Tuesday 7 May 2019

पपीता का पौधा

भूमिका
पपीता स्वास्थ्यवर्द्धक तथा विटामिन ए से भरपूर फल होता है। पपीता ट्रापिकल अमेरिका में पाया जाता है। पपीते का वानस्पतिक नाम केरिका पपाया है। पपीता कैरिकेसी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण सदस्य है। पपीता एक बहुलिडीस पौधा है तथा मुरकरटय से तीन प्रकार के लिंग नर, मादा तथा नर व मादा दोनों लिंग एक पेड़ पर होते हैं। पपीता के पके व कच्चे फल दोनो उपयोगी होते हैं। कच्चे फल से पपेन बनाया जाता है। जिसका सौन्दर्य जगत में तथा उद्योग जगत में व्यापक प्रयोग किया जाता है। पपीता एक सदाबहार मधुर फल है, जो स्वादिष्ट और रुचिकर होता है। यह हमारे देश में सभी जगह उत्पन्न होता है। यह बारहों महीने होता है, लेकिन यह फ़रवरी-मार्च और मई से अक्टूबर के मध्य विशेष रूप से पैदा होता है। इसका कच्चा फल हरा और पकने पर पीले रंग का हो जाता है। पका पपीता मधुर, भारी, गर्म, स्निग्ध और सारक होता है। पपीता पित्त का शमन तथा भोजन के प्रति रुचि उत्पन्न करता है।
पपीता बहुत ही जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। साधारण ज़मीन, थोड़ी गरमी और अच्छी धूप मिले तो यह पेड़ अच्छा पनपता है, पर इसे अधिक पानी या ज़मीन में क्षार की ज़्यादा मात्रा रास नहीं आती। इसकी पूरी ऊँचाई क़रीब 10-12 फुट तक होती है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ता है, नीचे से एक एक पत्ता गिरता रहता है और अपना निशान तने पर छोड़ जाता है। तना एकदम सीधा हरे या भूरे रंग का और अन्दर से खोखला होता है। पत्ते पेड़ के सबसे ऊपरी हिस्से में ही होते हैं। एक समय में एक पेड़ पर 80 से 100 फल तक भी लग जाते हैं।
पपीता पोषक तत्वों से भरपूर अत्यंत स्वास्थ्यवर्द्धक जल्दी तैयार होने वाला फल है । जिसे पके तथा कच्चे रूप में प्रयोग किया जाता है । आर्थिक महत्व ताजे फलों के अतिरिक्त पपेन के कारण भी है । जिसका प्रयोग बहुत से औद्योगिक कामों में होता है । अतः इसकी खेती की लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हमारे देश का पांचवा लोकप्रिय फल है, देश की अधिकांश भागों में घर की बगिया से लेकर बागों तक इसकी बागवानी का क्षेत्र निरंतर बढ़ता जा रहा है । देश की विभिन्न राज्यों आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तरांचल और मिजोरम में इसकी खेती की जा रही है।अतः इसके सफल उत्पादन के लिए वैज्ञानिक पद्धति और तकनीकों का उपयोग करके कृषक स्वयं और राष्ट्र को आर्थिक दृष्टि से लाभान्वित कर सकते हैं। इसके लिए तकनीकी बातों का ध्यान रखना चाहिए । पपीता सबसे कम समय में फल देने वाला पेड है इसलिए कोई भी इसे लगाना पसंद करता है, पपीता न केवल सरलता से उगाया जाने वाला फल है, बल्कि जल्‍दी लाभ देने वाला फल भी है, यह स्‍वास्‍थवर्धक तथा लोक प्रिय है, इसी से इसे अमृत घट भी कहा जाता है, पपीता में कई पाचक इन्‍जाइम भी पाये जाते है तथा इसके ताजे फलों को सेवन करने से लम्‍बी कब्‍जियत की बिमारी भी दूर की जा सकती है।

पपीते की किस्में
पपीते की मुख्य किस्मों का विवरण निम्नवत है-

पूसा डोलसियरा

यह अधिक ऊपज देने वाली पपीते की गाइनोडाइसियश प्रजाति है। जिसमें मादा तथा नर-मादा दो प्रकार के फूल एक ही पौधे पर आते हैं पके फल का स्वाद मीठा तथा आकर्षक सुगंध लिये होता है।
पूसा मेजेस्टी

