Tuesday 7 May 2019

हल्दी की खेती
हल्दी एक सदाबहार बूटी है और दक्षिण एशिया की फसल है। इसे भारती केसर भी कहा जाता है और यह एक महत्तवपूर्ण पदार्थ है और स्वाद और रंग के लिए प्रयोग किया जाता है। हल्दी दवाइयों के लिए भी प्रयोग की जाती है क्योंकि इसमें कैंसर और विषाणु विरोधी तत्व पाए जाते हैं। इसे धार्मिक और रीति रिवाज़ों के कामों में भी प्रयोग किया जाता है। इसके विकास के लिए राईजोमस प्रयोग किये जाते हैं। इसके पत्ते लंबे, चौड़े और गहरे हरे रंग के और फूल हल्के पीले रंग के होते हैं। भारत दुनिया में सब से ज्यादा हल्दी उगाने, खाने और निर्यात करने वाला देश है। भारत में यह फसल आंध्रा प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, कर्नाटक और केरल में उगाई जाती है।
इसकी खेती आसानी से की जा सकती है तथा कम लागत तकनीक को अपनाकर इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है. यदि किसान भाई इसकी खेती ज्यादा मात्र में नहीं करना चाहते तो कम से कम इतना अवश्य करें जिसका उनकी प्रति दिन की हल्दी की मांग को पूरा किया जा सकें. निम्नलिखित शास्त्र वैज्ञानिक पद्धतियों को अपना कर हल्दी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है.


जलवायु
हल्दी एक मसाला फसल है, जिस क्षेत्र में 1200 से 1400 मि.मी. वर्षा, 100 से 120 वर्षा दिनों में प्राप्त होती
है, वहां पर इसकी अति उत्तम खेती होती है। समुद्र सतह से 1200 मीटर ऊंचाई तक के क्षेत्रों में यह पैदा की जाती है, परंतु हल्दी की खेती के लिए 450 से 900 मीटर ऊंचाई वाले क्षेत्र उत्तम होते हैं। हल्दी एक उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र की फसल हैं। हल्दी के लिए 30 से 35 डिग्री से.मी. अंकुरण के समय, 25 से 30 डिग्री से.मी. कल्ले निकलने 20 से 30 डिग्री से.मी. प्रकंद बनने तथा 18 से 20 डिग्री से.मी. हल्दी की मोटाई हेतु उत्तम है।

मृदा
हल्दी का उत्पादन सभी प्रकार की मिट्टी में किया जा सकता हैं, परंतु जल निकास उत्तम होना चाहिए। इसका पीएच 5 से 7.5 होना चाहिए। हल्दी की खेती करने के लिए दोमट, जलोढ़, लैटेराइट मिट्टी, जिसमें जीवांश की मात्रा अधिक हो, वह इसके लिए अति उत्तम है। पानी भरी मिट्टी इसके लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त होती है।

प्रजातियां 
1. सी.एल. 326 माइडुकुर:-
लीफ स्पाॅट बीमारी की अवरोधक प्रजाति है, लम्बे पंजे वाली, चिकनी, नौ माह में तैयार होती है। उत्पादन क्षमता 200-300 क्विं./हेक्टेयर तथा सूखने पर 19.3 प्रतिशत हल्दी मिलती हैं।
2. सी.एल. 327 ठेकुरपेन्ट:-
इसके पंजे लम्बे, चिकने एवं चपटे होते हैं। परिपक्वता अवधि 5 माह तथा उत्पादन क्षमता 200-250 क्विं./हेक्टर सूखने पर 21.8 प्रतिशत हल्दी प्राप्त होती हैं।
3. कस्तूरी
यह शीघ्र (7 माह) में तैयार होती हैं। इसके पंजे पतले एवं सुगन्धित होते हैं। उत्पादन 150-200 क्विं./
हेक्टेयर 25 प्रतिशत सूखी हल्दी मिलती हैं।
4. पीतांबरा:-
यह राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित है, यह अधिक उत्पादन देती है। आई.सी.ए.आर. द्वारा स्थापित हाई अल्टीट्यूट अनुसंधान केन्द्र पोटांगी (उड़ीसा) द्वारा उत्पादन की गई प्रजातियां निम्नलिखित हैं जो म.प्र. के लिए उपयुक्त हैं।
रोमा
यह किस्म 250 दिन में परिपक्व होती हैं। उत्पादन 207 क्विंटल/हेक्टेयर शुष्क हल्दी 31.1 प्रतिशत, ओलियोरोजिन 13.2 प्रतिशत इरोन्सियल आयल 4.4 प्रतिशत सिंचित एवं असिंचित दोनों के लिए उपयुक्त होती हैं।
सूरमा:-
इसकी परिपक्वता अवधि 250 दिन एवं उत्पादन 290 क्विं./हे. शुष्क हल्दी 24.8 प्रतिशत, ओलियोरोजीन 13.5 प्रतिशत, इरोन्सियल आॅयल 4.4 प्रतिशत उपयुक्त होती हैं।
सोनाली:-
इसकी अवधि 230 दिन, उत्पादन 270 क्विंटल/हे. शुष्क हल्दी 23 प्रतिशत, ओलियोरोजिन 114 प्रतिशत
इरोन्सियल आयल 4.6 प्रतिशत होता हैं। इस वर्ग की कोयम्बटूर-1, 35 एन, पीटीएस-43, पीसीटी-8 जातियां भी हैं। इसके अतिरिक्त दवा के लिए सफेद हल्दी कर्कुमा अमाड़ा एवं प्रसाधन सामग्री हेतु कुर्कुमा एरोमोटिका की भी कई जातियां तैयार की गयी हैं।

