर की दुरी पर बोयें | मिटटी की नमी को बनाएं रखने के लिए इसके ऊपर सुखी घास , पुआल या पत्तियों की एक परत बिछा दें | इसके बीजों में अंकुरण मार्च के महीने में होने लगता है जो अप्रैल से मई के महीने तक चलता है | बीजों में अंकुरण होने के बाद भूमि पर से पुआल , और सुखी घास की परत को हटा देना चाहिए | इसके बाद पौधे की वृद्धि करने के लिए उचित छाया की व्यवस्था करनी चाहिए | इसकी तैयार नर्सरी में हर रोज कम से कम २ बार हल्की सिंचाई करनी चाहिए | जिससे मिटटी में नमी बनी रहे | जब पौध पर 5 या 6 पत्तियां निकल जाये तो इसे खेत में रोपण करने के लिए उपयोग करें | इसकी दूसरी नर्सरी तैयार करें जिसमें रोपाई जुलाई के महीने में करें | दूसरी नर्सरी का निर्माण करने के लिए 80 से 90 सेंटीमीटर लम्बी , 15 सेंटीमीटर चौड़ी और आवशयकता अनुसार ऊंचाई की कतार बनाये | क्यारी बनाते समय इसमें सड़ी हुई गोबर की खाद मिला दें | इसके बाद पहली नर्सरी से पौध को निकालकर दूसरी तैयार नर्सरी में रोपित करें | पौधे को 15 सेंटीमीटर की दुरी पर रोपें | जब इसके पौधे की लम्बाई 45 से 60 सेंटीमीटर की हो जाये और पौधे में से कम से कम 3 या 4 शाखाएं निकल जाये तो इन्हें अगले साल खेत में रोपित करें | इसे रोपने के लिए जुलाई का महिना अति उत्तम होता है |

प्रकन्द नर्सरी
प्रकन्द पौध नर्सरी बनाने के लिए 30 सेंटीमीटर चौड़ी और 30 सेंटीमीटर गहराई में गड्ढा खोदें | एक गड्डे से दुसरे गड्डे के बीच की दुरी लगभग 15 सेंटीमीटर की रखे | इन गड्ढो में वर्धि कलिका युक्त प्रकन्द पौध को 40 से 45 सेंटीमीटर की दुरी रोपित करें | इसके कंद को जुलाई महीने में  रोपित करें | इस तरह का पौधा बीमारी से रहित होता है | पौध को रोपित करने से पहले हर एक गड्डे में  सड़ी हुई गोबर की खाद को अच्छी तरह से मिला देना चाहिए | इसके बाद रोपाई की प्रिक्रिया शुरू करें | पौध लगाने के बाद गड्ढे के चारों और सुखी पत्तियों की एक मोटी सी परत बिछा दें | जब पौधे पर और भी अन्य शाखाएं निकल जाये तो नव कलिका युक्त दो शाखाओं को एक समहू में काटकर खेत में रोपित करें | इस तरह की विधि से आप प्रकन्द नर्सरी बना सकते है |

खेत में रोपाई करने के लिए
इलायची के पौधे की जुलाई या अगस्त के महीने में रोपाई करें | पौधे की रोपाई करने से पहले 30 सेंटीमीटर लम्बा , 30 सेंटीमीटर चौड़ा और 30 सेंटीमीटर गहरा गड्ढा खोद लें | इसकी 15 सेंटीमीटर नीचे की मिटटी को अलग निकालकर रख दें | इसके बाद अलग रखी हुई मिटटी में जंगल की खाद या गोबर की खाद मिलाकर गड्डे में भर दें | इसके बाद पौधे को रोपित करें | एक पौधे से दुसरे पौधे की बीच की दुरी १. 5 मीटर की होनी चाहिए | खेत के एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के भाग में कम से कम 400 पौधे लगाने चाहिए | खेत के चारों और बड़े पेड़ होने चाहिए जिससे इसके पौधे को छाया प्राप्त हो सके | छाया में इसकी अधिक वृद्धि होती है  और हमे अधिक से अधिक उपज की प्राप्ति होती है | हम इलायची की खेती अखरोट , संतरा , बांज लोध आदि वृक्ष के नीचे भी इसकी खेती कर सकते है |

बड़ी इलायची का प्रवर्धन
 प्रवर्धन
इलायची का प्रवर्धन प्रकन्द और उत्तक प्रजजन के द्वारा होता है | इसके बीजों की बुआई अक्तूबर या नवम्बर के महीने में की जाती है | बुआई करने से पहले बीजो को उपचारित किया जाता है | इसे उपचारित करने के लिए 25 % नाइट्रिक एसिड के घोल में बीजों को कम से कम 10 मिनट तक रख दें | इसके बाद बाद इसे बहते पानी में अच्छी तरह से धोकर बीजों को छाया में सुखा दें | ऐसा करने से बीजों में अधिक से अधिक अंकुरण होता है और समय पर एक साथ अंकुरण होता है |
उत्तक सम्वर्धन के द्वारा
इस विधि से उन्नत किस्म के पौधों को बहुगुणित किया जाता है | इस विधि के द्वारा तैयार पौधे में रोगों से लड़ने की क्षमता होती है | बड़ी इलायची के पौधे को वर्धि कलिका या कृत्रिम विधि से रोपित किया जाता है | इसके तीन महीने के बाद वर्धि कलिकाओं को जड़ और तने सहित पौधों का एक समहू उत्पादित किया जाता है | इन छोटे पौधे को दूसरी नर्सरी तैयार करके रोपित किया जाता है | दूसरी नर्सरी में रोपाई करने के 5 से 7 महीने के बाद इन्हें मुख्य खेत में रोपित कर दिया जाता है | इस विधि से प्राप्त बड़ी इलायची के पौध में रोग से लड़ने की क्षमता होती है | इसके साथ ही साथ हमे अधिक और अच्छी गुणवत्ता की उपज प्राप्त होती है |