यह भी एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। इसकी उत्पादकता अधिक है, तथा भंडारण क्षमता भी अधिक होती है।

रेड लेडी 786

पपीते की एक नई किस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना द्वारा विकसित की गई है, जिसे 'रेड लेडी 786' नाम दिया है। यह एक संकर किस्म है। इस किस्म की खासीयत यह है कि नर व मादा फूल ही पौधे पर होते हैं, लिहाजा हर पौधे से फल  मिलने की गारंटी होती है।
पपीते की अन्य किस्मों में नर व मादा फूल अलग-अलग पौधे पर लगते हैं, ऐसे में फूल निकलने तक यह पहचानना कठिन होता है कि कौन सा पौध नर है और कौन सा मादा। इस नई किस्म की एक खासीयत यह है कि इसमें साधरण पपीते में लगने वाली 'पपायरिक स्काट वायरस' नहीं लगता है। यह किस्म सिर्फ  9 महीने में तैयार हो जाती है।
इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता भी ज्यादा होती है। पपीते में एंटी आक्सीडेंट पोषक तत्त्व कैरोटिन,पोटैशियम,मैग्नीशियम, रेशा और विटामिन ए, बी, सी सहित कई अन्य गुणकारी तत्व भी पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने तकरीबन 3 सालों की खोज के बाद इसे पंजाब में उगाने के लिए किसानों को दिया। वैसे इसे हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और राजस्थान में भी उगाया जा रहा है।


जलवायु
पपीते की अच्‍छी खेती गर्म नमी युक्‍त जलवायु में की जा सकती है। इसे अधिकतम 38 डिग्री सेल्सियस 44 डिग्री सेल्सियस तक तापमान होने पर उगाया जा सकता है, न्‍यूनतम 5 डिग्री सेल्सियस से कम नही होना चाहिए लू तथा पाले से पपीते को बहुत नुकसान होता है। इनसे बचने के लिए खेत के उत्‍तरी पश्चिम में हवा रोधक वृक्ष लगाना चाहिए पाला पडने की आशंका हो तो खेत में रात्रि के अंतिम पहर में धुंआ करके एवं सिचाई भी करते रहना चाहिए।

भूमि

जमीन उपजाऊ हो तथा जिसमें जल निकास अच्‍छा हो तो पपीते की खेती उत्‍तम होती है, जिस खेत में पानी भरा हो उस खेत में पपीता कदापि नही लगाना चाहिए। क्‍योकि पानी भरे रहने से पोधे में कॉलर रॉट बिमारी लगने की सम्‍भावना रहती है, अधिक गहरी मिट्टी में भी पपीते की खेती नही करना चाहिए।

भूमि की तैयारी

खेत को अच्‍छी तरह जोंत कर समतल बनाना चाहिए तथा भूमि का हल्‍का ढाल उत्‍तम है, 2 X 2 मीटर के अन्‍दर पर लम्‍बा, चौडा, गहरा गढ्ढा बनाना चाहिए, इन गढ्ढों में 20 किलो गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर फास्‍फेट एवं 250 ग्राम म्‍यूरेट आफ पोटाश को मिट्टी में मिलाकर पौधा लगाने के कम से कम 10 दिन पूर्व भर देना चाहिए।
किस्‍म
पूसा मेजस्‍टी एवं पूसा जाइंट, वाशिंगटन, सोलो, कोयम्‍बटूर, हनीड्यू, कुंर्ग‍हनीड्यू, पूसा ड्वार्फ, पूसा डेलीसियस, सिलोन, पूसा नन्‍हा आदि प्रमुख किस्‍में है।

बीज

एक हेक्‍टेयर के लिए 500 ग्राम से एक किलो बीज की आवश्‍यकता होती है, पपीते के पौधे बीज द्वारा तैयार किये जाते है, एक हेक्‍टेयर खेती में प्रति गढ्ढे 2 पौधे लगाने पर 5000 हजार पौध संख्‍या लगेगी।
लगाने का समय एवं तरीका
पपीते के पौधे पहले रोपणी में तैयार किये जाते है, पौधे पहले से तैयार किये गढ्ढे में जून, जुलाई में लगाना चाहिए, जंहा सिंचाई का समूचित प्रबंध हो वंहा सितम्‍बर से अक्‍टूबर तथा फरवरी से मार्च तक पपीते के पौधे लगाये जा सकते है।