रोपण का समय:-
हल्दी के रोपण का उचित समय अप्रैल एवं मई का होता है।


खेत की तैयारी एवं बोने की विधि एवं प्रकंद की मात्रा:-
खेत की बुआई करने से पहले उसकी 4-5 जुताई कर, उसे पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरा एवं समतल कर लिया जाना चाहिए। पूर्व फसल के अवशेषों को अलग कर दिया जाना चाहिए। हल्दी रोपण हेतु 15 से.मी. ऊंची, एक मीटर चैड़ी तथा सुविधानुसार लम्बी (3-4 मीटर) क्यारियां, 30 से.मी. की दूरी पर क्यारी से क्यारी रख कर बना लेना चाहिए। यदि खेत में नेमोटोड की समस्या हो तो प्लास्टिक सोलेराइजेशन अप्रैल के महीने में ही कर लें, तभी क्यारियां बनाएं। हल्दी का रोपण प्रकन्द (राइजोम) से होता है, जिसमें 20 से 25 क्विंटल प्रकन्द प्रति हेक्टर लगता है। प्रत्येक प्रकन्द में कम से कम 2-3 आॅंखे होना चाहिए। प्रकन्दों को 0.25 प्रतिशत इण्डोफिल, एम-45 घोल में कम से कम 30 मिनिट तक डुबोकर उपचारित करें, कटे-सड़े एवं सूखे तथा अन्य रोग से ग्रसित प्रकन्दों को छांटकर पृथक कर लेना चाहिए। ध्यान रखें कि एक वजन, आकार के कंद एक कतार में लगाएं अन्यथा छोटा-बड़ा प्रकन्द लगाने पर पौधे की बढ़वार समान नहीं हो पाती है। 5 से.मी. गहरी नाली में 30 से.मी. कतार से कतार तथा 20 से.मी. प्रकंद की दूरी रखकर रोपण करें। मदर राइजोम को ही बीज के रूप में उपयोग करना चाहिए। रोपण के बाद मिट्टी से नाली को ढॅंक दें।


सिंचाई:-
हल्दी की फसल में 20-25 हल्की सिंचाई की जरूरत पड़ती हैं। गर्मी में 7 दिन के अन्तर पर तथा शीतकाल में 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए।


खाद, उर्वरक मल्चिंग एवं अन्तः कर्षण क्रियाएं:-
हल्दी की फसल को जीवांश खाद की काफी आवश्यकता रहती है। 25 टन कम्पोस्ट या गोबर की खूब सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टर की दर से जमीन में मिला देना चाहिए। रासायनिक उर्वरक नत्रजन-60 किग्रा., स्फुर 30 किग्रा. एवं पोटाश 90 किग्रा. प्रति हेक्टर आवश्यक हैं। स्फुर की पूरी मात्रा एवं पोटाश आधी मात्रा रोपण के समय जमीन में मिला लें। नत्रजन की आधी मात्रा 45 दिन रोपण के बाद और शेष आधी नत्रजन एवं पोटाश की मात्रा 90 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय डालें।
हल्दी रोपण के बाद 12.5 टन/हेक्टर की दर से हरी पत्ती, सूखी घास या अन्य जैविक अवरोध परत क्यारियों के ऊपर फैला देना चाहिए। दूसरी एवं तीसरी अन्य 5 टन प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव कर देने के बाद किसी भी अवरोध परत पदार्थ को बिछा दें। तीन-चार बार निंदाई करें, क्योंकि इसको ग्रीष्मकाल में लगाते हैं, जिससे पानी काफी देना पड़ता हैं, जिससे खरपतवार काफी उग आते हैं । अक्टूबर के बाद भी सिंचाई करते हैं, जिससे उत्पादन अच्छा होता हैं।