 इलायची की फसल में प्रयोग होने वाली खाद और उर्वरक
इलायची के पौध तैयार करने के लिए बनाई गई पहली नर्सरी और दूसरी नर्सरी में उचित मात्रा में कम्पोस्ट खाद और उर्वरक खाद का उपयोग करना चाहिए | इससे हमे अच्छी उपज मिलती है | इसके आलावा जब हम पौध की रोपाई मुख्य क्षेत्र में करते है तो एक साल में दो बार सड़ी हुई खाद और कम्पोस्ट खाद को भूमि में डाल दें |

उर्वरक खाद का प्रयोग
किलोग्राम माइक्रो भू पावर , एक किलो माइक्रो फर्ट सिटी कम्पोस्ट , एक किलो सुपर गोल्ड मैग्नीशियम , एक किलो सुपर गोल्ड कैल्सी और एक किलो माइक्रो नीम आदि खाद को आपस में मिलाकर एक अच्छा सा मिश्रण बनाये | इस खाद के मिश्रण को जुलाई और नवम्बर के महीने में खेत में उगी हुई फसल में डाले |
 
सिंचाई
बड़ी इलायची की पहली नर्सरी में बीज बोने के बाद और अंकुरण से पहले एक दिन में कम से कम दो बार सिंचाई अवश्य करें | ताकि भूमि में नमी बनी रहे | जब बीजों का अंकुरण हो जाता है और जब हम इसके पौधे को दूसरी नर्सरी में रोपित करते है तो भी हमे भूमि की नमी को बनाये रखने के लिए दो से तीन बार हल्की – हल्की सिंचाई करनी चाहिए | इसके आलावा जब पौधे को मुख्य क्षेत्र में रोपित किया जाता है तो सिंचाई करना बहुत आवशयक है |

खरपतवार की रोकथाम
पहली नर्सरी में जब बीजो का अंकुरण होता है तो उसमे बड़ी ही सावधानी से खरपतवार को निकालना चाहिए | अन्यथा बीजो को हानि पंहुच सकती है | दूसरी नर्सरी में भी समय – समय पर हल्की निराई – गुड़ाई करके खरपतवार को निकाल दें | मुख्य भाग में जंहा पर इसकी निश्चित रोपाई की गई है उस भाग में साल में कम से कम तीन या चार बार निराई – गुड़ाई करनी चाहिए | हमे हमेशा खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए |

इलायची की फसल में लगने बीमारी और उसकी रोकथाम के उपाय
इलायची की फसल में मुख्य रूप से दो प्रकार की बीमारी का प्रकोप होता है | ये बीमारी विषाणुओं के द्वारा फैलते है | इन बीमारी का नाम है :- फुरके और सिरके |
फुरके नामक बीमारी में पौधे में अधिक से अधिक टहनियां निकल जाती है | जिसे पोधा बोना रह जाता ही | जबकि सिरके नामक बीमारी में पौधे की पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे पड़ जाते है | पत्तियों के इस भाग में हरित लवक नष्ट हो जाता है | जिसके कारण धीरे – धीरे पौधे की पत्तियां सुख जाती है | विषाणु जनित इन बिमारियों को पौधे से बचाने के लिए पुरे पौधे को उखाड़कर जला दें या भूमि के अंदर दबा दें | इलायची की फसल में यदि किसी और बीमारी का प्रकोप है तो उससे बचने के लिए रसायनों का छिडकाव करें | लेकिन इससे उपज की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ सकता है |
 पौधे को बीमारी से बचाने के लिए नीम की पत्तियों का काढ़ा तैयार करके माइक्रो झाझ्म मिलाकर फसलों पर छिडकाव करें | आप नीम के काढ़े के आलावा देसी गाय का मूत्र भी ले सकते है |

नीम का काढ़ा बनाने का तरीका
25 किलोग्राम नीम की पत्तियों को तोड्कर कुचल कर पीस लें | इसके बाद इन पत्तियों को 50 लीटर पानी में मिलाकर मंद अग्नि पर पकाएं | पकते हुए जब इस मिश्रण की मात्रा आधी शेष रह जाये तो इसे आंच से उतारकर ठंडा होने के लिए रख दें | तैयार काढ़े की आधे लीटर पम्प और माइक्रो झाझम की 25 मिलीलीटर की मात्रा को पानी में मिलाकर फसलों पर तर – बतर करके छिडकाव करें |
 10 से 15 लीटर गौमूत्र को लेकर किसी प्लास्टिक या कांच के बर्तन में 15 से २० दिन तक धुप में रख दें | जब यह मूत्र पुराना हो जाये तो इसकी आधी लीटर की मात्रा में 25 मिलीलीटर माइक्रो झाझम मिलाकर एक मिश्रण बनाएं | इस मिश्रण में पानी मिलाकर पम्प में भरकर फसलों पर छिडकाव करें | इस तरह के छिडकाव से फसल पूरी तरह से निरोग रहती है |

बड़ी इलायची में लगने वाले कीट
 1 कैटर पिलर :- ये पौधे की पत्तियों को खाने वाला कीट होता है |
 2 शूट बोरर :- यह कीट पौधे के तने में छेद करके उसे खोखला बना देता है |
 3 शूट फ्लाई :- यह पौधे के तने में घुसकर छोटे – छोटे छेद बना देते है जिससे तना पूरी तरह से खराब हो जाता है | इसके आलावा थेरिप्स और एफिड नामक कीट पौधे को नुकसान पंहुचाते है |
 कीटों की रोकथाम करने के लिए हमे कीटनाशक दवा का प्रयोग करना चाहिए | इससे उपज की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है |
 पौधे को बीमारी से बचाने के लिए नीम की पत्तियों का काढ़ा तैयार करके माइक्रो झाझ्म मिलाकर फसलों पर छिडकाव करें | आप नीम के काढ़े के आलावा देसी गाय का मूत्र भी ले सकते है |

 फसल की कटाई
फल आने पर और ऊपर से नीचे फल पकने के बाद फल युक्त शाखा को भूमि से 45 सेंटीमीटर ऊपर से काटना चाहिये | इसके बाद फलों को अलग निकालकर छाया में सुखाना चाहिए |