पपीते का पेड़
कूर्गहनि डयू
यह गाइनोडाइसियश जाति है। इसमें नर पौधे नहीं होते हैं। फल का आकार मध्यम तथा लम्बवत गोलाकार होता है। गूदे का रंग नारंगी पीला होता है।
वाशिगंटन
यह अधिक उपज देने वाली विभिन्न जलवायु में उगाई जाने वाली प्रजाति है। इस पौधे की पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं। जो इस किस्म की पहचान कराते हैं। यह डाइसियन किस्म हैं फल मीठा,गूदा पीला तथा अच्छी सुगंध वाला होता है।
पन्त पपीता-1
इस किस्म का पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्यम आकार के गोल होते हैं। फल मीठा तथा सुगंधित तथा पीला गूदा होता है। यह पककर खाने वाली अच्छी किस्म है तथा तराई एवं भावर जैसे क्षेत्र में उगाने के लिए अधिक उपयोगी है।



नर्सरी में रोपा तैयार करना
इस विधि द्वारा बीज पहले भूमि की सतह से 15 से 20 सेमी. उंची क्‍यारियों में कतार से कतार की दूरी 10 सेमी, तथा बीज की दूरी 3 से 4 सेमी. रखते हुए लगाते है, बीज को 1 से 3 सेमी. से अधिक गहराई पर नही बोना चाहिए, जब पौधे करीब 20 से 25 सेमी. उंचे हो जावें तब प्रति गढ्ढा 2 पौधे लगाना चाहिए।
पौधे पालीथिन की थैली में तैयार करने की विधि
20 सेमी. चौडे मुंह वाली, 25 सेमी. लम्‍बी तथा 150 सेमी. छेद वाले पालीथिन थैलियां लेवें इन थैलियों में गोबर की खाद, मिट्टी एवं रेत का समिश्रण करना चाहिए, थैली का उपरी 1 सेमी. भाग नही भरना चाहिए, प्रति थैली 2 से 3 बीज होना चाहिए, मिट्टी में हमेशा र्प्‍याप्‍त नमी रखना चाहिए, जब पौधे 15 से 20 सेमी. उंचे हो जावें तब थैलियों के नीचे से धारदार ब्‍लेड द्वारा सावधानी पूर्वक काट कर पहले तैयार किये गये गढ्ढों में लगाना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
एक पौधे को वर्षभर में 250 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम स्‍फुर एवं 500 ग्राम पोटाश की आवश्‍यकता होती है, इसे छ: बराबर भाग में बांट कर प्रति 2 माह के अंतर से खाद तथा उर्वरक देना चाहिए खाद तथा उर्वरक को मिट्टी में मिलाकर थैली) में देकर सिंचाई करना चाहिए। इस मिश्रण को नर पौधों को और ऐसे पौधो को नही देना चाहिए, जिसे 4 से 6 माह बाद निकालकर फेकना है।
नर पौधों को अलग करना
पपीते के पौधे 90 से 100 दिन के अन्‍दर फूलने लगते है तथा नर फूल छोटे-छोटे गुच्‍छों में लम्‍बे डंढल युक्‍त होते है। नर पौधों पर पुष्‍प 1 से 1.3 मी. के लम्‍बे तने पर झूलते हुए तथा छोटे होते है। प्रति 100 मादा पौधों के लिए 5 से 10 नर पौधे छोड कर शेष नर पौधों को उखाड देना चाहिए। मादा पुष्‍प पीले रंग के 2.5 से.मी. लम्‍बे तथा तने के नजदीक होते है।

निंदाई, गुडाई तथा सिंचाई

गर्मी में 4 से 7 दिन तथा ठण्‍ड में 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना चाहिए, पाले की चेतावनी पर तुरंत सिंचाई करें, तीसरी सिंचाई के बाद निंदाई गुडाई करें। जडों तथा तने को नुकसान न हो।

पपीते की बोआई
पपीते का व्यवसाय उत्पादन बीजों द्वारा किया जाता है। इसके सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि बीज अच्छी क्वालिटी का हो। बीज के मामले में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए :

1. बीज बोने का समय जुलाई से सितम्बर और फरवरी-मार्च होता है।

2. बीज अच्छी किस्म के अच्छे व स्वस्थ फलों से लेने चाहिए। चूंकि यह नई किस्म संकर प्रजाति की है, लिहाजा हर बार इसका नया बीज ही बोना चाहिए।

3. बीजों को क्यारियों, लकड़ी के बक्सों, मिट्‌टी के गमलों व पोलीथीन की थैलियों में बोया जा सकता है।

4. क्यारियाँ जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊंची व 1 मीटर चौड़ी होनी चाहिए।

5. क्यारियों में गोबर की खाद, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट काफी मात्रा में मिलाना चाहिए। पौधे को पद विगलन रोग से बचाने के लिए क्यारियों को फार्मलीन के 1:40 के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए और बीजों को 0.1 फीसदी कॉपर आक्सीक्लोराइड के घोल से उपचारित करके बोना चाहिए।

6. जब पौधे 8-10 सेंटीमीटर लंबे हो जाएँ, तो उन्हें क्यारी से पौलीथीन में स्थानांतरित कर देते हैं।

7. जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब 0.3 फीसदी फफूंदीनाशक घोल का छिड़काव कर देना चाहिए।

पपीते के उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों का उगाना बहुत महत्व रखता है। इसके लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम पर्याप्त होती है। बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा हुआ और शीशे की जार या बोतल में रखा हो जिसका मुँह ढका हो और 6 महीने से पुराना न हो, उपयुक्त है। बोने से पहले बीज को 3 ग्राम केप्टान से एक किलो बीज को उपचारित करना चाहिए।

बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से ऊँची उठी हुई संकरी होनी चाहिए इसके अलावा बड़े गमले या लकड़ी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालू, तथा सदी हुई गोबर की खाद को बराबर मात्र में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। जिस स्थान पर नर्सरी हो उस स्थान की अच्छी जुताई, गुड़ाई,करके समस्त कंकड़-पत्थर और खरपतवार निकाल कर साफ़ कर देना चाहिए तथा ज़मीन को 2 प्रतिशत फोरमिलिन से उपचारित कर लेना चाहिए। वह स्थान जहाँ तेज़ धूप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए। एक एकड़ के लिए 4059 मीटर ज़मीन में उगाये गए पौधे काफी होते हैं। इसमें 2.5 x 10 x 0.5 आकर की क्यारी बनाकर उपरोक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें, और क्यारी को ऊपर से समतल कर दें। इसके बाद मिश्रण की तह लगाकर 1/2' गहराई पर 3' x 6' के फासले पर पंक्ति बनाकर उपचारित बीज बो दे और फिर 1/2' गोबर की खाद के मिश्रण से ढ़क कर लकड़ी से दबा दें ताकि बीज ऊपर न रह जाये। यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें तो इनमे भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें। बोई गयी क्यारियों को सूखी घास या पुआल से ढक दें और सुबह शाम होज द्वारा पानी दें। बोने के लगभग 15-20 दिन भीतर बीज जम जाते हैं। जब इन पौधों में 4-5 पत्तियाँ और ऊँचाई 25 से.मी. हो जाये तो दो महीने बाद खेत में प्रतिरोपण करना चाहिए, प्रतिरोपण से पहले गमलों को धूप में रखना चाहिए, ज्यादा सिंचाई करने से सड़न और उकठा रोग लग जाता है। उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च-अप्रैल,जून-अगस्त में उगाने चाहिए।

खाद व उर्वरक का प्रयोग
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सड़ी खाद, एक कि०ग्रा० बोनमील और एक कि०ग्रा० नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्तूबर महीनों में देनी चाहिए।
पपीता जल्दी बढ़ने व फल देने वाला पौधा है, जिसके कारण भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकल जाते हैं। लिहाजा अच्छी उपज हासिल करने के लिए 250 ग्राम नाइट्रोजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे हर साल देना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को 6 भागों में बाँट कर पौधा रोपण के 2 महीने बाद से हर दूसरे महीने डालना चाहिए।
फास्फोरस व पोटाश की आधी-आधी मात्रा 2 बार में देनी चाहिए। उर्वरकों को तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधें के चारों ओर बिखेर कर मिट्‌टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा फरवरी-मार्च और आधी जुलाई-अगस्त में देनी चाहिए। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।



