Tuesday 7 May 2019

काजू की खेती

काजू(एनाकार्डियम ऑक्सी डेन्टेकल एल), एनाकार्डियेसिया कुटुंब का है। काजू का मूलस्थान ब्राजील है, जहाँ से 16वीं सदी के उत्तरार्ध में उसे वनीकरण और मृदा संरक्षण केप्रयोजन से भारत लाया गया,  हालांकि आजकल इसकी खेती दुनिया के अधिकाश देशों में की जाती है। सामान्य तौर पर काजू का पेड़ 13 से 14 मीटर तक बढ़ता है। हालांकि काजू की बौना कल्टीवर प्रजाति जो 6 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है, जल्दी तैयार होने और ज्यादा उपज देने की वजह से बहुत फायदेमंद व्यावसायिक उत्पादकों के लिए साबित हो सकती है ।
काजू कर्नल का प्रयोग मिष्टान्न तैयार करने में किया जाता है। काजू के कवच से बहुत ही उपयोगी तेल उपलब्धा होता है जिसका औद्योगिक कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता है। इस तेल को काजू कवच द्रव(CSNL) कहा जाता है। काजू आपिल को यूँ ही फल की तरह खाया जाता है या फल-सलाद में मिलाया जाता है या फिर इसके रस से पेय तैयार किया जाता है। काजू आपिल से एक मादक पेय भी तैयार किया जाता है जो फनी नाम से प्रसिद्ध है।

जलवायु

काजू एक उष्ण कटिबंधी फसल है। यह उष्णह, गीले तथा प्ररूपतया उष्णहकटिबंधी जलवायु में पलता है। सामान्य‍त: काजू की खेती 700 मी. से कम ऊॅचाई वाली जगहों में ही होती है जहॉं पर तापमान 20° सें. से कम नहीं होता। फिर भी, कभी-कभी ये 1200 मी. तक की ऊँचाई पर भी पलते हैं। वैसे,
और सलाना वर्षा 1000 से 2000 मिमी तक होती है। फूल लगने और फल लगने के बीच 36 डिग्री सेंटीग्रेड से ज्यादा तापमान होने पर पौधे पर फल नहीं आते, और आएं भी तो टिक नहीं पाते। पूरे साल होने वाली वर्षा काजू के लिए अच्छी नहीं होती, हालाँकि पौधे बढ़ सकते हैं और कभी कभी फल भी आ सकते हैं। काजू की अच्छी उपज के लिए जरूरी है कि साल कम से कम 4 महीने की निश्चित अवधि में मौसम सूखा रहे। अगर फूल लगने की अवधि में भारी वर्षा जो और नमी ज्यादा रहे तो फूल और फल झड़ जाते हैं और फफूँदजन्य रोगों का खतरा बढ़ जाता है। तटीय प्रदेश ही काजू के लिए सबसे अनुकूल है। काजू एक ढीठ फसल है जो अनावृष्टि की अवस्थार का भी सहन कर लेती है। परंतु सर्दी इसके लिए एकदम प्रतिकूल है।

मृदा
काजू एक ढीठ फसल है जो सिवाय भारी चिकनी मिट्टी, दलदली मृदा व लवण मिट्टी के अन्या सभी प्रकार की मृदा में पलती है। फिर भी, जलोत्सा रित लाल, बलुई तथा लैटराइट मृदा ही इसके लिए सबसे अनुकूल है। काजू के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मिट्टी वह होगी जो गहरी हो जहाँ जलजमाव न हो, जो बलुआ दोमट किस्म की हो और मिट्टी के नीचे कठोर सतह न हो, शुद्ध बलुआ मिट्टी में भी काजू पैदा होगा लेकिन ऐसी मिट्टी में खनिजों की कमी आशंका होती है। काजू की खेती के लिए ऐसी मिट्टी उपयुक्त नहीं होती, जो भारी किस्म की हो और जिसमें जलनिकास की अच्छी व्यवस्था न हो, 8.0 से अधिक पीएच वाली मिट्टी भी काजू की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती। काजू के फसल अत्यधिक क्षारीय या अत्यधिक लवणीय मिट्टी में नहीं बढ़ती, लाल बलुआ दुम्मट, लैटराइट तथा तटीय रेतीली मिट्टी भी, जिसका पीएच हल्का अम्लीय हो, काजू की खेती के लिए सर्वोत्तम होती है।

रोपण सामग्री
काजू संकर परागणवाली फसल है और बीज से पैदा हुए पौधों की काजू की गिरी, एप्पल और उत्पादकता में बहुत विविधता होती है | रोपण सामग्री चुनते वक्त अत्यंत सावधानी बरतनी है। काजू का, बहुत बड़ी मात्रा में पर-परागणन होता है। अत: खरी रोपण सामग्री उत्पन्न करने के लिए व्याावसायिक पैमाने पर कायिक प्रवर्धन संस्तु्त है।