उपज की प्राप्ति
बड़ी इलायची का पौधा पहले और दुसरे साल में बढ़ता है और विकसित होता है | तीसरे और चौथे साल में एक हेक्टेयर भूमि से 500 से
700 किलोग्राम की उपज मिलती है | इससे हमे अधिक मुनाफा मिलता है | क्योंकि बड़ी इलायची की बाजार में कीमत बहुत ज्यादा है |

भण्डारण
पूरी तरह से सूखे हुए फलों को पोलीथिन से बने बस्तों में भर दें | इसे किसी लकड़ी से बने हुए बोक्स में इस तरह से रखे कि इसमें नमी ना जा सके | इसके आलावा हमे इसके फलों को फफूंदी लगने से भी बचाना चाहिए |

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नींबू की खेती
नींबू की खेती विश्व में सबसे ज्यादा भारत में होती है। यह एक अच्छा और फायदेमंद व्यापार है। इसका वानस्पतिक नाम है साइट्रस लैटिफ़ोलिया जो कि रुटेसी परिवार से संबंध रखती है। बीजरहित नींबू संकर मूल का होता है, जो कि खट्टा नींबू (साइट्रस औरंटीफोलिया) और बड़ा नींबू (साइट्रस लिमोन) या चकोतरा (साइट्रस मेडिका) के बीच एक सलीब से होने की संभावना है।
यह एक मध्यम आकृति का, लगभग कॉटे रहित वृक्ष है, जो कि विस्तृत फैल, झालरदार शाखाओं के साथ 4.5 से 6.0 मीटर (15 से 20 फीट) लंबा है। फूल हल्का बैंगनी के साथ सफेद रंग के होते है। फल अंडाकार या आयताकार है जो कि 4 से 6.25 सेंटीमीटर (1.5 से 2.5 इंच) चौड़े और 5 से 7.25 सेंटीमीटर (2 से 3 इंच) लंबे है, आम तौर पर कुछ बीजों वाले या बीजरहित होते है।

भूमि एवं जलवायु
हल्की एवं मध्यम उपज वाली बलुई दोमट मिट्टी नींबू वर्गीय फलों के लिए उपयुक्त होती है। नींबू का पेड़ लगाने के लिए वहां की मिट्टी का पीएच 5.5 से 6.5 के बीच होना चाहिए। यदि पीएच इससे कम है, तो आप इसे नियंत्रित करनें के लिए मिट्टी में बेकिंग सोडा या अन्य कोई छारिय दवाई डाल सकते हैं। झारखंड राज्य की लाल लेटराईट मिट्टी जिसमें जल निकास की अच्छी व्यवस्था होती है तथा पी.एच.मान भी अम्लीय है नींबू वर्गीय फलों के लिए उपयुक्त है। इसके लिए उपोष्ण कटिबन्धीय अर्धशुष्क जलवायु अत्यंत उपयुक्त है। जिन क्षेत्रों में सर्दी लम्बे समय तक होती है और पाला पड़ने की सम्भावना रहती है इसके लिए उपयुक्त नहीं है।

उन्नत किस्में
नींबू वर्गीय फलों में दो प्रकार के फल प्रमुख हैं। एक तो वे जो खट्टे फल देते हैं और दूसरे जो मीठे फलों के लिए उगाए जाते हैं। खट्टे फलों में मुख्य रूप से लाइम और लेमन है जबकि मीठे फलों में संतरा, मौसमी, मीठा नींबू, ग्रेपफ्रूट, डाब आदि प्रमुख हैं। झारखंड राज्य में विभिन्न फलों की निम्नलिखित किस्में उगाई जा सकती हैं।

1 खट्टा नींबू (लाइम) – कागजी कलान, सीडलेस, रंगपुर लाइन, विक्रम, प्रोमालिनी
2 नींबू (लेमन) – नेपाली ओवलांग, पंत लेमन-1, आसाम लेमन (गंधराज), सीडलेस, बारामासी
3 संतरा – किन्नो, नागपुर, संतरा, कुर्ग संतरा, खासी संतरा
4 मौसमी – माल्टा, मुसम्बी, सथगुड़ी, पाइनएप्पल, ब्लड रेड, जाफा
5 ग्रेपफ्रूट – मार्स सीडलेस,गंगानगर रेड, डंकन, रूबी रेड
5 डाब – चकोतरा, गागर, स्थानीय डाव
कागजी निम्बू  - इसकी Wide popularity के वजह से इसे खट्टा नीबू का समानार्थी माना जाता है।
प्रमालिनी निम्बू  -- इस किस्म के निम्बू साखा  में फलते है, और इसके एक गुच्छे में लगभग 3 से 7 तक फल लगते हैं । प्रमालिनी निम्बू कागजी नीबू के compare में 30% ज्यादा उपज देती है ।
विक्रम निम्बू  -- इसके फल भी गुच्छा  में हीं फलते है । एक गुच्छा (bunch)में लगभग 5 से 10 फल लगते है ।
चक्र धर निम्बू   -- इस निम्बू में बीज नहीं होते है और इसके फल से लगभग 65% रस निकलता है ।
पि.के. एम् -1  -- यह भी ज्यादा उत्पादन वाली किस्मो में से एक है । इसके फलो से लगभग 50% रस प्राप्त हो जाते है ।
उपरोक्त किस्मों में से मीठे वर्ग में किन्नों और नागपुर संतरा, माल्टा, ब्लड रेड, सथगुड़ी, मुसम्बी, चकोतरा और स्थानीय डाव तथा खट्टे वर्ग में कागजी कलान, सीडलेस, नेपाली ओवलंग, पंत लेमन -1 और गंधराज की व्यवसायिक खेती झारखंड में की जा सकती है।