पपीते का फूल

पूसा जाइन्ट

यह किस्म बहुत अधिक वृद्धि वाली मानी जाती है। नर तथा मादा फूल अलग-अलग पौधे पर पाये जाते हैं। पौधे अधिक मज़बूत तथा तेज़ हवा से गिरते नहीं हैं।।

पूसा ड्रवार्फ

यह छोटी बढ़वार वाली डादसियश किस्म कही जाती है।जिसमें नर तथा मादा फूल अलग अलग पौधे पर आते हैं। फल मध्यम तथा ओवल आकार के होते हैं।

पूसा नन्हा

इस प्रजाति के पौधे बहुत छोटे होते हैं। तथा यह गृहवाटिका के लिए अधिक उपयोगी होता है। साथ साथ सफल बागवानी के लिए भी उपयुक्त है।

कोयम्बर-1
पौधा छोटा तथा डाइसियरा होता है। फल मध्य आकार के तथा गोलाकार होते हैं।

कोयम्बर-3

यह एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। पौधा लम्बा, मज़बूत तथा मध्य आकार का फल देने वाला होता है। पके फल में शर्करा की मात्रा अधिक होती है। तथा गूदा लाल रंग का होता है।

हनीइयू (मधु बिन्दु)

इस पौधे में नर पौधों की संख्या कम होती है,तथा बीज के प्रकरण अधिक लाभदायक होते हैं। इसका फल मध्यम आकार का बहुत मीठा तथा ख़ुशबू वाला होता है।

पाले से पेड़ की रक्षा
पौधे को पाले से बचाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए नवम्बर के अंत में तीन तरफ से फूंस से अच्छी प्रकार ढक दें एवं पूर्व-दक्षिण दिशा में खुला छोड़ दें। बाग़ के चारों तरफ रामाशन से हेज लगा दें जिससे तेज़ गर्म और ठंडी हवा से बचाव हो जाता है। समय-समय पर धुआँ कर देना चाहिए।
उष्ण प्रदेशीय जलवायु में जाड़े और गर्मी के तापमान में अधिक अंतर नहीं होता है और आर्द्रता भी साल भर रहती है। पपीता साल भर फलता फूलता है। लेकिन उत्तर भारत में यदि खेत में प्रतिरोपण अप्रैल-जुलाई तक किया जाय तो अगली बसंत ऋतू तक पौधे फूलने लगते हैं और मार्च-अप्रैल या बाद में लगे फल दिसम्बर-जनवरी में पकने लगते हैं। यदि फल तोड़ने पर दूध, पानी से तरह निकलने लगता है तब पपीता तोड़ने योग्य हो जाता है। अच्छी देख-रेख करने पर प्रति पौधे से 40-50 किलो उपज मिल जाती है।

फलो को तोडना

पौधे लगाने के 9 से 10 माह बाद फल तोडने लायक हो जाते है। फलों का रंग गहरा हरे रंग से बदलकर हल्‍का पीला होने लगता है तथा फलों पर नाखुन लगने से दूध की जगह पानी तथा तरल निकलता हो तो समझना चाहिए कि फल पक गया होगा। फलो को सावधानी से तोडना चाहिए। छोटी अवस्‍था में फलों की छटाई अवश्‍य करना चाहिए।
पौध संरक्षण
माइट, एफीड्स तथा फल मक्‍खी जैसे कीटों का प्रकोप इन पर देखा गया है। इसके नियंत्रण को मेटासिस्‍टाक्‍स 1 लीटर दवा प्रति हेक्‍टर के दर से तथ दूसरा छिडकाव 15 दिन के अंतर से करना चाहिए। फूट एण्‍ड स्‍टेम राट बीमारी से पौधों को बचाने के लिए तने के पास पानी न जमने दें। जिस भाग में रोग लगा हो वहां चाकू से खुरच कर बोडो पेस्‍ट भर देना चाहिए। पावडरी मिलड्यू के नियंत्रण के लिए सल्‍फर डस्‍ट 30 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी के हिसाब से 15 दिन के अंतराल में छिडकाव करें
उपज तथा आर्थिक लाभ
प्रति हेक्‍टर पपीते का उत्‍पादन 35-40 टन होता है। यदि 1500 रू./ टन भी कीमत आंकी जावें तो किसानों को प्रति हेक्‍टर 34000.00 रू. का शुद्ध लाभ प्राप्‍त होगा।

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