अंतराल
काजू के लिए सामान्य्त: संस्तुईत अंतराल 7.5 X 7.5 मी. से 8 X 8 मी. तक है जिसे प्रबंधन-क्षमता तथा मृदा के अनुसार 4 X 4 मी. तक कम किया जा सकता है। रोपण के 7-9 साल तक जगह की बचत केलिए उच्च सघन रोपण पद्धति अपनाई जा सकती है जिसमें अंतराल 4 X 4 मी., 5 X 5 मी. या 4 X 6 मी. होता है। 8-9 साल बाद अधिशेष पौधों को निकालकर अंतराल को 6 X 8 मी., 8 X 9 मी. या 10 X 10 मी. तक बढाया जा सकता है।

रोपण प्रक्रिया तथा रोपण काल
काजू में वर्ग रोपण प्रक्रिया उत्त म है। सबसे अनुकूल रोपण काल मानसून ऋतु (जून - दिसंबर) ही है जब पूर्वी तट तथा पश्चिमी तट की वायु में आर्द्रता की मात्रा अधिक होती है। जहॉं पर सिंचाई की सुविधा उपलब्धप हो वहॉं शीत काल को छोड़कर अन्य किसी भी महीने में रोपण किया जा सकता है। सामान्यशत: काजू 60 X 60 X 60 मी. के गड्ढों में रोपा जाता है। गड्ढों को रोपण के 15-20 दिवस पहले ही खोदकर सूर्यप्रकाश में खुला छोड़ दिया जाता है ताकि कलमों की जड़ खराब करने वाले दीमक व चींटी दूर हो जाएं। गड्ढे का तीन-चौथाई भाग उपरिमृदा तथा जैव खाद के मिश्रण से भरा जाता है। कलमों को रोपने से पहले उसके बाहर के पॉलीथीन बैग निकाला जाता है। रोपते वक्तस खयाल रहना चाहिए कि कलम-जोड़ ज़मीन से कम से कम 5 सें.मी. ऊपर हो। कलम-जोड़ पर जो पॉलीथीन टेप लगाया होता है उसे भी अत्यं त सावधानी से निकालना चाहिए। कलमों को तीक्ष्ण हवा से बचाने के लिए रोपण के तुरंत बाद स्थूयणन अनिवार्य होता है। रोपण के पहले कुछ सालों में पौधों की द्रोणी जैवापशिष्ट् से पलवारा जाए।

उर्वरक व खाद का प्रयोग
ठीक मात्राओं में उर्वरक व खाद लगाना, पेड की वृद्धि तथा पुष्पदन में सहायक होता है। प्रति पेड़ 10-15 किलो गोबर या कंपोस्ट लगाना उपयोगी होता है। काजू के लिए संस्तुयत उवर्रक है, 500 ग्राम नाइट्रोजन (1.1 किलो यूरिया),125 ग्राम P2O5 (265 ग्राम रॉक फॉस्फेूट) तथा 125 ग्राम K2O (208 ग्राम पॉटैश म्यूिरियट) प्रति पेड़ प्रति वर्ष। उर्वरक डालने का अनुकूलतम समय भारी वृष्टि के तुरंत बाद की अवधि है जब मृदा में काफी नमी हो। रोपण के पहले तथा दूसरे सालों में उर्वरक की उपर्युक्तै मात्राओं की क्रमश: एक तिहाई तथा दो तिहाई उर्वरक डालना चाहिए। तीसरे साल से पूरी मात्रा में उर्वरक डालना चाहिए।

प्रौढ़ काजू वृक्ष के लिए जिन उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए वे है:

500 ग्राम नाइट्रोजन (1.1 किग्रा यूरिया), १२५ ग्राम पी2 ओ5 (7.50 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) और १२५ ग्राम के2ओ (200 ग्राम पोटाश का म्यूरिएट)। एक पौधे के लिए पुष्टिकारक आवश्यकताओं को और उर्वरकों का विवरण तालिका 2 में दिया गया है:

पौधे की आयु यूरिया (ग्राम) सिंगल सुपर फॉस्फेट (ग्राम) पोटाश का म्यूरिएट
पहला साल 375 275 75
दूसरा साल 750 525 150
तीसरा साल 1100 750 200
Note
उर्वरकों का प्रयोग बारिश के रूक जाने के तुरंत बाद किया जाना चाहिए। उर्वरक ड्रिप लाइन के किनारे किनारे वृत्ताकार ट्रेंच में डाला जाना चाहिए। उर्वरकों के प्रयोग के पहले मृदा की नमी सुनिश्चित कर लेनी चाहिए। मानसून के पहले (मई-जून) और बाद (सिंतबर –अक्टूबर) – इस तरह दो बार डाला जाए, जब मिट्टी में पर्याप्त नमी रहती है। बलूवाही और लैटरा इट मृदा में ढलानवाली जमीन में और भारी वर्षा वाले इलाकों में उर्वरकों को पौधे से 1 ½मीटर की दूरी पर वृत्ताकार 25 सेंमी. चौड़े और 15सेंमी गहरे खड्डे में डाला जाना चाहिए। लाल दोमट मृदा और कम वर्षावाले क्षेत्रों में पहले साल पौधे से 5मी की दूरी पर, दूसरे साल 7 मीटर की दूरी पर, तीसरे साल 1 मीटर की दूरी पर और चौथे और आगे के सालों में 1.5 मीटर की दूरी पर बनी वृत्ताकार मेड़ों पर डाला जाना चाहिए।