बीजरहित नींबू की रोपण
बगीचा लगाने के लिए 5x 5 मी. की दूरी पर वर्गाकार विधि में रेखांकन करके 60 सें.मी.x  60 सें.मी.x 60 सें.मी. आकार के गड्ढे तैयार करने चाहिए।  पेड़ों को 16 इंच (40.5 सेंटीमीटर) गहरे कटे हुए खाइयों के चौराहे पर या पिसा चूना पत्थर और मिट्टी के ढेर पर लगाया जाता है। पेड़ लगाते समय नमी वाले क्षेत्रों से बचें या बाढ़ या पानी को बरकरार रखने वाले जगह से बचें, क्योंकि पेड़ जड़ सड़न से ग्रस्त हो जाते है।
पेड़ों के अंतरालन 20 फीट (6 मीटर) की अलग-अलग पंक्तियों में 10 या 15 फीट (3-4.5 मीटर) के करीब हो सकती है, जिससे प्रति एकड़ में लगभग 150 से 200 पेड़ समायोजित हो सके।
गड्ढों की खुदाई मई-जून में तथा भराई जून-जुलाई में करनी चाहिए। यदि मिट्टी अत्यंत खराब है तो तालाब की अच्छी मिट्टी में 20-25 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद, 1 कि.ग्रा. करंज/नीम/महुआ की खली, 50-60 ग्राम दीमकनाशी रसायन, 100 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट/डीएपी प्रति गड्ढे के दर से देने से बाग़ स्थापना अच्छी होती है एंड पौधों की बढ़वार भी उचित रहती है। पौधों को जुलाई-अगस्त में गड्ढों के बीचो-बीच उनके पिण्डी के आकार की जगह बनाकर लगाना चाहिए तथा उनके चारों तरफ थाला बनाकर पानी देना चाहिए। पौधा लगाते समय यह ध्यान रखें कि उनका ग्राफ्टिंग/बांडिग का जोड़ जमीन से 10-15 सें.मी. ऊपर रहे।

सिंचाई
निम्बू की खेती में सालो भर नमी की जरुरत होती है । रोपण के समय नये पेड़ों में पानी देना चाहिए और पहले सप्ताह में हर दूसरे दिन और फिर पहले कुछ महीनों में सप्ताह में एक या दो बार सिंचाई करना चाहिए। लंबे समय तक शुष्क अवधि (उदाहरण के लिए, पांच या अधिक दिन के अवधि की अनावृष्टि) के दौरान, नये लगाए गये और युवा वृक्षों में, पहले तीन वर्ष, हफ्ते में दो बार, अच्छी तरह से सिंचाई करना चाहिए। वर्षा के मौसम में सिंचाई की जरुरत नहीं होती है । ठंड के समय 1 month के interval पर सिंचाई और गर्मियों में 10 days के interval पर सिंचाई करना होता है ।
नींबू में उर्वरक  का प्रयोग
प्रथम वर्ष के दौरान हर दो से तीन महीनों में नये पेड़ों में उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए, 114 ग्राम उर्वरक के साथ शुरुआत करके वृक्ष प्रति 455 ग्राम तक बढ़ाना चाहिए। इसके बाद, वृक्ष के बढ़ते आकृति के अनुपात में प्रति वर्ष तीन या चार बार उर्वरक का प्रयोग में बृद्धि पर्याप्त होती है, लेकिन प्रत्येक वर्ष प्रति वृक्ष 5.4 किलोग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए। उर्वरक मिश्रण में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा 6-10 प्रतिशत और मैग्नीशियम 4-6 प्रतिशत रहने से युवा वृक्षों में संतोषजनक परिणाम मिलते है। फल-धारक पेड़ों के लिए, पोटाश को 9-15% तक बढ़ाया जाना चाहिए और फॉस्फोरस को 2-4% तक कम किया जाना चाहिए। घास-पात से ढकना: यह प्रक्रिया मिट्टी की नमी को बनाए रखने में मदद करता है, पेड़ के छत के नीचे जंगली घास की समस्याओं को कम कर देता है और सतह के पास मिट्टी में सुधार में मदद करता है। छाल या लकड़ी के टुकड़े की 2-6 इंच (5-15 सेंटीमीटर) परत के साथ पेड़ों के सतह को आवरण किया जा सकता है। इस आवरण को पेड़ का तना से 8-12 इंच (20-30 सेंटीमीटर) दूर प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा पेड़ का तना सड़ सकता है।   

नींबू में परागण
वृक्ष में फल लगने के लिए परागण की आवश्यकता नहीं होती है, हालांकि मधु मक्खियों और अन्य कीड़े अक्सर खुली फूलों की पास घूमते रहते है।

फलों का उत्पादन
पेड़ फरवरी से अप्रैल तक (बहुत गर्म क्षेत्रों में, कभी-कभी वर्ष भर में) पांच से 10 फूलों के समूहों में खिलते है और अनुगामी फल उत्पादन 90-120 दिन की अवधि के भीतर होते है। फल लगने के समय गिबेलिलिक एसिड (10 पीपीएम) के छिड़काव परिपक्वता देरी करता है तथा फलों के आकृति में वृद्धि करता है। युवा, तेज़ी से बढ़ने वाला वृक्ष रोपण के बाद अपना पहला साल 3.6-4.5 किलोग्राम और दूसरे वर्ष 4.5-9.1 किलोग्राम का फल उत्पादन कर सकते है। अच्छी तरह से देखभाल किये गये पेड़ सालाना 9.1-13.6 किलोग्राम का फल तीन साल में दे सकता है, जो कि चार वर्ष में 27.2-40.8 किलोग्राम, पांच वर्ष में 49-81.6 किलो, और छह वर्ष में 90.6-113.4 किलोग्राम दे सकता है।