हल्दी की मिश्रित खेती या अन्तरवर्ती फसल:-
मैदानी क्षेत्र में मिर्च एवं अन्य फसलों के साथ मुख्यतया सब्जी वाली फसलों में इसे मिश्रित फसल के रूप में लगाया जाता हैं। इसे अरहर, सोयाबीन, मूंग, उड़द की फसल के साथ भी लगाया जा सकता है। अन्तरवर्ती फसल के रूप में बगीचों में जैसे आम, कटहल, अमरूद, चीकू, केला फसल के लाभ का अतिरिक्त आय प्राप्त की जाती है।


हल्दी फसल के प्रमुख कीट एवं व्याधियां: –
शूटबोरर:- यह कीट हल्दी के स्युडोस्टेम (तना) एवं प्रकंद में छेद कर देता हैं। इससे पौधों में भोज्य सामग्री आदि तंतुओं के नष्ट होने से सुचारू रूप से प्रवाह नहीं कर पाती है तथा कमजोर होकर झुक जाता है। इसका नियंत्रण 0.05 प्रतिशत डाइमिथोएट या फास्फोमिडान का छिड़काव करने से किया जावे।

साॅफ्टराट:-
हल्दी की यह काफी क्षति पहंुचाने वाली बीमारी है। यह बीमारी पीथियमस्पेसीन के प्रकोप से होती है। इसके
प्रकोप से प्रकन्द सड़ जाता है। नियंत्रण के लिए 0.25 प्रतिशत इण्डोफिल एम-45 से मिट्टी की ड्रेंचिंग करें। रोपण के पहले प्रकन्द का उपचार करके ही लगायें।


लीफ स्पाट:- यह बीमारी कोलिटोट्राइकम स्पेसीज फफूंद के कारण होती हैं। इसमें छोटे अण्डाकार अनियमित या नियमित भूरे रंग के धब्बे पत्तियों पर दोनों तरफ पड़ जाते हैं, जो बाद में धूमिल पीली या गहरे भूरे रंग के हो तो सावधानी बतौर बीमारी के प्रकोप के पूर्व ही 1 प्रतिशत बोर्डाे मिश्रण का छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर सितंबर के प्रथम सप्ताह में करें।

फसल की खुदाई:-
हल्दी फसल की खुदाई 7 से 10 माह में की जाती है। यह बोई गयी प्रजाति पर निर्भर करता है।
प्रायः जनवरी से मार्च के मध्य खुदाई की जाती है। जब पत्तियां पीली पड़ जाये तथा ऊपर से सूखना प्रारंभ कर दे। खुदाई के पूर्व खेत में घूमकर परीक्षण कर ले कि कौन-कौन से पौधे बीमारी युक्त है, उन्हें चिंहित कर अलग से खुदाई कर अलग कर दें तथा शेष को अलग वर्ष के बीज हेतु रखें।

कटाई
मई- जून में  बोई गई फसल फरवरी माह तक खोदने लायक हो जाती है इस समय धन कंदो का विकास हो जाता है और पत्तियां  पीली पड़कर सूखने लगती है तभी समझना चाहिए कि हल्दी पक चुकी है तथा अब इसकी कटाइ या खोदाइ की जा सकती है. पहले पौधो के दराती हसिए से काट देना चाहिए तथा बाद में हल से जुताई करके हल्दी के कंदों को आसानी से निकाला जा सकता है जहां पर भी जरूरत समझी जाए कुदाली का भी प्रयोग किया जा सकता है. हल्दी की अगेती फसल सात-आठ आठ-नौ माह तथा देर से पकने  वाली 9-10 माह में पककर तैयार होती है.

उपज
जहां पर उपरोक्त मात्र में उर्वरक तथा गोबर की खाद का प्रयोग किया गया है तथा सिचिंत क्षेत्र में फसल बोई गई है तो 50-100 किवंटल प्रति हेक्टेयर  तथा असिंचित क्षेत्रों से 50-100 किवंटल प्रति हेक्टेयर कच्ची हल्दी प्राप्त की जा सकती है. यह ध्यान रहे कि कच्ची हल्दी को सूखाने के बाद 15-25 प्रतिशत ही रह जाती है.