निराई
तने के आसपास 2 मीटर के व्या6सार्घ तक की सफाई हाथ से की जाए। निराई रासायनिकों से भी संभव है। इसके लिए एक लीटर पानी में 6-7 मिल्ली लीटर ग्लाइफॉसेट मिलाकर जून-जुलाई महीने में लगाया जाता है।

पलवारन
मृदा की आद्रता बनाए रखने एवं मृदा-अपर्दन रोकने के लिए समय-समय पर पेड़ों की द्रोणी पलवारना अनिवार्य होता है। पलवारन यदि जैवमात्रा से हो तो और भी बहत्त र होगा क्योंणकि इससे अपतृण का नियंत्रण होता है साथ ही, गरमी के मौसम में उपरि-मृदा से जल-वाष्पोन होने की जो प्रवृत्ति है उसमें भी रोकथाम होगा और मृदा का तापमान भी ठीक रहेगा। ढालू जगहों में खाइयॉं खोदकर पलवारा जाता है। ऐसा करने से, मृदा संरक्षण एवं आर्द्रता संरक्षण होता है और उत्पा दन भी बढता है।

काटछॉंट
काजू-बागानों में काटछॉंट बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रोपण के पहले साल में काजू-कलमों के प्रकंदों से फूटने वाले अंकुरों को बारंबार तोड़ना अनिवार्य है। इसीप्रकार आगे चलकर भी पेड़ के निचले प्ररोहों, आड़े-तिरछे प्ररोहों तथा सूखे प्ररोहों को समय-समय पर निकालने से पुष्पन व फलन में वृद्धि होती है।

सिंचाई
वैसे तो भारत में वृष्टिमय स्थितियों में ही काजू की खेती की जाती है। लेकिन गरमी के महीनों में प्रति पेड़ 200 लीटर की दर पर हर चौदह दिन सिंचाई करने से उत्पारदन बढ़ जाता है।

अंतर्रोपण
काजू बागानों में प्रत्येपक क्षेत्र की मृदा, जलवायु व अन्यं स्थाकनीय परिस्थितियों के आधार पर अदरक, हल्दी्, दाल, टैपियोका आदि का अंतर्रोपण किया जा सकता है। पेड़ों के बड़े हो जाने पर काली मिर्च का भी अंतर्रोपण किया जा सकता है।

पौध संरक्षण
काजू बागानों में दिखाई देने वाले कुछ प्रमुख पीड़क हैं चाय मच्छर, तना वेधक, पर्ण सुरंगक, पर्ण मंजरी जालक आदि। इनमें चाय मच्छर व तना वेधक सबसे खतरनाक हैं।
चाय मच्छर : चाय मच्छ‍र बाध से उपज में 30-40% कमी होती है। यह मृदु प्ररोहों, पुष्पोंच तथा अपरिपक्वछ नटों को क्षति पहुँचाता है। वैसे तो इसका आक्रमण हर साल और हर ऋतु में होता है लेकिन सबसे तीक्ष्णि आक्रमण अक्तूsबर से मार्च तक के काल में होता है। इस पीड़क का नियंत्रण तीन फुहारों की फुहार-योजना से किया जा सकता है।

कीटों तथा रोगों से सुरक्षा
1. कीट
यह पाया गया है कि 30 प्रजातियों के कीड़े काजू में लगते हैं। इनमें टी- मॉस्किवटो, फ्लावर थ्रिप, स्टेम एंड रूट बोरर और फ्रूट एंड नट बोरर प्रमुख है जिससे उपज में 30 प्रतिशत की हानि होती है।

टी- मॉस्किवटो:
ये कीड़े (छोटे और बड़े) पेड़ों की कोमल पत्तियाँ, हरी पत्तियों और कच्चे काजू फल को भी चाटते है। इसकी लार विषैली होती है जिससे उस जगह ख़राब हो जाती है जहाँ ये चाटते हैं। अगर बड़ी संख्या में नये पौधों में कीड़े लग जाए तो उनके मरने की खतरा होता है। इन कीड़ों के आक्रमण को दूर से ही पेड़ों की हालत से पहचाना जा सकता है। बरसात के मौसम की शूरूआत में इन कीड़ों की संख्या बहुत बढ़ जाती है।
इस कीट से काजू की रक्षा के लिए कार्बारिल, .1% या फोसालोन .07% या डाइमेथोट .05 प्रतिशत का छिड़काव एक बार नए पत्ते लगने के समय, एक बार पुष्पन के आरभिंक दौर में और एक बार फल लगते समय किया जाना चाहिए।