फसल तुड़ाई
फल परिपक्वता प्रारंभ होने पर एक-एक फल को हाथ से तोड़ा जाता है लेकिन एक टमटम भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सालाना लगभग 8-12 बार फसल तुड़ाई होता है। इसका सटीक समय जुलाई से सितंबर तक है, 70% फसलें मई में परिपक्व होती है। लगभग 40% फसलों का उपयोग केवल रस के गाढ़ा बनाने के लिए किया जाता है। अपरिपक्व फल रस का उत्पादन नहीं करता है, इसलिए इसे उस समय नहीं तोड़ा जाना चाहिए। बीजरहित नींबू के फलों के लिए परिपक्वता संकेत रस सामग्री (वज़न के अनुसार 45 प्रतिशत रस) और फल का आकृति (50-63 मिलीमीटर) है। फलों के संवेष्टन प्रक्रिया के दौरान, उत्कृष्ट गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए, फल पूरी तरह से शुष्क होने पर ही तुड़ाई करना चाहिए।

नींबू के कीट और रोग
डायफोरिना साइट्री
यह पत्तियों और युवा तने पर हमला करता है, वृक्ष को गंभीर रूप से कमजोर कर देता है। यह ग्राम-नकारात्मक जीवाणु रोग को फैलाता है, जिसे पीला तना रोग के नाम से जाना जाता है, जो नींबू के पेड़ों के लिए घातक है। 

टोक्सोप्टेरा साइट्रिसिडा
इस कीड़े का बच्चा आमतौर पर पत्ती की ऊपरी सतह पर हमला करती है। इस बजह से संक्रमित पत्तियां विरूपण का कारण बनता है, जो पत्ते के कार्यात्मक सतह क्षेत्र को कम करता है।

घुन
साइट्रस लाल घुन (पोननीचुस साइट्री) आम तौर पर पत्ती की ऊपरी सतह पर हमला करता है, जिसके परिणामस्वरूप भूरा, परिगलित क्षेत्र बन जाते है। गंभीर आक्रमण से पत्ता गिरना शुरू हो सकता है।
जंग-घुन (फिलेकोप्रेटा ऑलिवोरो) और चौड़ा-घुन (पॉलीफागोटारसोनमस लैटस) पत्तियों, फल और तने पर हमला कर सकते है। इन कीड़े के भक्षण से फल का छिलका भूरा रंग का हो जाता है। अधिक प्रकोप की दशा में पत्ते पे सल्फर का छिड़काव द्वारा कीड़ों को नियंत्रण किया जा सकता है।

लाल शैवाल
यह छाल विभाजन और शाखाओं के मरने का कारण बनता है। यह सेफ़ालेउरॉस विरेसेंस के कारण होता है। मध्य गर्मी से बाद की गर्मियों तक 1-2 तांबा आधारित रासायनिक का छिड़काव द्वारा शैवाल का नियंत्रण किया जा सकता है।

कोलेटट्रिचम एकुटाटम
बरसात के मौसम में इस बीमारी की उपस्थिति सबसे अधिक प्रचलित है। इस रोग के शुरुआती लक्षणों में भूरे रंग से, फूलों की पंखुड़ी पर पानी के लथपथ घावों शामिल है। उसके बाद पंखुड़ियों नारंगी रंग में बदल जाते है और सूख जाते है।

नींबू के विषाणु संक्रामक रोग
पेड़ कई वायरस के लिए अतिसंवेदनशील है, जैसे कि  सोरोसिस, ट्रिस्टेजा, एक्सकोर्टिस और ज्यलोपोरोसीस। सोरोसिस वृक्षों के अंगों पर छाल परत का कारण बंता है। फल के छिलके पर अंगूठी जैसे निशान हो सकते है। यह संक्रमण संभवतः संक्रमित कलम बांधने के उपकरण के द्वारा कली लकड़ी में फैलता है।
कलम बांधने के उपकरण पर सोडियम हाइपोक्लोराइट के उपयोग से वायरस के यांत्रिक फैलाव को रोका जा सकता है। कलम बांधने के लिए उपयुक्त मूल-बृंतों का उपयोग करना चाहिए, जैसे पोनसिरस ट्राइफोलियटा (सोरोसिस, ट्रिस्टेजा, एक्सकोर्टिस और ज्यलोपोरोसीस के लिए प्रतिरोधी), ट्रोयर और कर्रिजों सिटरेंजस, जो कि पोनसिरस ट्राइफोलियटा और साइट्रस सीनेन्सिस के बीच संकर है (ट्रिस्टेजा और ज्यलोपोरोसीस के लिए सहनशील), साइट्रस ऐरांटियम (सोरोसिस, एक्सकोर्टिस और ज्यलोपोरोसीस के लिए प्रतिरोधी), साइट्रस रेशनी (सोरोसिस, ट्रिस्टेजा, एक्सकोर्टिस और ज्यलोपोरोसीस के लिए सहनशील) तथा स्विंगल सिट्रोमलो, जो कि साइट्रस परादीसी और पोनसिरस ट्राइफोलियटा के बीच संकर है (सोरोसिस, ट्रिस्टेजा, एक्सकोर्टिस और ज्यलोपोरोसीस के लिए सहनशील)।

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काजू की खेती

काजू(एनाकार्डियम ऑक्सी डेन्टेकल एल), एनाकार्डियेसिया कुटुंब का है। काजू का मूलस्थान ब्राजील है, जहाँ से 16वीं सदी के उत्तरार्ध में उसे वनीकरण और मृदा संरक्षण केप्रयोजन से भारत लाया गया,  हालांकि आजकल इसकी खेती दुनिया के अधिकाश देशों में की जाती है। सामान्य तौर पर काजू का पेड़ 13 से 14 मीटर तक बढ़ता है। हालांकि काजू की बौना कल्टीवर प्रजाति जो 6 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है, जल्दी तैयार होने और ज्यादा उपज देने की वजह से बहुत फायदेमंद व्यावसायिक उत्पादकों के लिए साबित हो सकती है ।
काजू कर्नल का प्रयोग मिष्टान्न तैयार करने में किया जाता है। काजू के कवच से बहुत ही उपयोगी तेल उपलब्धा होता है जिसका औद्योगिक कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता है। इस तेल को काजू कवच द्रव(CSNL) कहा जाता है। काजू आपिल को यूँ ही फल की तरह खाया जाता है या फल-सलाद में मिलाया जाता है या फिर इसके रस से पेय तैयार किया जाता है। काजू आपिल से एक मादक पेय भी तैयार किया जाता है जो फनी नाम से प्रसिद्ध है।