बीज सामग्री का भंडारण:-
खुदाई कर उसे छाया में सुखा कर मिट्टी आदि साफ करें। प्रकंदों को 0.25 प्रतिशत इण्डोफिल एम-45 या 0.15 प्रतिशत बाविस्टीन एवं 0.05 प्रतिशत मैलाथियान के घोल में 30 मिनिट तक उपचारित करें। इसे छाया में सुखाकर रखें। हल्दी भंडारण के लिए छायादार जगह पर एक मीटर चैड़ा, 2 मीटर लम्बा तथा 30 से.मी. गहरा गड्ढा खोदें। जमीन की सतह पर धान का पुआल या रेत 5 से.मी. नीचे डाल दें। फिर उस पर हल्दी के प्रकन्द रखें इसी प्रकार रेत की दूसरी सतह बिछा कर हल्दी की तह मोड़ाई करें। गड्ढा भर जाने पर मिट्टी से ढॅंककर गोबर से लीप दें।


हल्दी की क्योरिंग:-
हल्दी के प्रकन्दों को सूखा लेना चाहिए तथा उसके ऊपर की गंदगी साफ करके कड़ाहे में उबलने के लिए डालंे। फिर उसे कड़ाहे में चूने के पानी या सोडियम बाई कार्बनेट के पानी में घोल लें। पानी की मात्रा उतनी ही डालें जिससे पानी ढॅंक जावे। उसे 45 से 60 मिनट तक उबाले जब सफेद झाग आने लगे तथा उसमें से जब विचित्र महक आने लगती है, तब उसे अलग से पृथक करें। आजकल सोलर ड्रायर भी हल्दी के लिए बनाये गये हैं। उसे पानी से निकाल कर अलग करें। हल्दी जो कि उबल कर मुलायम हो गयी है या नहीं। खुदाई के 2 दिन बाद ही उबालना चाहिए। फिर उसे 10-15 दिन सुखाएं।

हल्दी का सुखाना:-
उबली हुई हल्दी को बांस की चटाई पर रोशनी में 5-7 से.मी. मोटी तह पर सुखायें। शाम को ढॅंककर रख दें। 10-15 दिन पूर्णतया सूख जाने से ड्रायर के 60 डिग्री से. पर सुखाते हैं। सूखने के बाद तक उत्पाद प्राप्त होता हैं।


पालिशिंग:- हल्दी का बाहरी भाग खुरदरा तथा छिलके वाला दिखाई देता है। इसीलिए उसे चिकना तथा एक समान
बनाने के लिए हाथ से आदमियों द्वारा पालिश करते है। बोरियों में भरकर उसे रगड़ा जाता है। आजकल पालिशिंग
ड्रम बनाये गये हैं, उसमें भी पालिश करते हैं। हल्दी को रंगने के लिए 1 किलोग्राम हल्दी को पीस कर उससे एक क्विंटल हल्दी को रंगा जा सकता है, जिससे यह ऊपर से एक समान पीले रंग की दिखाई देती है।


हल्दी से बनने वाले उत्पाद:-

1.हल्दी का पाउडर जो मसाले के काम आता हैं।
2. हल्दी का आयल:-हल्दी में 3 से 5 प्रतिशत बोलाटाइल आयल (तेल) निकलता हैं जो स्टीम डिस्टीलेशन द्वारा निकाला जाता हैं। यह हल्दी पाउडर से निकाला जाता हैं। तेल 8 से 10 घंटे में धीरे-धीेरे निकलता हैं।
3. टर्मकेरिक ओलियोरोजिन:- यह साल्वेन्टर एक्सट्रेक्शन विधि से निकाला जाता है। इसकी कीमत कर्कुमिन की मात्रा के ऊपर निर्भर करती हैं।


हल्दी का उपयोग:-
1. भोजन में सुगन्ध एवं रंग लाने में, बटर, चीज, अचार आदि भोज्य पदार्थों में इसका उपयोग करते हैं। यह भूख बढ़ाने तथा उत्तम पाचक में सहायक होता हैं।
2. यह रंगाई के काम में भी उपयोग होता हैं।
3. दवाओं में भी उपयोग किया जाता हैं।
4. कास्मेटिक सामग्री बनाने में भी इसका उपयोग किया जाता हैं।

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