थ्रिप
ये कीड़े (छोटे-बड़े) पत्तों के भीतरी हिस्से में लगकर उन्हें मुख्य नस के पास खाते है जिसके कारण पत्तों पर पीले दाग पड़ जाते हैं जो बाद में भूरे हो जाते हैं। इसके कारण पत्तों के रंग सफेद होने लगता है। ये कीड़े सूखे मौसम में लगते हैं। मोनोक्रोटोफास .05% या कारबारिल .1% के छिड़काव से इनपर काबू पाया जा सकता है।

स्टेम एंड रूट बोरर
ये छोटे सफेद कीड़े तने और जड़ की छाल के ताजा ऊतकों में छेद कर देते हैं सबएपिडर्मल ऊतकों का आहार कर पेड़ का भीतर इधर-उधर सुरंगे बना देते हैं। वास्कुलर ऊतक के बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने से रस का प्रवाह रूप जाता है जिससे स्टेम कमजोर हो जाता है। इसके खास लक्षण हैं। कॉलर रीजन में छोटे छोटे छेद, गमोसिस, पत्तों का पीला पड़कर झड़ना और टहनियों का सूख जाना। एक बार ये कीड़े लग जाएँ तो इन्हें पूरी तरह हटाना असंभव हो जाता है। फिर भी भी एक बार अप्रैल-मई में और एक बार नवंबर में 1 प्रतिशत बीएचसी के प्रयोग से इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है।

फल में छेद करनेवाले कीड़े:
ये कीड़े काजू के फल छेद कर देते है जिससे काजू हल्का जो जाता है और उसका आकार ख़राब जो जाता है। इससे बचने के लिए पुष्पण और फलन के समय मोनोक्रोटोफास .05% का छिड़काव करना चाहिए।

रोग
सौभाग्य में काजू में कोई गंभीर बीमारी नहीं लगती। काजू की एक ही समस्या है पाउडरी मिल्ड्यू जो एक फफूंदी के कारण पैदा होती है। यह बीमारी नई टहनियां और फूलों को प्रभावित करती है और वे ख़राब हो जाते हैं। यह रोग खास तौर पर ऐसे मौसम में लगता है जब आसमान में बादल छाए रहते हैं। 2% सल्फर डब्ल्यूपी के छिड़काव से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।

काजू की किस्में
काजू के एक पेड़ से 20 से 25 किग्रा तक काजू का उत्पादन संभव है।
राज्य किस्म
आन्ध्र प्रदेश बीपीपी 4, बीपीपी 6, बीपीपी 8
कर्नाटक चिंतामणि 1, चिंतामणि 2, धना (एच-1608), एनआरसीसी सेलेक्शन 2, भास्कर, उल्लाल 1, उल्लाल 3, उल्लाल 4, यूएन 50, वंगूर्ला 4, वेंगूर्ला 7
केरल धना, के 22-1, मडक्कतरा 1, मडक्कतरा 2, कनका, अमृता, प्रियंका
मध्य प्रदेश टी नं. 40, वेंगुर्ला 4
महाराष्ट्र वेंगुर्ला 1, वेंगुर्ला 4, वेंगुर्ला 4, वेंगुर्ला 6, वेंगुर्ला 7
गोवा गोवा 1, गोवा 2, वेंगुर्ला1, वेंगुर्ला 4, वेंगुर्ला 6, वेंगुर्ला 7
ओड़िशा भुनेश्वर 1, बीपीपी और धना
तमिलनाडू वीआरआई 1, वीआरआई  2
प.बंगाल झारग्राम 1, बीपीपी

काजू उत्पादन की मात्रा
फसल की पैदावार कई तत्वों, जैसे कि बीज के प्रकार, पेड़ की उम्र, बागबानी प्रबंध के तौर-तरीके, पौधारोपन के तरीके, मिट्टी के प्रकार और जलवायु की स्थिति पर निर्भर करता है। हालांकि कोई भी एक पेड़ से औसतन 8 से 10 किलो काजू के पैदावार की उम्मीद कर सकता है। हाइब्रिड या संकर और उच्च घनत्व वाले पौधारोपन की स्थिति में और भी ज्यादा पैदावार की संभावना होती है।एक पौधे से 10 किल्लो की फसल होती है तो 1000-1200 रु किल्लो के हिसाब से एक पौधे से एक बार में 12000 रुपये की फसल होगी ।

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