जलवायु

काजू एक उष्ण कटिबंधी फसल है। यह उष्णह, गीले तथा प्ररूपतया उष्णहकटिबंधी जलवायु में पलता है। सामान्य‍त: काजू की खेती 700 मी. से कम ऊॅचाई वाली जगहों में ही होती है जहॉं पर तापमान 20° सें. से कम नहीं होता। फिर भी, कभी-कभी ये 1200 मी. तक की ऊँचाई पर भी पलते हैं। वैसे,
और सलाना वर्षा 1000 से 2000 मिमी तक होती है। फूल लगने और फल लगने के बीच 36 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान होने पर पौधे पर फल नहीं आते, और आएं भी तो टिक नहीं पाते। पूरे साल होने वाली वर्षा काजू के लिए अच्छी नहीं होती, हालाँकि पौधे बढ़ सकते हैं और कभी कभी फल भी आ सकते हैं। काजू की अच्छी उपज के लिए जरूरी है कि साल कम से कम 4 महीने की निश्चित अवधि में मौसम सूखा रहे। अगर फूल लगने की अवधि में भारी वर्षा जो और नमी ज्यादा रहे तो फूल और फल झड़ जाते हैं और फफूँदजन्य रोगों का खतरा बढ़ जाता है। तटीय प्रदेश ही काजू के लिए सबसे अनुकूल है। काजू एक ढीठ फसल है जो अनावृष्टि की अवस्थार का भी सहन कर लेती है। परंतु सर्दी इसके लिए एकदम प्रतिकूल है।

मृदा
काजू एक ढीठ फसल है जो सिवाय भारी चिकनी मिट्टी, दलदली मृदा व लवण मिट्टी के अन्या सभी प्रकार की मृदा में पलती है। फिर भी, जलोत्सा रित लाल, बलुई तथा लैटराइट मृदा ही इसके लिए सबसे अनुकूल है। काजू के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मिट्टी वह होगी जो गहरी हो जहाँ जलजमाव न हो, जो बलुआ दोमट किस्म की हो और मिट्टी के नीचे कठोर सतह न हो, शुद्ध बलुआ मिट्टी में भी काजू पैदा होगा लेकिन ऐसी मिट्टी में खनिजों की कमी आशंका होती है। काजू की खेती के लिए ऐसी मिट्टी उपयुक्त नहीं होती, जो भारी किस्म की हो और जिसमें जलनिकास की अच्छी व्यवस्था न हो, 8.0 से अधिक पीएच वाली मिट्टी भी काजू की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती। काजू के फसल अत्यधिक क्षारीय या अत्यधिक लवणीय मिट्टी में नहीं बढ़ती, लाल बलुआ दुम्मट, लैटराइट तथा तटीय रेतीली मिट्टी भी, जिसका पीएच हल्का अम्लीय हो, काजू की खेती के लिए सर्वोत्तम होती है।

रोपण सामग्री
काजू संकर परागणवाली फसल है और बीज से पैदा हुए पौधों की काजू की गिरी, एप्पल और उत्पादकता में बहुत विविधता होती है | रोपण सामग्री चुनते वक्त अत्यंत सावधानी बरतनी है। काजू का, बहुत बड़ी मात्रा में पर-परागणन होता है। अत: खरी रोपण सामग्री उत्पन्न करने के लिए व्याावसायिक पैमाने पर कायिक प्रवर्धन संस्तु्त है।

अंतराल
काजू के लिए सामान्य्त: संस्तुईत अंतराल 7.5 X 7.5 मी. से 8 X 8 मी. तक है जिसे प्रबंधन-क्षमता तथा मृदा के अनुसार 4 X 4 मी. तक कम किया जा सकता है। रोपण के 7-9 साल तक जगह की बचत केलिए उच्च सघन रोपण पद्धति अपनाई जा सकती है जिसमें अंतराल 4 X 4 मी., 5 X 5 मी. या 4 X 6 मी. होता है। 8-9 साल बाद अधिशेष पौधों को निकालकर अंतराल को 6 X 8 मी., 8 X 9 मी. या 10 X 10 मी. तक बढाया जा सकता है।

रोपण प्रक्रिया तथा रोपण काल
काजू में वर्ग रोपण प्रक्रिया उत्त म है। सबसे अनुकूल रोपण काल मानसून ऋतु (जून - दिसंबर) ही है जब पूर्वी तट तथा पश्चिमी तट की वायु में आर्द्रता की मात्रा अधिक होती है। जहॉं पर सिंचाई की सुविधा उपलब्धप हो वहॉं शीत काल को छोड़कर अन्य किसी भी महीने में रोपण किया जा सकता है। सामान्यशत: काजू 60 X 60 X 60 मी. के गड्ढों में रोपा जाता है। गड्ढों को रोपण के 15-20 दिवस पहले ही खोदकर सूर्यप्रकाश में खुला छोड़ दिया जाता है ताकि कलमों की जड़ खराब करने वाले दीमक व चींटी दूर हो जाएं। गड्ढे का तीन-चौथाई भाग उपरिमृदा तथा जैव खाद के मिश्रण से भरा जाता है। कलमों को रोपने से पहले उसके बाहर के पॉलीथीन बैग निकाला जाता है। रोपते वक्तस खयाल रहना चाहिए कि कलम-जोड़ ज़मीन से कम से कम 5 सें.मी. ऊपर हो। कलम-जोड़ पर जो पॉलीथीन टेप लगाया होता है उसे भी अत्यं त सावधानी से निकालना चाहिए। कलमों को तीक्ष्ण हवा से बचाने के लिए रोपण के तुरंत बाद स्थूयणन अनिवार्य होता है। रोपण के पहले कुछ सालों में पौधों की द्रोणी जैवापशिष्ट् से पलवारा जाए।

उर्वरक व खाद का प्रयोग
ठीक मात्राओं में उर्वरक व खाद लगाना, पेड की वृद्धि तथा पुष्पदन में सहायक होता है। प्रति पेड़ 10-15 किलो गोबर या कंपोस्ट लगाना उपयोगी होता है। काजू के लिए संस्तुयत उवर्रक है, 500 ग्राम नाइट्रोजन (1.1 किलो यूरिया),125 ग्राम P2O5 (265 ग्राम रॉक फॉस्फेूट) तथा 125 ग्राम K2O (208 ग्राम पॉटैश म्यूिरियट) प्रति पेड़ प्रति वर्ष। उर्वरक डालने का अनुकूलतम समय भारी वृष्टि के तुरंत बाद की अवधि है जब मृदा में काफी नमी हो। रोपण के पहले तथा दूसरे सालों में उर्वरक की उपर्युक्तै मात्राओं की क्रमश: एक तिहाई तथा दो तिहाई उर्वरक डालना चाहिए। तीसरे साल से पूरी मात्रा में उर्वरक डालना चाहिए।

प्रौढ़ काजू वृक्ष के लिए जिन उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए वे है:

500 ग्राम नाइट्रोजन (1.1 किग्रा यूरिया), १२५ ग्राम पी2 ओ5 (7.50 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) और १२५ ग्राम के2ओ (200 ग्राम पोटाश का म्यूरिएट)। एक पौधे के लिए पुष्टिकारक आवश्यकताओं को और उर्वरकों का विवरण तालिका 2 में दिया गया है:

पौधे की आयु यूरिया (ग्राम) सिंगल सुपर फॉस्फेट (ग्राम) पोटाश का म्यूरिएट
पहला साल 375 275 75
दूसरा साल 750 525 150
तीसरा साल 1100 750 200
Note
उर्वरकों का प्रयोग बारिश के रूक जाने के तुरंत बाद किया जाना चाहिए। उर्वरक ड्रिप लाइन के किनारे किनारे वृत्ताकार ट्रेंच में डाला जाना चाहिए। उर्वरकों के प्रयोग के पहले मृदा की नमी सुनिश्चित कर लेनी चाहिए। मानसून के पहले (मई-जून) और बाद (सिंतबर –अक्टूबर) – इस तरह दो बार डाला जाए, जब मिट्टी में पर्याप्त नमी रहती है। बलूवाही और लैटरा इट मृदा में ढलानवाली जमीन में और भारी वर्षा वाले इलाकों में उर्वरकों को पौधे से 1 ½मीटर की दूरी पर वृत्ताकार 25 सेंमी. चौड़े और 15सेंमी गहरे खड्डे में डाला जाना चाहिए। लाल दोमट मृदा और कम वर्षावाले क्षेत्रों में पहले साल पौधे से 5मी की दूरी पर, दूसरे साल 7 मीटर की दूरी पर, तीसरे साल 1 मीटर की दूरी पर और चौथे और आगे के सालों में 1.5 मीटर की दूरी पर बनी वृत्ताकार मेड़ों पर डाला जाना चाहिए।

निराई
तने के आसपास 2 मीटर के व्या6सार्घ तक की सफाई हाथ से की जाए। निराई रासायनिकों से भी संभव है। इसके लिए एक लीटर पानी में 6-7 मिल्ली लीटर ग्लाइफॉसेट मिलाकर जून-जुलाई महीने में लगाया जाता है।

पलवारन
मृदा की आद्रता बनाए रखने एवं मृदा-अपर्दन रोकने के लिए समय-समय पर पेड़ों की द्रोणी पलवारना अनिवार्य होता है। पलवारन यदि जैवमात्रा से हो तो और भी बहत्त र होगा क्योंणकि इससे अपतृण का नियंत्रण होता है साथ ही, गरमी के मौसम में उपरि-मृदा से जल-वाष्पोन होने की जो प्रवृत्ति है उसमें भी रोकथाम होगा और मृदा का तापमान भी ठीक रहेगा। ढालू जगहों में खाइयॉं खोदकर पलवारा जाता है। ऐसा करने से, मृदा संरक्षण एवं आर्द्रता संरक्षण होता है और उत्पा दन भी बढता है।

काटछॉंट
काजू-बागानों में काटछॉंट बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रोपण के पहले साल में काजू-कलमों के प्रकंदों से फूटने वाले अंकुरों को बारंबार तोड़ना अनिवार्य है। इसीप्रकार आगे चलकर भी पेड़ के निचले प्ररोहों, आड़े-तिरछे प्ररोहों तथा सूखे प्ररोहों को समय-समय पर निकालने से पुष्पन व फलन में वृद्धि होती है।

सिंचाई
वैसे तो भारत में वृष्टिमय स्थितियों में ही काजू की खेती की जाती है। लेकिन गरमी के महीनों में प्रति पेड़ 200 लीटर की दर पर हर चौदह दिन सिंचाई करने से उत्पारदन बढ़ जाता है।

अंतर्रोपण
काजू बागानों में प्रत्येपक क्षेत्र की मृदा, जलवायु व अन्यं स्थाकनीय परिस्थितियों के आधार पर अदरक, हल्दी्, दाल, टैपियोका आदि का अंतर्रोपण किया जा सकता है। पेड़ों के बड़े हो जाने पर काली मिर्च का भी अंतर्रोपण किया जा सकता है।

पौध संरक्षण
काजू बागानों में दिखाई देने वाले कुछ प्रमुख पीड़क हैं चाय मच्छर, तना वेधक, पर्ण सुरंगक, पर्ण मंजरी जालक आदि। इनमें चाय मच्छर व तना वेधक सबसे खतरनाक हैं।
चाय मच्छर : चाय मच्छ‍र बाध से उपज में 30-40% कमी होती है। यह मृदु प्ररोहों, पुष्पोंच तथा अपरिपक्वछ नटों को क्षति पहुँचाता है। वैसे तो इसका आक्रमण हर साल और हर ऋतु में होता है लेकिन सबसे तीक्ष्णि आक्रमण अक्तूsबर से मार्च तक के काल में होता है। इस पीड़क का नियंत्रण तीन फुहारों की फुहार-योजना से किया जा सकता है।

कीटों तथा रोगों से सुरक्षा
1. कीट
यह पाया गया है कि 30 प्रजातियों के कीड़े काजू में लगते हैं। इनमें टी- मॉस्किवटो, फ्लावर थ्रिप, स्टेम एंड रूट बोरर और फ्रूट एंड नट बोरर प्रमुख है जिससे उपज में 30 प्रतिशत की हानि होती है।

टी- मॉस्किवटो:
ये कीड़े (छोटे और बड़े) पेड़ों की कोमल पत्तियाँ, हरी पत्तियों और कच्चे काजू फल को भी चाटते है। इसकी लार विषैली होती है जिससे उस जगह ख़राब हो जाती है जहाँ ये चाटते हैं। अगर बड़ी संख्या में नये पौधों में कीड़े लग जाए तो उनके मरने की खतरा होता है। इन कीड़ों के आक्रमण को दूर से ही पेड़ों की हालत से पहचाना जा सकता है। बरसात के मौसम की शूरूआत में इन कीड़ों की संख्या बहुत बढ़ जाती है।
इस कीट से काजू की रक्षा के लिए कार्बारिल, .1% या फोसालोन .07% या डाइमेथोट .05 प्रतिशत का छिड़काव एक बार नए पत्ते लगने के समय, एक बार पुष्पन के आरभिंक दौर में और एक बार फल लगते समय किया जाना चाहिए।

थ्रिप
ये कीड़े (छोटे-बड़े) पत्तों के भीतरी हिस्से में लगकर उन्हें मुख्य नस के पास खाते है जिसके कारण पत्तों पर पीले दाग पड़ जाते हैं जो बाद में भूरे हो जाते हैं। इसके कारण पत्तों के रंग सफेद होने लगता है। ये कीड़े सूखे मौसम में लगते हैं। मोनोक्रोटोफास .05% या कारबारिल .1% के छिड़काव से इनपर काबू पाया जा सकता है।

स्टेम एंड रूट बोरर
ये छोटे सफेद कीड़े तने और जड़ की छाल के ताजा ऊतकों में छेद कर देते हैं सबएपिडर्मल ऊतकों का आहार कर पेड़ का भीतर इधर-उधर सुरंगे बना देते हैं। वास्कुलर ऊतक के बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने से रस का प्रवाह रूप जाता है जिससे स्टेम कमजोर हो जाता है। इसके खास लक्षण हैं। कॉलर रीजन में छोटे छोटे छेद, गमोसिस, पत्तों का पीला पड़कर झड़ना और टहनियों का सूख जाना। एक बार ये कीड़े लग जाएँ तो इन्हें पूरी तरह हटाना असंभव हो जाता है। फिर भी भी एक बार अप्रैल-मई में और एक बार नवंबर में 1 प्रतिशत बीएचसी के प्रयोग से इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है।

फल में छेद करनेवाले कीड़े:
ये कीड़े काजू के फल छेद कर देते है जिससे काजू हल्का जो जाता है और उसका आकार ख़राब जो जाता है। इससे बचने के लिए पुष्पण और फलन के समय मोनोक्रोटोफास .05% का छिड़काव करना चाहिए।

रोग
सौभाग्य में काजू में कोई गंभीर बीमारी नहीं लगती। काजू की एक ही समस्या है पाउडरी मिल्ड्यू जो एक फफूंदी के कारण पैदा होती है। यह बीमारी नई टहनियां और फूलों को प्रभावित करती है और वे ख़राब हो जाते हैं। यह रोग खास तौर पर ऐसे मौसम में लगता है जब आसमान में बादल छाए रहते हैं। 2% सल्फर डब्ल्यूपी के छिड़काव से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।

काजू की किस्में
काजू के एक पेड़ से 20 से 25 किग्रा तक काजू का उत्पादन संभव है।
राज्य किस्म
आन्ध्र प्रदेश बीपीपी 4, बीपीपी 6, बीपीपी 8
कर्नाटक चिंतामणि 1, चिंतामणि 2, धना (एच-1608), एनआरसीसी सेलेक्शन 2, भास्कर, उल्लाल 1, उल्लाल 3, उल्लाल 4, यूएन 50, वंगूर्ला 4, वेंगूर्ला 7
केरल धना, के 22-1, मडक्कतरा 1, मडक्कतरा 2, कनका, अमृता, प्रियंका
मध्य प्रदेश टी नं. 40, वेंगुर्ला 4
महाराष्ट्र वेंगुर्ला 1, वेंगुर्ला 4, वेंगुर्ला 4, वेंगुर्ला 6, वेंगुर्ला 7
गोवा गोवा 1, गोवा 2, वेंगुर्ला1, वेंगुर्ला 4, वेंगुर्ला 6, वेंगुर्ला 7
ओड़िशा भुनेश्वर 1, बीपीपी और धना
तमिलनाडू वीआरआई 1, वीआरआई  2
प.बंगाल झारग्राम 1, बीपीपी

काजू उत्पादन की मात्रा
फसल की पैदावार कई तत्वों, जैसे कि बीज के प्रकार, पेड़ की उम्र, बागबानी प्रबंध के तौर-तरीके, पौधारोपन के तरीके, मिट्टी के प्रकार और जलवायु की स्थिति पर निर्भर करता है। हालांकि कोई भी एक पेड़ से औसतन 8 से 10 किलो काजू के पैदावार की उम्मीद कर सकता है। हाइब्रिड या संकर और उच्च घनत्व वाले पौधारोपन की स्थिति में और भी ज्यादा पैदावार की संभावना होती है।एक पौधे से 10 किल्लो की फसल होती है तो 1000-1200 रु किल्लो के हिसाब से एक पौधे से एक बार में 12000 रुपये की फसल होगी ।

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